मरीचझापी (बंगाल) जैसी नरसंहार से आहत भारतीयता पर मरहम है नागरिकता संशोधन विधेयक


Marichi hai (मरीचझांपी)

उत्पीड़न झेल रहे हिंदू, बौद्ध या सिखों ने बटवारे कि मांग नहीं करी थी। बटवारा उनपर थोपा गया था। सन 1947 से पाकिस्तान, और फिर 1971 के बाद बांग्लादेश में चल रहा जातिसंहार बटवारे की त्रासदी का ही विस्तृत संताप है। यह अत्यंत चिंतनीय है कि भारत ने इन प्रताड़ित समूहों को अब तक किसी प्रकार की विधिक सहायता प्रदान न कर, अनाथ बनाकर छोड़ दिया।

   वर्ष 1979, जनवरी का महीना था। पश्चिम बंगाल के दलदली सुंदरबन डेल्टा (जहाँ गंगा और पद्मा नदी आपस मे मिलती है) में मरीचझापी नामक द्वीप पर बांग्लादेश से भागे करीब 40,000 शरणार्थी एकत्रित हो चुके थे। मुख्यतः दलित हिंदुओं का यह समूह उस महापलायन के क्रम में छोटी-सी एक कड़ी थी जिसमें बंग्लादेश बन जाने (1971) के बाद से लगभग 1 करोड़ उत्पीड़ित हिंदू भारत आकर विभिन्न स्थानों पर बस चुके हैं। 
    जिन विस्थापितों की पैरवी कर कम्युनिस्टों ने पश्चिम बंगाल में अपनी राजनीतिक ज़मीन मज़बूत की थी, सत्ता में आने के बाद उन्हीं शरणार्थियों के प्रति वामपंथी सरकार का रवैया उपेक्षा से हटकर क्रूरता तक पहुँच गया। 
   शरणार्थियों को राज्य की समस्या न मान भारतीय संघ की समस्या जानकर दंडकारण्य से पश्चिम बंगाल आने से रोका जाने लगा। मरीचझापी में बस गए शरणार्थियों को वन्य कानूनों का हवाला देकर वहाँ से भगाने का कुचक्र चला।

आजाद भारत का सबसे बड़ा नरसंहार 
   26 जनवरी, जब पूरे देश में गणतंत्र दिवस का पर्व था और बंगाल में सरस्वती पूजा भी मनाई जा रही थी, मीडिया पर प्रतिबंध लगा, मरीचझापी में धारा 144 लागू कर दी गई और टापू को 100 मोटरबोटों से घेर लिया गया। दवाई, खाद्यान्न सहित सभी वस्तुओं की आपूर्ति रोक दी गई। 
   कम्युनिस्ट सरकार ने द्वीप की पूरी घेरे बंदी कर दी। वहाँ से आवागमन के सारे रास्ते बंद कर दिए गए। द्वीप चारों तरफ से समुद्र से घिरा हुआ था, इसकी वजह से वहाँ पीने के पानी का एकमात्र स्रोत था। उसमें भी सरकारी आदेश के बाद जहर मिला दिया गया।  
   वामपंथी सरकार के केवल इस आर्थिक घेरेबंदी के दौरान ही 2000 से अधिक लोग मारे गए थे। मरने वालों में छोटे छोटे दुधमुंहे बच्चे भी शामिल थे। मजबूरी में हिन्दू शरणार्थी लोगों को द्वीप से निकलना पड़ा। कुछ लोगों को वहीं मार दिया गया। मार कर लाशों को समुद्र में ही फेंक दिया गया। सुंदरवन के जंगलों में लाशों को छोड़ दिया गया जिसे खाकर वहाँ के बाघ आदमखोर बन गए। 
      उच्च न्यायालय के आदेश पर 15 दिन बाद रसद आपूर्ति की अनुमति लेकर जब कुछ लोग मरीचझापी पहुँचे तो उनमें जाने-माने कवि ज्योतिर्मय दत्त भी शामिल थे। दत्त के अनुसार उन्होंने भूख से मरे 17 व्यक्तियों की लाशें देखीं। 
मरीचझांपी

   यह भीषण त्रासदी यहीं नहीं रुकी थी। करीब 30,000 शरणार्थी मरीचझापी में अभी भी डटे हुए थे। उन्हें खदेड़ने के लिए मई महीने में एक बार फिर भारी पुलिस दल यहाँ पहुँचा। इस बार पुलिस के साथ वामपंथी कैडर भी था। जनवरी से भी भीषण इस नरसंहार में तीन दिन तक हिंसा का नंगा नाच चला। 
   दीप हलदर ने अपनी पुस्तक ब्लड आइलैंड  में इस घटना का बहुत ही दर्दनाक विवरण दिया है। मकान और दुकानें जलाई गईं, महिलाओं के बलात्कार हुए, सैंकड़ों हत्याएँ कर लाशों को फिर पानी में फेंक दिया गया और ट्रकों में जबरन भर कर शरणार्थियों को आखिरकार दुधकुंडी कैम्प में भेज दिया गया। बासुदेव भट्टाचार्य, जो बाद में चलकर पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बने, विधानसभा पहुँचे और विजयघोष किया “मरीचझापी को शरणार्थियों से मुक्त करा लिया गया है”। 
   भारतीय उपमहाद्वीप में बटवारे की विभीषिका के बाद भी जो दोहरी मार हिंदुओं पर पड़ती रही है, मरीचझापी उसकी एक बानगी है। यदि उस तरफ खुलना, जातिबंध, चुकनगर या मुरादमेमन गोठ के दंश रहे हैं तो भारतीय सीमाओं के भीतर भी मरीचझापी का भूत है। 

कांग्रेस और कम्युनिस्ट की चुप्पी
   यह सबकुछ जो हुआ वह जलियांवाला बाग नरसंहार के बराबर या उससे अधिक ही जघन्य था। लेकिन इस मामले को कभी मुख्यधारा की खबरों में जगह नहीं मिली। कभी वामपंथी दलों से इस मुद्दें पर प्रश्न नहीं पूछा गया। मरीचझापी बंगाल की राजनीति में कभी मुद्दा नहीं रहा। हिन्दुओ के साथ व्यवहार को लेकर कांग्रेस और कम्युनिस्ट में कोई मतभेद नहीं था। मीडिया और अकादमिक क्षेत्र में चूंकि कम्युनिस्ट बंगालियों का वर्चस्व है, इसलिए वहां भी इसकी खास चर्चा नहीं हुई। तृणमूल सरकार भी इस मामले में अलग साबित नहीं हुई।
   आज भी वही वामपंथी दल, पत्रकार, बुद्धिजीवी हिन्दू शरणार्थियों को नागरिकता देने के खिलाफत कर रहे हैं। आखिर कुछ लोगों के द्वारा लिए गए फैसले की वजह से उनकी जमीन, उनकी मातृभूमि में उनके साथ ही धार्मिक उत्पीड़न होता है तो उसके लिए वो लोग जिम्मेदार कैसे हैं ? 
   यह वामपंथ की पुरानी आदत है कि दलितों, गरीबों, वंचितों, अल्पसंख्यकों के नाम से खुद को पेश कर गरीबों और दलितों का शोषण किया जाता है। मरीचझापी की घटना सबसे बड़ा उदाहरण है किस तरह वामपंथ भारत में भारतीय मूल के धर्मों से नफरत करता है और उनका नरसंहार चाहता है।

इस्लामी जिहाद से बचकर कहा जाए हिन्दू?
   पाकिस्तान और बंग्लादेश में इस्लामी कट्टरवाद को मिली छूट से त्रस्त हिंदू जब जान बचाकर धर्मनिरपेक्ष भारत में आते तो यहाँ कभी उपेक्षा मिलती और कभी तिरस्कार। एक तरफ हत्या, बलात्कार, अपहरण और जबरन धर्मांतरण की लटक रही तलवार थी तो दूसरी तरफ भारत में जटिल कानूनी प्रक्रिया या कैम्पों में नज़रबंदी का डर। कई को वीज़ा उल्लंघन या विदेशी पंजीयन कार्यालयों में पंजीयन न कराने पर जेल भी जाना पड़ा। 
    गौरतलब है कि उत्पीड़न झेल रहे हिंदू, बौद्ध या सिखों ने बटवारे कि मांग नहीं करी थी। बटवारा उनपर थोपा गया था। सन 1947 से पाकिस्तान, और फिर 1971 के बाद बांग्लादेश में चल रहा जातिसंहार बटवारे की त्रासदी का ही विस्तृत संताप है। यह अत्यंत चिंतनीय है कि भारत ने इन प्रताड़ित समूहों को अब तक किसी प्रकार की विधिक सहायता प्रदान न कर, अनाथ बनाकर छोड़ दिया। 

नागरिकता संशोधन विधेयक (CAB) 2019 प्रायश्चित है 
   लोकसभा में पारित नागरिकता संशोधन विधेयक 2019, इस भूल का देर से हुआ प्रायश्चित है। जिन स्व्यंभू धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने आज से पहले कभी किसी समूह को सहायता प्रदान करने का प्रयास नहीं किया, उन्होंने इस विधेयक के आते ही लाभार्थियों की पात्रता पर प्रश्न खड़े कर दिए हैं। 
   अनुच्छेद 14 और 15 का हवाला देकर बिल की संवैधानिकता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। विशेषकर अनुच्छेद 14 के दो सिद्धांतों “इन्टेलिजिबल डिफरेन्शिया” और “रीज़नेबल नैक्सस” को उद्धृत कर यह बताने का प्रयास किया जा रहा है कि यह बिल दोनों सिद्धांतों पर खरा नहीं उतरता। अतः यह विधेयक भेदभाव पूर्ण है और अनुच्छेद 14 में दिए समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। 
   कानूनी भाषा में “इन्टेलिजिबल डिफरेन्शिया” का अर्थ वो भेद है जो कारणों की विशिष्टता के चलते आसानी से समझ में आ जाए। इसी तरह “रीज़नेबल नैक्सस” का अर्थ है कि विशिष्ट भेद के चलते प्रभावित वर्गों के लिए कानूनी प्रावधान बनाने का तर्कसंगत आधार। 
   इन दो कसौटियों पर खरा उतरने पर बनाए गए कानून समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करते। इसी विशिष्ट भेद के चलते भारतीय कानून में अनुसूचित जाति, जनजाति, महिलाओं और आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए अनेक प्रावधान किए गए हैं। 
    नागरिकता संशोधन विधेयक विशिष्ट परिस्थितियों से उत्पन्न मानवीय संकट का प्रत्युत्तर है। यदि इतनी बड़ी और लंबी विभीषिका से प्रभावित लोगों को भी विशिष्ट भेद के अंतर्गत कानून बनाने का तर्कसंगत आधार नहीं माना जाएगा तो फिर किसे माना जाएगा? इसीलिए इस विधेयक में सिर्फ अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बंग्लादेश में त्रस्त अल्पसंख्यकों के लिए नागरिकता का प्रावधान है। 

भारत देश धर्मशाला नही है 
   जो लोग अनुच्छेद 14 की दुहाई देकर बिल का विरोध कर रहे हैं उनके तर्क को माना जाए तो फिर इन तीन देशों के मुसलमानों को ही क्यों बल्कि दुनिया भर के किसी भी व्यक्ति को स्वतः भारतीय नागरिकता का प्रावधान मिल जाना चाहिए। 
    वैधानिक प्रावधानों की मनमाफिक व्याख्या करने वाले आलोचक वे लोग हैं जो या तो भारत को संप्रभु, स्वायत्त राष्ट्र न मानकर एक सराय मानते हैं या फिर इन तीन देशों में बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय के द्वारा अल्पसंख्यकों के धार्मिक उत्पीड़न को नकारते हैं। 
   उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि पंडित नेहरू के समय बनाए गए नागरिकता अधिनियम, 1955 के अनुच्छेद 5 की विभिन्न धाराओं में अविभाजित भारत में पैदा हुए नागरिक, उनके विवाहित या विवाहिता, उनके नाबालिग बच्चे और पहली पीढ़ी, जो कि एक वर्ष से भारत में रह रही हो, को भी इन्हीं परिस्थितियों वश नागरिकता का प्रावधान मिला था।     
    घुसपैठ को रोकने और अन्य शरणार्थियों की मदद करने के लिए नागरिकता अधिनियम, 1955, 1986, 1992, 2003 और 2005 में संशोधन लाए गए। चूँकि समस्या अभी भी जस की तस बनी हुई है इसलिए एक और संशोधन पूरी तरह न्यायोचित है। 
    संविधान की संवेदनहीन शाब्दिक व्याख्या तक सिमटे विरोधियों को विभिन्न अनुच्छेदों से पहले संविधान की प्रस्तावना पर भी जाना चाहिए। भारतीय संविधान के प्रारंभिक शब्द “इंडिया दैट इज़ भारत…” भारतीय गणतंत्र को राष्ट्र-राज्य की मान्यता देते हैं। राष्ट्र-राज्य वह अवधारणा है जिसमें राज्य पुरातन सभ्यता और सांस्कृतिक पहचान का उत्तराधिकारी होता है और उसके ऊपर पुरातन पहचान को बनाए रखने का उत्तरदायित्व होता है। 
    इसी उत्तरदायित्व के पालन में नागरिकता संशोधन विधेयक द्वारा पड़ोस में प्रताड़ित हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी व ईसाई धर्मावलंबियों को राहत, भारतीय संघ की नैतिक व संवैधानिक बाध्यता है। संसद के दोनों सदनों द्वारा इस विधेयक का अनुमोदन भारतीय सभ्यता के एक गहरे घाव पर मरहम का काम करेगा। साथ ही यह मरीचझापी में इस्लामी कट्टरवाद द्वारा खींची गई सीमाओं के बीच अपनी संस्कृति को बचाने के लिए भागते हुए खेत हुई हुतात्माओं को हमारी श्रद्धांजलि भी होगी।

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