भारत विभाजन, खिलाफत आंदोलन: जिन्ना, गाँधी और अंबेडकर (भाग- 01)


भारत का बँटवारा एक कटु ऐतिहासिक सत्य है। 1947 में भारत छोड़कर जाने से पहले अंग्रेज भारत के कई टुकड़े (Partition of India) करके गए थे। सीमाओं के दोनों तरफ भीषण खूनखराबा हुआ था और अंततः मुसलमानों को उनका अपना एक देश “पाकिस्तान” के रूप में मिला।
जबकि नेहरू (Nehru) और गाँधी (Gandhi) की जिद के कारण भारत एक “धर्मनिरपेक्ष” राष्ट्र के रूप में बना रहा। ये सभी मोटी-मोटी बातें तो आठवीं के बच्चे को भी पता हैं…! लेकिन 1947 में भारत को इस स्थिति तक लाने से पहले कई वर्षों तक भारत में रह रहे मुसलमानों, उनके धार्मिक नेताओं और “सूअर का माँस खाने वाले  मुसलमान” जिन्ना (Jinnah) ने किस तरह गाँधी और हिंदुओं को बेवकूफ बनाया, इसका पूरा इतिहास जानना है तो यह लेख पूरा पढ़ना होगा।

इस लेख में यह भी स्पष्ट है कि आंबेडकर पूरी तरह से जिन्ना और मुसलमानों की सभी चालबाजियों को समझ चुके थे, लेकिन गाँधी ने उनकी एक न चलने दी। 

  • पाकिस्तान बनाने की भूमिका किस तरह रखी गई... 
  • मुसलमानों ने अपनी माँगें किस तरह लगातार बढ़ाईं... 
  • खिलाफत आंदोलन (Khilafat Movement) में किस तरह एक विदेशी खलीफा के लिए यहाँ के मुस्लिमों ने हिंदुओं पर अत्याचार किए।

पाकिस्तान बनने (Birth of Pakistan) की नींव 1909 में ही पड़ना शुरू हो गई थी
    पाकिस्तान (Birth of Pakistan) बनने की नींव 1909 में ही पड़ना शुरू हो गई थी, जब ब्रिटिश सरकार में विधान परिषदों में सुधारों पर विचार चल रहा था, मुसलमानों ने वायसराय लार्ड मिंटों के समक्ष इस प्रकार की मांगे रखीं :- 
  1. नगरपालिकाओं और जिला परिषदों में उन्हें अपनी संख्या, सामाजिक स्थिति और स्थानीय प्रभाव के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जाए।
  2. विश्वविद्यालयों में शासी निकायों में मुसलमानों को उनके प्रतिनिधित्व का आश्वासन दिया जाए। 
  3. प्रांतीय परिषदों में साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के लिए मुसलमान जमींदारों, वकीलों और व्यापारियों तथा अन्य हितों के समूहों के प्रतिनिधियों, विश्वविद्यालय, स्नातक तथा जिला परिषदों और नगरपालिकाओं के सदस्यों से गठित विशेष निर्वाचन-मंडलों द्वारा चुनाव की व्यवस्था की जाए।  
  4. इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल में मुसलमान प्रतिनिधियों की संख्या उनकी जनसंख्या पर आधारित नहीं होनी चाहिए और किसी भी परिस्थिति में मुसलमानों को निष्प्रभावी अल्पमत में नहीं रखना चाहिए। यथासंभव प्रतिनिधियों के निर्वाचन ही होना चाहिए तथा ऐसे निर्वाचन के लिए मुसलमान जमींदारों, वकीलों, व्यापारियों, प्रांतीय परिषदों के सदस्यों तथा विश्वविद्यालय के शासी निकायों के सदस्यों से गठित अलग मुस्लिम निर्वाचक मंडल को आधार बनाया जाए ।
    आंबेडकर तत्काल समझ गए थे कि मुस्लिमों की माँगें खतरनाक हैं और ये बढ़ती ही जाएँगी। अपनी पुस्तक 'Pakistan or partition of India' में आंबेडकर लिखते हैं कि “मुसलमानों की राजनीतिक मांगे बे-तहाशा बढती जा रही हैं।” 
Dr B R Ambedkar's book
   लेकिन फिर भी अंग्रेजों ने इन मांगो को स्वीकार करते हुए 1909 के अधिनियम में निम्न प्रावधान किए :- 
  1. अपने प्रतिनिधियों को निर्वाचित करने का अधिकार। 
  2. अपने प्रतिनिधियों को अलग निर्वाचन मंगल द्वारा निर्वाचित करने का अधिकार।  
  3. सामान्य निर्वाचन मंडलों के अनुसार भी मतदान करने का अधिकार।प्रभावी प्रतिनिधित्व का अधिकार।  
    1909 के अधिनियम के प्रावधान पंजाब और मध्यप्रान्त को छोड़ सभी में लागू हुए। 1916 अक्टूबर महीने में इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के 19 सदस्यों ने वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड के समक्ष के ज्ञापन दिया जिसमे संविधान में ये सुधार की मांग की:- 
  1. अलग प्रतिनिधित्व का सिद्दांत पंजाब और मध्य प्रांत में भी लागू किया जाए। 
  2. प्रांतीय परिषदों और इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व की संख्या निर्धारित की जाए। 
  3. मुसलमानों के धार्मिक और रीतिरिवाजों के मामलों में अधिनियमों में उनको सरंक्षण प्रदान किया जाए। 

 ब्रिटिश सरकार ने भारत के संविधान के कार्यकरण की समीक्षा करके अतिरिक्त सुधारों का सुझाव देने के लिए 1927 में साईमन कमीशन आयोग का गठन किया। मुसलमानों ने तुरंत ही अतिरिक्त राजनीतिक सुधारों की मांग पेश कर दी। मुस्लिम लीग, अखिल भारतीय मुस्लिम कॉन्फ्रेंस, ऑल पार्टी मुस्लिम कान्फ्रेस, जमायत-उल-उलेमा, खिलाफत कान्फ्रेस जैसी अनेक संस्थाओं ने इन मांगों को रखा। सभी की मांगे एक जैसी ही थीं। इन मांगों को “जिन्ना का 14 सूत्र” कहते हैं। 
    हालाँकि मांगे कुल 15 थीं, जिनमे कुछ का जिक्र यहाँ कर रहा हूँ :- 
  1. केन्द्रीय विधायिका में मुस्लिम प्रतिनिधित्व एक तिहाई से कम नहीं होना चाहिए। 
  2. किसी भी समय यदि प्रदेशीय भूभाग के पुनर्निर्धारण की आवश्यकता पड़ती तो है इसका प्रभाव पंजाब, बंगाल और उत्तर पश्चिम सीमांत प्रान्त में मुस्लिम बहुमत पर नहीं पड़ना चाहिए।  
  3. मुस्लिम धर्म, शिक्षा, भाषा, संस्कृति, मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों, मुस्लिम खैराती, खैराती संस्थाओं के सरंक्षण और संवर्द्धन के लिए तथा उन्हें राज्य सरकारों, स्वशासी संस्थाओं से प्राप्त होने वाले अनुदान को सुनश्चित करने के लिए, संविधान में प्रावधान किया जाना चाहिए। 
  4. केंद्र तथा प्रान्त सरकारों में ऐसे किसी मंत्रीमंडल का गठन नहीं किया जाना चाहिए जिनमे मुसलमान मंत्रियों की एक तिहाई सदस्यता न हो।  
  5. देश की विभिन्न विधायिकाओं तथा अन्य निर्वाचित निकायों में, पृथक निर्वाचक-मंडलों के जरिए मुसलमानों का प्रतिनिधित्व जरूरी है और सरकार मुसलमानों को इस अधिकार से वंचित नहीं कर सकती। यह अधिकार उनकी सहमति के बिना उनसे नहीं लिया जा सकता। 
  
इसके बाद 5 मांगे और की गयी- 
  1. पंजाब और बंगाल के प्रान्तों में जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व। 
  2. केन्द्रीय और प्रांतीय मंत्रिमंडलों में मुसलमानों को एक-तिहाई प्रतिनिधित्व।  
  3. सेवाओं में मुसलमानों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व।  
  4. सिंध को बम्बई प्रेसीडेंसी से अलग और उत्तर पश्चिम सीमाप्रान्त तथा बलूचिस्तान को स्व-शासित राज्य का स्तर। 
  5. अवशिष्ट शक्तियों को केन्द्रीय सरकार के बजाय प्रांतीय सरकारों में निहित करना। 
   
यहाँ 2, 3 मांग स्पष्ट है, लेकिन मांग 1 और मांग 4 में उद्देश्य चार प्रान्तों में जहाँ मुसलमानों को अब तक बहुमत प्राप्त रहा है, उन्हें क़ानूनी तौर पर मान्यता प्रदान किया जाना है। जिससे अन्य 6 हिन्दू बहुमत वाले प्रान्तों में हिन्दुओ की शक्ति संतुलित हो जाएँ। हिंदुओं द्वारा नियंत्रित केन्द्रीय शासन से मुस्लिम प्रान्तों को विमुक्त करने के लिए ही 5वीं मांग रखी गयी थी। 
    मुसलमानों की मांगों का सार यह था कि अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्रीय सरकार के पास नहीं होनी चाहिए, जिसका दूसरा अर्थ था कि उन्हें हिन्दुओ के हाथों में नहीं होना चाहिए। 
    इन मांगों का हिन्दुओ और सिखों ने विरोध किया। साईमन कमीशन ने भी इन मांगों को खारिज किया। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों की सभी नई और पुरानी मांगों को मांग लिया। इसके बाद दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भी मुसलमानों की मांगे बढती गयी। 
   6 जनवरी 1931 को सर मुहम्मद शफी ने एक प्रस्ताव रखा, जिसके मुताबिक :- 
  • जिन प्रान्तों में मुसलमान अल्पसंख्यक हैं, वहां वर्तमान में जिन अधिकारों का उपभोग कर रहे हैं उन्हें वैसा ही रखा जाए। 
  • बंगाल और पंजाब में जनसंख्या के आधार पर दो सयुंक्त निर्वाचक-मंडल का और प्रतिनिधित्व होना चाहिए।  
  • सीटो के आरक्षण सिद्दांत को मौलाना मोहम्मद अली की शर्तों के साथ सयुंक्त रूप से प्रवर्तित करना चाहिए। 
  
 इसके बाद 14 जनवरी 1931 को अपने दूसरे में उन्होंने शर्त रखी जिसके मुताबिक:- 
  • पंजाब में मुसलमानों को सम्पूर्ण सदन की कुल सदस्यता का 49% भाग दिया जाए।
  • उन्हें यह भी छूट दी जाए उस प्रान्त में सृजित होने वाले विशिष्ट निर्वाचन क्षेत्रों से भी मुसलमान चुनाव लड़ सकेंगे।
  • बंगाल में मुसलमानों को सम्पूर्ण सदन की 46% सदस्यता दी जाए।   
  • उन्हें यह भी छूट दी जाए उस प्रान्त में सृजित होने वाले विशिष्ट निर्वाचन क्षेत्रों से भी मुसलमान चुनाव लड़ सकेंगे  
  • इन प्रान्तों में जहाँ मुसलमान अल्पसंख्यक हैं वहां अलग निर्वाचक मंडल हो।

  इन दोनों प्रस्तावों का अंतर स्पष्ट है 
‘’सयुंक्त निर्वाचक मंडल यदि उसके पीछे क़ानूनी बहुमत है। यदि क़ानूनी बहुमत नहीं होता है तो उस स्थिति में अलग निर्वाचक मंडल सहित अल्पसंख्यक सीटें।” इसके बाद ब्रिटेन की मांग ने पहले प्रस्ताव से क़ानूनी बहुमत और दूसरे प्रस्ताव से अलग निर्वाचक मंडल को लिया जिसे मुसलमानों ने स्वीकार कर लिया । 
   आंबेडकर लिखते हैं कि “हिन्दू संयुक्त निर्वाचन मंडल की मांग कर रहे हैं, जबकि मुसलमान अलग निर्वाचन मंडल मांग कर रहे हैं जबकि जिन्ना की 14 सूत्रीय मांगों में तथा 30 दिसम्बर 1927 को पारित संकल्पों में इस बात पर जोर दिया गया था कि जब सिंध को अलग करने और उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त को गवर्नर शासित प्रान्त बना देने पर हिन्दुओ की सहमति के बाद ही मुसलमान पृथक निर्वाचक मंडल की मांग के प्रस्ताव को छोड़ देंगे। इससे साफ जाहिर होता है मुसलमानों का असल मकसद दूसरी मांग को मनवाना है, पृथक निर्वाचक मंडल एक अस्त्र है। हिन्दुओ की कमजोरियों का लाभ उठाना ही मुसलमानों की भावना हैं, हिन्दुओ द्वारा विरोध करने पर पहले तो मुसलमान अड़े रहते हैं और उसके बाद जब हिन्दू मुसलमानों को कुछ दूसरी रियायतें देकर मूल्य चुकाने को तैयार होते हैं तो मुसलमान अपनी जिद छोड़ देते हैं।”

    अम्बेडकर लिखते हैं कि “गोलमेज सम्मेलन में रखी गयी मांगों के बाद कोई भी यह सोच सकता था कि मुस्लिम मांगे हद छू रही हैं लेकिन मुसलमान इतने से भी संतुष्ट नहीं हुए हैं और उनकी नई मांगों की सूची भी तैयार है। 1938 में कांग्रेस ने जिन्ना से उनकी मांगो की सूची मांगी लेकिन जिन्ना ने इनकार किया लेकिन नेहरु और जिन्ना के बीच हुए पत्राचार में मुसलमानों की मांगे सामने आयीं। वास्तव में जिन्ना कभी भी धर्मनिरपेक्ष नहीं थे।”
  ये मांगे थी  :-

  1. राजकीय सेवाओं में मुसलमानों की निश्चित हिस्सेदारी को वाकायदा कानून बना संविधान में सुनश्चित किया जाए।
  2. वंदेमातरम को त्याग दिया जाए।   
  3. उर्दू को राष्ट्रीय भाषा बनाया जाए और इसे सीमित और नुकसान न करने के लिए संविधान में व्यवस्था की जाए।  
  4. तिरंगे झंडे को बदला जाए या मुस्लिम लीग के झंडे को बराबर का महत्व दिया जाए। मुस्लिम बाहुल्य प्रान्तों में सीमा के पुनर्निधारण या समायोजन के द्वारा मुसलमानों की जनसंख्या को प्रभावित नहीं किया जाए।  
  5. शहीदगंज मस्जिद मामले को कांग्रेस अपने हाथ में ले और इस मस्जिद को मुसलमानों को दिलाया जाए। 
  6. संविधान में मुसलमानों के व्यक्तित्व कानूनों को सरंक्षण दिया जाए।  
  7. ‘अजान' और ‘नमाज' पढने और मुसलमानों के धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न करने के अधिकार पर किसी भी तरह कीई पाबंदी नही होनी चाहिए।  
  8. मुसलमानों को गौवंध की आजादी होनी चाहिए।  
  9. मुसलमानों की एकमात्र आधिकारिक, प्रतिनिधि संस्था के रूप में मुस्लिम लीग को मान्यता दी जाए।

   आंबेडकर आगे लिखते हैं कि “इस नई सूची से पता चलता है कि मुसलमान अपनी मांग पर विराम कहाँ करने जा रहे हैं, 1938-1939 के एक साल में ही एक और मांग रखी गयी कि, हर जगह 50% भागीदारी मुसलमानों की सुनश्चित की जाए। उर्दू 6.8 करोड़ मुसलमानों में से मात्र 2.8 करोड़ मुसलमानों की भाषा है लेकिन इसे 4 करोड़ मुसलमानों और अन्य 32.2 करोड़ हिन्दुस्तानियों पर थोप देने जैसा है। मुसलमानों के लिए 50% भागीदारी मांग न केवल हिन्दुओ के अधिकारों में कटौती है बल्कि अन्य अल्पसंख्यक वर्गो को भी नुकसान है। मुसलमान अब हिटलर की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, जबकि 1929 में उन्होंने स्वीकार किया था कि अन्य अल्पसंख्यकों को भी सरंक्षण दिया जाना चाहिए।” अम्बेडकर आगे लिखते हैं “मुसलमानों की मांगे जितनी ज्यादा बढ़ रही हैं ब्रिटिश सरकार उतनी झुकती जा रही है।” 
   अम्बेडकर लिखते हैं, “जिस तरह पृथक निर्वाचक मंडल एक अस्त्र है, उसी तरह अनुचित लाभ उठाने की आदत का दूसरा प्रमाण मुसलमानों द्वारा गौहत्या के अधिकारों में मस्जिदों के आसपास दूसरों धर्मों की बाजे-गाजे की मनाही से मिलता है। गौ-बलि का धार्मिक उद्देश्य मुस्लिम कानूनों में नहीं हैं और मक्का-मदीना में की यात्रा करने वाला गौ-बलि करता है। लेकिन भारत में मुसलमान दूसरे पशुओं की बलि देकर संतुष्ट नहीं होते हैं। यहाँ तक कि इस्लामिक देशों में भी मस्जिद के पास बाजे-गाजे पर आपत्ति नहीं होती है लेकिन भारत में मुसलमान इस पर आपत्ति जताते हैं।  मुसलमानों द्वारा राजनीति में अपराधियों के तौर-तरीकों को अपनाया गया है।” 

    अम्बेडकर आगे लिखते हैं कि “कांग्रेस यह समझने में असमर्थ रही है कि छूट देने की उसकी नीति के कारण ही मुस्लिम आक्रमकता में वृद्धि हुई है और इससे भी बुरा पहलु यह है कि मुसलमान इसे हिन्दुओ की पराजय का एक विषय मानते हैं। तुष्टिकरण की नीति से हिन्दुओ के फंस जाने की आशंका है....।” 
    संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि भारत के विभाजन की नींव 1947 से बहुत-बहुत पहले ही पड़ गयी थी। मुसलमानों को जब आभास होने लगा कि अंग्रेज भारत छोड़कर जा सकते हैं, उन्होंने तभी से गाँधी-नेहरू जैसे नेताओं पर मानसिक दबाव बनाकर अपनी मनमानी माँगें रखना और मनवाना शुरू कर दिया था। आंबेडकर समझ गए थे कि मुस्लिमों की माँगें कभी ख़त्म नहीं होंगी, लेकिन गाँधी-नेहरू नहीं समझ पाए। 
    1947 आते-आते मुसलमानों ने भारत में इतने उपद्रव किये कि कमज़ोर गाँधी को झुकना पड़ा, अंग्रेज तो यही चाहते भी थे। लेकिन मुस्लिमों का असली दर्द यह था कि उन्हें हिन्दू बहुल क्षेत्र में "शासक" के रूप में विचरने को नहीं मिलेगा (वे इसे इस्लाम का जन्मजात अधिकार मानते आए थे)। इसीलिए 1947 में वे एक पाकिस्तान लेकर "कुछ वर्षों के लिए" तात्कालिक संतुष्ट हो गए, अलबत्ता भारत के हिन्दुओं को "काफिर" मानने तथा इसे दारुल-इस्लाम के रूप में बदलने के लिए उनके प्रयास लगातार जारी हैं.. चाहे केरल हो, चाहे असम हो या बंगाल हो...  

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   मुस्लिमों और गांधी के तुष्टिकरण का बाकी का काला इतिहास लेख के दूसरे भाग में पेश किया गया है। जिसमें तुर्की के किसी खलीफे के लिए सुदूर भारत के मुसलमानों ने कैसा दंगा मचाया (म्यांमार में बौद्धों-मुस्लिमों के दंगे और उसके विरोध में मुम्बई का आज़ाद मैदान जैसी इस्लामिक मानसिकता इतने वर्षों बाद भी बरकरार है) और गाँधी ने किस तरह हिन्दुओं को मरने के लिए छोड़ दिया इस बारे में कथ्य है।

आगे पढ़े … 




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