घड़ी में दोपहर के 12 बजे हैं. किसी कामकाजी आदमी से इस वक्त व्यस्त होने की उम्मीद की जाती है लेकिन डेविड मैसी अपने सहयोगियों के साथ एक चाय की दुकान पर मटरगश्ती कर रहे हैं.
यह चाय की दुकान लाल इमली मिल की 130 फीट ऊँचे घंटा घर के साए में चलती है. मैसी की कलाइयों पर एक घड़ी बंधी हुई है लेकिन इसके बावजूद वे घंटा घर की सुइयों पर रुक-रुक नजर डालते रहते हैं.
लोग उस घड़ी को भूल चुके हैं लेकिन मैसी ऐसा नहीं कर पाते. वे इसकी आवाज़ सुनकर बड़े हुए हैं और पिछले 34 सालों से इसे बड़े ही करीने से चला रहे हैं. लेकिन उन्हें कई बातों का अफसोस भी है.
वह कहते हैं,"अतीत में इस घड़ी से हजारों लोगों की जिंदगी जुड़ी हुई थी लेकिन आज किसी को भी इसकी परवाह नहीं है. घड़ी तो अपनी रफ्तार से वक्त पर चल रही है लेकिन लोगों को लगता है कि यह काम नहीं करती या फिर सुस्त हो गई है."
जैसे ही मैसी को लगा कि दोपहर के दो बज गए हैं, वे जाने को तैयार हो जाते हैं. वहाँ से पड़ोस के एफएम कॉलनी स्थित अपने घर पैदल पहुँचने में उन्हें महज पाँच मिनट लगते हैं.
मिल की स्थापना
साल 1876 में पाँच अंग्रेजों जॉर्ज ऐलेन, वीई कूपर, गैविन एस जोन्स, डॉक्टर कोंडोन और बिवैन पेटमैन ने मिलकर कानपुर की सिविल लाइंस में एक छोटी सी मिल की स्थापना की थी.
यह मिल ब्रिटिश सेना के सिपाहियों के लिए कंबल बनाने का काम करती थी. इसका नाम कानपोर वुलेन मिल्स रखा गया था. इसके उत्पाद लाल इमली के नाम से मशहूर हुए क्योंकि मिल के परिसर में इमली का एक पेड़ हुआ करता था.
गुज़रते वक्त के साथ-साथ इस मिल ने आम लोगों के लिए भी कंबल, शॉल और ऊन बनाना शुरू कर दिया. देखते ही देखते कड़ाके की सर्दी से दो-चार होने वाले उत्तर भारत में यह घरेलू नाम बन गया. यहाँ तक कि मिल को आम बातचीत में लाल इमली कह कर बुलाया जाने लगा.
लाल इमली को पहला बड़ा झटका 1910 में लगा जब इसमें आग लग गई. मिल की नई इमारत गोथ शैली में लाल ईंटों से बनाई गई थी.
मैसी बताते हैं, "सौ साल पहले घंटे और घड़ियाँ आम चीजों में शुमार नहीं हुआ करती थीं. मिल के ज्यादातर मजदूर आस-पास ही बस गए थे. इसे देखते हुए मिल मालिकों ने नई इमारत के साथ एक घंटा घर बनाने का फैसला किया ताकि मजदूर वक्त पर काम के लिए मिल पहुँच सकें."
औद्योगिक ताकत
घंटा घर 1911 में बनना शुरू हुआ था और 1921 में यह पूरा हो गया. घड़ी की सुइयाँ और घंटे लंदन से आयात किए गए थे. लंदन के बिग बेन की तर्ज बना यह घंटा घर तब से ही कानपुर शहर की औद्योगिक ताकत की पहचान बना हुआ है.
मैसी के पिता बाबू मैसी को 1954 में इस घंटा घर के रख रखाव की ज़िम्मेदारी दी गई थी. वह कहते हैं, "लाल इमली के पास परेड में मेरे पिता की एक छोटी सी घड़ी की दुकान हुआ करती थी और उन्हें मिल में इस घंटा घर के केयरटेकर की नौकरी मिल गई. इस मिल का कर्मचारी होने की हैसियत से मेरे पिता को मिल के पास की एफएम कॉलनी में रहने के लिए क्वार्टर मिल गया. तभी से इसके घंटों से मेरी जिंदगी जुड़ गई.
तब मैसी की उम्र 14 साल की रही होगी और वे नौवीं क्लास में पढ़ते थे, उन्होंने घंटा घर के काम में पिता की मदद करने के लिए स्कूल जाना छोड़ दिया. दो साल बाद 1979 में बाबू गुज़र गए और डेविड को इस घंटा घर के नए केयरटेकर के तौर पर नियुक्त कर दिया गया.
यह घंटा घर पिछले 34 सालों से लगातार चल रहा है लेकिन लाल इमली मिल नहीं. साल 1947 में जब ब्रितानी भारत छोड़ कर चले गए तो इस मिल का निज़ाम भारतीय हाथों में चला आया.
भारतीय प्रबंधक ब्रितानियों की तरह इस मिल को ठीक तरीके से चला नहीं पाए. कई मालिकों के हाथ से गुजरने के बाद 1981 में भारत सरकार ने इसका नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया.
रिकॉर्ड स्तर
लाल इमली के प्रबंधक (कार्मिक एवं प्रशासनिक) राजा मित्रा कहते हैं, "इसके लिए संसद में अलग से एक विशेष कानून भी बनाया गया. लाल इमली ग़रीब लोगों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सस्ते ऊनी कंबल और शॉल भी बनाता था. मिल का नियंत्रण अपने हाथ में लेने की एकमात्र वजह यह सुनिश्चित करना था कि जाड़े के दिनों में गरीब लोग खुद को गर्म रख सकें."
छह साल बाद इस मिल का उत्पादन रिकॉर्ड 32 करोड़ रुपए तक पहुँच गया.
नाम न जाहिर करने की शर्त पर एक अन्य प्रबंधक ने बताया, "साल 1987 में लाल इमली के खुदरा और थोक आउटलेट्स खरीददारों से अटे रहते थे. मिल की मशीनें 24 घंटे तीन पालियों में चलती थी. यहां तक कि रात के एक बजे भी उन आउटलेट्स पर खरीददारों की लंबी कतारें देखी जा सकती थीं. अगले साल उत्पादन का दोगुना लक्ष्य रखा गया लेकिन वह पूरा नहीं किया जा सका. तभी से उत्पादन गड़बड़ाने लगा और लाल इमली घाटे में चल रही है."
वे आगे कहते हैं, "तीन या चार दशक पहले लाल इमली के महाप्रबंधक का जलवा हुआ करता था. उनके दफ्तर के बाहर के गलियारे में इस तरह की शांति हुआ करती थी कि सुई के गिरने की भी आवाज़ सुनी जा सके. वो खामोशी आज भी है लेकिन उसकी वजह कुछ और है."
लाल इमली बदलते वक्त की जरूरतों के साथ साथ अपनी रफ्तार बरकरार नहीं रख सकी. घाटे की कुछ वजहों को गिनाते हुए उन्होंने कहा,"ऊनी कपड़ों को लेकर लोगों के रुझान में बदलाव हुए लेकिन लाल इमली के उत्पाद वैसे ही रहे. अब लोग कुछ फैशनेबल चाहते हैं. पहले लोग कंबल इस्तेमाल किया करते थे लेकिन अब रज़ाई पसंद करते हैं. मजदूर संगठनों ने भी लाल इमली पर असर डाला."
कर्ज पर निर्भर
सुनहरे दिनों में लाल इमली में पाँच हजार लोग काम किया करते थे लेकिन अब इनकी संख्या घटकर 964 ही रह गई है. दो दशक पहले ही भर्तियाँ रोक दी गई थीं. हालांकि इस प्रबंधक को भी यह नहीं पता कि आखिरी बार बड़े पैमाने पर उत्पादन कब हुआ था. वे बस इतना ही कह पाते हैं, "शायद सात या आठ साल पहले."
लाल इमली फिलहाल केंद्र सरकार से मिलने वाले कर्ज पर निर्भर है जो उसे इसलिए दिया जाता है ताकि वह कंबल और शॉल के उत्पादन के लिए कुछ कच्चा माल खरीद सके.
वह कहते हैं, "लाल इमली की मशीनें तभी सबसे बेहतर काम कर सकती हैं जब उसे सबसे बेहतर क्वालिटी का कच्चा माल मिलेगा. ऑस्ट्रेलिया से आने वाला कच्चा माल सबसे बेहतर होता है और दूसरा बेहतर विकल्प न्यूज़ीलैंड से आने वाला कच्चा माल है. हमारी मशीनें और मजदूर हमेशा तैयार रहते हैं. अगर हमें पर्याप्त मात्रा में कच्चा माल मिल जाए तो इसकी पूरी क्षमता का इस्तेमाल किया जा सकता है."
लाल इमली को फिर से उसके पुराने दिन लौटाने की एक योजना का ख़ाका केंद्र सरकार को सौंपा गया था. साल 2008 से ही वह प्रस्ताव मंजूरी मिलने का इंतजार कर रहा है.
मैसी को मिल के भविष्य से बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं हैं. उन्हें पुनरुद्धार योजना को लागू किए जाने की भी भविष्य में कोई बहुत ज्यादा आस नहीं हैं. पिछले तीन महीने से उन्हें और उनके साथियों को वेतन भी नहीं मिला है.
लेकिन इस घंटा घर के लिए मैसी का जुनून बरकरार है. उन्हें यह अपने घर की तरह ही लगता है.