नेहरू के बहन की चीनियों से दोस्ती ने भारत को हरा दिया

Nehru's sister's friendship with the Chinese defeated India

चीन को लेकर पूरे देश मे चिंता है। लेकिन आपकी चिंता व्यर्थ है, अगर आपको इसका इतिहास नहीं पता है। ऐसी चिंता से कोई फायदा नहीं, यदि आपको यह भी नहीं पता हो कि परेशानी पैदा कैसे हुई? और इसके जिम्मेदार कौन-कौन लोग है? इसमें कोई शक नहीं कि चीन से सारी समस्या जवाहरलाल नेहरू की देन है। लेकिन नेहरू ने ऐतिहासिक भूल कैसे की? वह किसके सलाह पर चल रहे थे? उनकी चीनी चौकड़ी में कौन-कौन लोग शामिल थे? यह सब बातें आना बेहद जरूरी है। 
      चीन के साथ आज जो भी भारत की समस्या है, उसमें इस किरदार का भी बहुत बड़ा रोल है। इस किरदार का नाम है "विजय लक्ष्मी पंडित"! जी हां! देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सबसे लाडली बहन। यह बहुत कम लोग जानते है कि नेहरू अपने बाद अगर किसी को विदेश नीति का देश में सबसे बड़ा जानकार मानते थे, तो वह उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित। इस देश की विदेश नीति बनाने में नेहरू विजयलक्ष्मी पंडित से गंभीर मसलों पर राय लेते थे। अपनी चाइना पॉलिसी बनाने में नेहरू ने अपनी बहन की काफी मदद ली थी। 
    मैं आपको बताऊंगा कि कैसे चीन के तानाशाह माओ से नेहरू की दोस्ती करवाने में विजय लक्ष्मी पंडित ने एक बड़ा रोल अदा की थी। नेहरू ने दरियादिली दिखाते हुए सुरक्षा परिषद की सीट चीन के लिए छोड़ दी। उस फैसले में भी विजय लक्ष्मी पंडित की एक बड़ी भूमिका थी। नेहरू अपने चीन पॉलिसी में भी अपने बहन विजय लक्ष्मी पंडित की भरपूर मदद लेते थे। 
     विजय लक्ष्मी पंडित और नेहरू के चाइना पॉलिसी की बात करने से पहले, मैं आपको बताना चाहूंगा कि विदेशनीति से नेहरू-गांधी परिवार का पुराना नाता है। नेहरू से लेकर राहुल-प्रियंका तक सब खुद को विदेश नीति का एक्सपर्ट समझते है। कई बार तो ऐसा लगता है कि गांधी-नेहरू परिवार के बच्चे स्कूल में एडमिशन नहीं लेते बल्कि वो सीधे यूनाइटेड नेशन में पढ़ने चले जाते हैं। जहां वो A for America, B for Briten और C for Chin लिखते हैं। 
विजय लक्ष्मी पंडित स्कूल का मुंह तक नही देखी थी
     नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित भी ऐसी ही थी। बहन न तो कभी स्कूल गई और न तो कभी स्कूल-कालेज का मुंह देखी थी। यानी उन्होंने कभी कोई फॉर्मल एजुकेशन प्राप्त ही नहीं की थी। क्योंकि चूंकि नेहरू खानदान में पैदा हुई थी, लिहाजा उनमें काबिलियत कूट-कूट कर भरी हुई थी। इसलिए जैसे ही देश आजाद हुआ, पंडित नेहरू ने अपने काबिल बहन विजयलक्ष्मी पंडित को सीधे सोवियत संघ में भारत का राजदूत बना दिया। लेकिन सोवियत संघ में विजय लक्ष्मी पंडित को काफी निराश हाथ लगी। वो दो वर्ष तक वहा में राजदूत रही, लेकिन सोवियत संघ के तानाशाह स्टालिन ने उनसे एक मिनट के लिए भी मिलना जरूरी नही समझा। लेकिन नेहरू निराश नही हुए, 1949 में नेहरू ने अपने बहन को सोवियत संघ से हटाकर अमेरिका का राजद्दोत बनाकर भेज दिया। 
तत्कालीन सोवियत का तानाशाह स्टालिन
    वो दौर था जब भारत और चीन एक दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे थे और इसी दौर में नेहरू ने चीन के नेता माओ त्सुतुंग और चाऊ एन लाई का मन टटोलने के लिए 1952 में अपनी लाडली बहन विजयलक्ष्मी पंडित को बीजिंग भेजा। एक भारी-भरकम प्रतिनिधिमंडल के साथ नेहरू की लाडली बहन चीन पहुंची। जहां उन्होंने चीन के तानाशाह माओ त्सुतुंग से भेंट की। इस मुलाकात में विजय लक्ष्मी पंडित माओ से इतनी प्रभावित हुई कि माओ उन्हें महात्मा गांधी की तरह दिखने लगा। यह बात विजय लक्ष्मी पंडित ने नेहरू को पत्र लिखकर बताइ थी। 
    विजय लक्ष्मी पंडित ने नेहरू को चीन से पत्र में क्या लिखा था? वह सब दर्ज है पुस्तक "भारत: गांधी के बाद" में। और इस पुस्तक के लेखक है नेहरू के कट्टर समर्थक और वामपंथी इतिहासकार रामचंद्र गुहा। गुहा ने अपने पुस्तक "भारत: गांधी के बाद" में पृष्ठ 212 पर क्या लिखते है, वो मैं आपको बताता हूँ-
     "1952 की गर्मियों में विजय लक्ष्मी पंडित की अगुआई में सरकारी प्रतिनिधि मंडल ने बीजिंग का दौरा किया। वहाँ एक बार माओ से तो दो बार चाऊ एन लाई से मिली और दोनों से बहुत प्रभावित हुई। उन्होंने ने अपने भाई नेहरू को पत्र में लिखी- 'माओ बहुत कम बोलते है, लेकिन उनमें गजब का सेंस ऑफ ह्यूमर है। जब वो जनता के बीच होते है तो वो गांधी की तरह लगते है। महात्मा गांधी की तरह जानता न केवल उनकी प्रसंशा करती है, बल्कि उनकी पूजा करती है। जो भी उनकी तरफ़ देखता है, उसमें प्रेम, प्रशंसा दोनों का भाव छुपा हुआ होता है। उन्हें देखना भावनात्मक पल है।"
     सोचिये! भारत और चीन के संबंध टटोलने गई नेहरू की भरोसेमंद बहन विजयलक्ष्मी पंडित को माओ ममता की मूरत लग रहे थे। वह शांति के मसीहा महात्मा गांधी का अक्स देख रही थी। जबकि वह जानती थी कि माओ एक खूनी क्रांति के जरिए सत्ता में आए थे। जिसमें लाखों लोगों की जान गई थी और इतना ही नहीं, जब वह माओ के साथ डिनर कर रही थी तो उस समय भी माओ की लाल सेना तिब्बत में बेगुनाहों का खून बहा रही थी।

    अब देखिए नेहरू की लाडली बहन चीन की एक और नेता चाऊ एनलाई के लिए क्या लिखती है- 
   "चाऊ एनलाई (Chou Enlai में समस्या से निपटने की गजब की क्षमता और शानदार व्यक्तिगत आकर्षण है। वह साधी हुई बातें करते हैं, जो लोगों को जबरदस्त तरीके से प्रभावित करता है। वह लोगों को हंसने पर मजबूर कर देते हैं और खुद भी अक्सर हंसते रहते हैं। वह लोगों को अपने घर जैसा महसूस करवाते हैं और बड़ी सरल भाषा का इस्तेमाल करते हैं।"
      गौर कीजिएगा कि विजय लक्ष्मी पंडित उसी चाउ एनलाई की महानता का वर्णन कर रही हैं, जिनके साथ उनके भाई नेहरू ने पंचशील का समझौता किया था। यह वही चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई हैं, जिन्होंने 1962 के युद्ध के पहले चार बार भारत का दौरा किया और उन्होंने ही 'हिंदी-चीनी भाई-भाई' का नारा दिया था! 
    अब आगे देखिए नेहरू की बहन और चाऊ एनलाई के साथ हुई डिनर के बारे में क्या लिखती हैं- 
   "हम लोगों ने बेहतरीन शराब पी और स्वादिष्ट खाना खाया फिर दोनों के बीच मित्रता संस्कृति और शांति की बातें हुई। यह बातें तब तक होती रही, जब तक कि हम थक कर चूर नहीं हो गए। मास्को की तरह यहां लोगों पर अत्याचार नहीं किया जाता और चीन में हर आदमी खुश लगता है।" (रामचंद्र गुहा- भारत: गांधी के बाद)
चाऊ एनलाई के साथ विजयलक्ष्मी पंडित
8 करोड़ लोगों का हत्यारा महात्मा लगता था
   जिस तानाशाह माओ ने क्रांति के नाम पर अपने देश के आठ करोड़ लोगों को मरवा दिया। वह विजय लक्ष्मी पंडित को इंसाफ की मूर्ति लग रहा था। चीन और उसके नेताओं के बारे में विजय लक्ष्मी पंडित की सलाह पर नेहरू ने अमल किया और चीन से दोस्ती की राह पर आगे चल पड़े। दरअसल चीन को लेकर विजयलक्ष्मी पंडित और नेहरू के बीच इससे पहले भी पत्राचार और सलाह मशवरा हो चुका था। दोनों भाई-बहनों के बीच चर्चा बहुत गंभीर मुद्दे पर हुई थी। जिसका असर आज तक भारत पर हो रहे आतंकी हमला, कश्मीर समस्या और चीन के साथ रिश्तो पर पड़ रहा है।
संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी सदस्यता- 
     1949 में चीन के कम्युनिस्ट क्रांति के बाद चीन पर माओ का कब्जा हो गया था और उससे पहले चीन पर शासन कर रही चीन की राष्ट्रवादी सरकार ताइवान में शिफ्ट हो गई थी। 1945 में संयुक्त राष्ट्र में चीन को मिली स्थाई सदस्यता की सीट 'चीन क्रांति' के बाद अब ताइवान को मिल गई थी। जिसे लेकर उस दौर में बहुत बड़ा विवाद हो रहा था। अमेरिका और ब्रिटेन चाहते थे कि ताइवान की जगह यह परमानेंट सीट भारत को दे दी जाए। और इसकी जानकारी जब विजयलक्ष्मी पंडित को दी गई। (उस वक्त विजयलक्ष्मी पंडित अमेरिका में भारत की राजदूत थी) इस बारे में विजय लक्ष्मी पंडित ने अपने भाई प्रधानमंत्री नेहरू को 24 अगस्त 1949 को एक पत्र लिखा। 
    इस पत्र का खुलासा 'लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स' (London School of Economics) के स्कॉलर डॉ एंटोन हार्डर ( Dr Anton Harder) ने अपनी रिसर्च पेपर 'नॉट एट द कास्ट ऑफ चाइना'( Not at the Cost of China) में किया है। इस पत्र में विजय लक्ष्मी पंडित लिखती हैं-     
    "अमेरिका के विदेश मंत्रालय में यह बात चल रही है कि सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता वाली सीट राष्ट्रवादी चीन (ताइवान) से लेकर भारत को दे दी जाए। इस प्रश्न के बारे में आपके उत्तर की रिपोर्ट मैंने अभी-अभी रायटर्स (समाचार एजेंसी) में देखी है। पिछले हफ्ते महीने जॉन फास्टर डालेस और फिलिप जोसेफ से बात की थी। मैंने सुना है कि डालेस ने अमेरिकी विदेश मंत्रालय की ओर से भारत के पक्ष में जनमत बनाने के लिए कहा है। मैंने, हम लोगों (भारत) का रुख उन्हें बताया और सलाह दी कि वे (अमेरिका) इस मामले में धीमी गति से चले, क्योंकि भारत में इसका गर्मजोशी के साथ स्वागत नहीं किया जाएगा!" 
   सोचिए डालेस जैसा बड़ा नेता जो 4 साल बाद अमेरिका के विदेश मंत्री बने, वह भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता दिलवाना चाहते थे और हमारे प्रधानमंत्री की बहन उन्हें पहले ही मना कर देती है। वह कह देती है कि इस मामले में अमेरिका कोई भी जल्दबाजी न करें, क्योंकि एक तरह से भारत का इसमें रुचि (interested) नहीं है! 

    अखिर भारत इतने बड़े मौके के लिए क्यों नहीं इंटरस्टेट था? इसकी वजह जवाहरलाल नेहरू ने अपने पत्र में बताई है। नेहरू अपने बहन को पत्र में लिखते हैं- 
    "तुमने लिखा है कि अमेरिका विदेश मंत्रालय सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता वाली सीट पर से चीन को हटाकर भारत को उस पर बिठाने का प्रयास कर रहा है। जहां तक हमारा प्रश्न है, हम इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेंगे। हमारी दृष्टि से यह एक बुरी बात होगी। क्योंकि यह चीन का साफ-साफ अपमान है, इससे चीन और हमारे संबंध भी बिगड़ जाएंगे। मैं समझता हूं कि अमेरिका इसे पसंद नहीं करेगा, लेकिन हम संयुक्त राष्ट्र संघ के और सुरक्षा परिषद में चीन की सदस्यता पर बल देते रहेंगे!" ( Dr Anton Harder: Not at the Cost of China) 
 सोचिए! भारत के हाथ में इतना बड़ा मौका आ रहा था और भाई बहन ने इसे ठुकरा दिया। शायद देशहित से ऊपर उनकी व्यक्तिगत सोच हॉबी थी।
    हालांकि कांग्रेस और नेहरु के भक्त ये झूठ फैलाते हैं कि अमेरिका ने ऐसा कोई ऑफर नहीं दिया था। इसलिए जिन्हें भी शक है, उन्हें मैं बता दे देना चाहता हूं कि विजयलक्ष्मी पंडित और नेहरु के बीच लिखे गए सारे लेटर दिल्ली के नेहरु मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी में रखे हुए हैं। नेहरु के गुलामों को नेहरु मेमोरियल में लेटर  ढूढ़ने में दिक्कत ना आए, इसलिए जहां पर लेटर रखे गए हैं, उस फ़ाइल का नाम और नंबर भी बता देता हूं। उसका नाम है 'Vijay Lakshmi Pandit Letters: First Instalment' और फ़ाइल नंबर है 59। कोई भी जाकर उस फ़ाइल को चेक कर सकता है।    
     लेकिन नेहरु के चमचों को सुरक्षा परिषद वाली झूठ को खुद कांग्रेस के नेता शशि थरुर बेनकाब कर चुके हैं। और उन्हें, अगर बात पर भरोसा नहीं है तो उन्हें शशि थरुर के पुस्तक नेहरु: इंवेंशन ऑफ इंडिया (Nehru: Invention of India) पढ़ना चाहिए। जिसमे थरूर ने लिखा है कि-   
   "भारत को संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्य बनने का प्रस्ताव मिला था। लेकिन उन्होंने (नेहरू ने) चीन को दे दिया। भारतीय राजनयिकों ने संयुक्त राष्ट्र में वह फाइल देखी थी, जिस पर नेहरू के इनकार का जिक्र था। नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र की सीट ताइवान के बाद चीन को देने की वकालत की थी।" 

आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि खुद शशि थरूर संयुक्त राष्ट्र के 'अंडर सेक्रेट्री जनरल' रह चुके हैं। फिर भी अगर चाचा नेहरू के भक्तों, गुलामों और चमचों को थरूर की बातों पर भरोसा नहीं है तो उन्हें कांग्रेस के एक और बड़े नेता व पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह की 'आत्मकथा वन लाइफ इज नॉट इनफ' (One Life is not Enough) पढ़ना चाहिए। नटवर सिंह ने जवाहरलाल नेहरू, विजयलक्ष्मी पंडित, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी तक, सबके साथ काम किया है। नटवर सिंह की मानें तो "अमेरिका ने ही नहीं, बल्कि शक्तिशाली सोवियत संघ ने भी नेहरू को संयुक्त राष्ट्र संघ में सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बनाने का प्रस्ताव दिया था!"
    नटवर सिंह अपने पुस्तक के पेज नंबर 101 पर लिखते हैं- 
    "जून 1955 में नेहरू जब सोवियत संघ में थे, उनकी मुलाकात दूसरे नंबर के नेता बुलगानिन से हुई। बुलगानिन ने नेहरू से कहा- 'हम आपको सुझाव देते हैं कि भारत को सुरक्षा परिषद के छठे सदस्य के रूप में प्रवेश की पहल करना चाहिए!' बुलगानिन के इस सुझाव पर नेहरू ने कहा कि शायद आपको पता होगा कि अमेरिका की तरफ से भी यह कहा गया है कि भारत सुरक्षा परिषद में चीन का स्थान ले ले। लेकिन इससे हमारे और चीन के बीच समस्या पैदा हो जाएगी। वैसे भी हम खुद को विशेष स्थानों और पदों पर बैठाने के हक में नहीं है। क्योंकि इससे कठिनाइयां हो सकती हैं और यह विवाद का विषय बन सकता है। यदि सुरक्षा परिषद में भारत को शामिल करना है तो  फिर संयुक्त राज्य संघ के चार्टर में बदलाव लाना होगा। भारत को लगता है कि जब तक सुरक्षा परिषद में चीन का मामला नहीं सुलझ जाता है, तब तक हमें पहल नहीं करना चाहिए!"

नेहरू द्वारा मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र से खुलासा 
ध्यान से पढे! सोवियत संघ से पहले नेहरु को अमेरिका भी सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव झुका है। जिसका जिक्र उनकी बहन विजय लक्ष्मी पंडित ने किया था। बुलगानिन (रुस का दूसरा बड़ा नेता) से मुलाकात से डेढ़ महीने बाद, यानी दो अगस्त 1955 को नेहरु अपने मुख्यमंत्री को पत्र लिखते हैं। जिसे छापा गया है 'माधव खोसला' की पुस्तक 'लेटर्स फ़ॉर ए नेशन' (A letters for a nation) में। इस पुस्तक में वो सारे पत्र हैं, जो 17 वर्ष तक अपने मुख्यमंत्रियों को लिखे थे। साथ ही यह भी बता दूं कि माधव खोसला का नाता कोलंबिया और हॉवर्ड से है। और वो सरकार विरोधी The Print के लिए लगातार आर्टिकल लिखते हैं। उनके पुस्तक में छापे पत्र में नेहरू लिखते हैं कि- 
   "अमेरिका अनौपचारिक रूप से कहा है कि चीन को संयुक्त राष्ट्र में सदस्यता लेना चाहिए, ना कि सुरक्षा परिषद में। सुरक्षा परिषद में भारत को चीन की जगह मिलनी चाहिए। जाहिर है, हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते। चीन जैसे महान राष्ट्र का सुरक्षा परिषद में नहीं होना, उसके साथ नाइंसाफी भी होगी।"
जवाहरलाल नेहरू
2 अगस्त 1955

नेहरू का संसद में झूठा बयान
लेकिन नेहरू संसद के अंदर बुलगानिन से मुलाकात और मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र से एकदम अलग हटकर बात करते हैं। 27 सितंबर 1955 को नेहरू संसद में डॉक्टर जेन पारक के सवाल के जवाब में लोकसभा में कहते हैं-
  "संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य बनाने के लिए औपचारिक या अनौपचारिक रूप से कोई प्रस्ताव नहीं मिला था। कुछ संदिग्ध संदर्भों का हवाला दिया जा रहा है, जिसमें कोई सच्चाई नहीं है। ऐसे में कोई सवाल नहीं उठता है कि भारत को सुरक्षा परिषद में कोई सीट दी गई और भारत ने इसे लेने से इनकार कर दिया। हमारी घोषित नीति है कि संयुक्त राष्ट्र में सदस्य बनने के लिए जो भी देश योग्य हैं, उन सब को शामिल किया जाए।" (लोकसभा में नेहरू का बयान -दिनांक 2 सितंबर 1955) 

     नेहरू के भक्त उन्हें लोकतंत्र का रक्षक कहते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि लोकतंत्र का रक्षक, लोकतंत्र के मंदिर यानी संसद में झूठ कैसे बोल सकता है? और अगर नेहरू ने सच बोला है तो खुद को नेहरूवादी कहने वाले भारत के पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह, भारत के पूर्व विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर ने अपनी पुस्तकों में यह बातें क्यों लिखी? नेहरू के चमचों ने नेहरू के वैचारिक विरोध करने वाले मुझ जैसे लोगों के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन हकीकत में नटवर सिंह और थरूर से इस मामले में जाकर बात करना चाहिए।  
   जो भी हो, लेकिन इतना तो है कि अगर  आज भारत के पास सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता होती तो अपने वीटो पावर से भारत ना केवल कश्मीर समस्या को सुलझा देता, बल्कि चीन को सबक सिखा सकता था। इसलिए मैं आप से कहता हूं कि गड़े मुर्दे उखाड़े, बार-बार उखाडे। क्योंकि इससे निकलने वाली दुर्गंध से कई चेहरे बेनकाब होते हैं। वह चेहरे हैं, जिनके कारस्तानियों को हम आज तक भुगत रहे हैं। 

साभार: ये पूरी जानकारी श्री प्रखर श्रीवास्तव के वीडियो से ली गई है।

प्रखर श्रीवास्तव



1 Comments

  1. सबको जरूर पढ़ना चाहिए!

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