खिलाफत आंदोलन: गाँधी की जिद, और हिंदुओं का संहार (भाग-२)

Khilafat movement
पिछले भाग में आपने पढ़ा (यहाँ क्लिक करके पिछले भाग पढ़ा जा सकता है) कि किस तरह भारत में इस्लामिक पार्टियों, संस्थाओं और जिन्ना ने गाँधी-नेहरू को बेवकूफ बनाकर पाकिस्तान बनाने की नींव 1909 में ही रखनी शुरू कर दी थी। 
     1909 से लेकर 1940 तक मुस्लिम लीग और जिन्ना ने जबरदस्त ब्लैकमेलिंग और दबाव का खेल खेला। इसी दौरान तुर्की में मुसलमानों के खलीफा को ब्रिटेन ने अपदस्थ कर दिया, जिसका बदला लेने के लिए भारत में लाखों मुसलमानों ने "खिलाफत आंदोलन" (Khilafat Movement) आरम्भ किया। भारत के बेशर्म सेकुलरों और कथित इतिहासकारों ने किताबों को इतना विकृत किया है कि अधिकाँश लोगों को "खिलाफत" शब्द से ऐसा आभास होता है मानो यह आंदोलन मुस्लिमों ने अंग्रेजों से स्वतंत्रता हासिल करने के लिए था। लेकिन यह एकदम गलत है। मुसलमानों ने "खिलाफत" आंदोलन सुदूर तुर्की के उस कठमुल्ले खलीफा के समर्थन में किया था, जिसका भारत से कोई लेना-देना नहीं था। इसके बारे में आगे पढ़िए... तभी आप जान सकेंगे कि किस तरह गाँधी ने हिंदुओं को हिंसक मुस्लिमों के सामने मरने के लिए छोड़ दिया तथा जिन्ना के आगे घुटने टेक दिए थे। 

1919 में खिलाफत आन्दोलन शुरू हुआ खिलाफत 
    आन्दोलन भारत में मुसलमानों द्वारा चलाया गया धार्मिक आन्दोलन था। इस आन्दोलन का उद्देश्य तुर्की में खलीफा के पद की पुन:स्थापना कराने के लिये अंग्रेजों पर दबाव बनाना था। तुर्की का खलीफा संपूर्ण मुस्लिम जगत का धार्मिक नेता माना जाता था। प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की ने इंगलैण्ड के खिलाफ जर्मनी का साध दिया था इसलिए भारतीय मुसलमानों को डर था की युद्ध के बाद अंग्रेज तुर्की से अवश्य बदला लेगें। वास्तव में युद्ध के बाद अंग्रेजों ने तुर्की साम्राज्य का अंत कर दिया। इसी के चलते भारतीय मुसलमानों ने अंग्रेजों के खिलाफ खिलाफत आंदोलन शुरु किया। जिसका उद्देश्य तुर्की के खलीफा की शक्ति का पुर्णस्थापना था। महात्मा गाँधी ने भी इसका समर्थन किया। उन्होने संपूर्ण देश का दौरा किया। इस आंदोलन से असहयोग की पृष्ठभूमि तैयार करने में काफी मदद किया। अहिंसक गांधी ने हिन्दुओ से कहा "वो मुसलमानों की किसी भी सीमा तक मदद करे!" अर्थात तुर्की में खलीफा के पद को बचाने के लिए गांधी हिन्दुओ से मुसलमानों को किसी हद तक समर्थन करने को कह रहे थे। 
जिन्ना और गांधी
    गाँधी का मानना था कि इससे हिन्दू मुस्लिम एकता बढ़ेगी। कांग्रेस ने भी इस आन्दोलन को खिलाफत आन्दोलन को बढ़ाने में मुसलमानों की सहायता के रूप में स्वीकार किया, कलकत्ता में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमे कहा गया, ‘’यह हर प्रत्येक गैर मुस्लिम हिन्दुस्तानी का फर्ज है कि वो प्रत्येक वैध तरीके से मुस्लिम भाई की इस घोर धार्मिक विपत्ति को दूर करने में सहायता करे’’। हिन्दू लगातार इस आन्दोलन का विरोध कर रहे थे जबकि गांधी खिलाफत के समर्थन में खड़े थे, हिन्दुओ को आशंका थी कि मुसलमान असहयोग का उपयोग अफगानिस्तान को भारत पर आक्रमण करने का निमन्त्रण देने के लिए न कर दें। क्योंकि फिर स्वराज नहीं मुस्लिम राज आयेगा और हिन्दुओ को जो आशंका थी वही हुआ और अफगानों को भारत पर हमला करने का निमन्त्रण दिया गया। 

हिन्दुओ के खिलाफ दंगा, हत्या और बलात्कार
   1920 के आसपास मलाबार में दंगा शुरू हुआ, यहाँ मोपलाओं अर्थात मुसलमानों ने हिन्दुओ पर वर्णानातीत ह्रदयविदारक अत्याचार किये। मलाबार में होने वाले मोपला विद्रोह दो मुस्लिम स्थानों खुद्म-ए-काबा और केन्द्रीय खिलाफत समिति के आन्दोलनों के कारण शुरू किये गये। दरअसल आन्दोलनकारियों ने इस सिद्धांत का प्रचार किया कि ब्रिटिश सरकार के अंतर्गत हिंदुस्तान दारुल हरब (काफिरों की भूमि) था और मुसलमानों को इसके विरूद्ध अवश्य लड़ना चाहिए और यही वो ऐसा नहीं कर सकते तो उनके सामने ‘हजरत’ का सिद्धांत रह जाता है। 
   मोपला लोग इस आन्दोलन से अचानक आभूत हो गये। यह मूल रूप से ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध एक विद्रोह था। इसका उद्देश्य ब्रिटिश राज्य का तख्ता पलट कर इस्लामी राज्य की स्थापना करना था। छुप छुप कर चाक़ू, छुरे, भाले बनाये गये। 20 अगस्त को पीरुनांगडी में मोपलों और ब्रिटिश सेना के बीच झड़प हुई। जब ब्रिटिश सेना कमजोर हुई तो मोपलाओं ने अली मुदालियर की ताजपोशी कर दी। खिलाफत के झंडे लहराए गये, इरनाडू और वालुराना को खिलाफत सल्तनत घोषित कर दिया गया। ब्रिटिश सेना के खिलाफ तो ठीक लेकिन इसके कुछ दिन बाद ही मोपलाओं ने हिन्दुओ पर हमला बोल दिया। कत्लेआम, बलात्कार, मंदिरों में तोड़ फोड़, लूटमार, आगजनी जैसी भारी तबाही हिन्दुओ के साथ हुई। आंकड़ों के मुताबिक करीबन 10000 हिन्दुओ का कत्लेआम हुआ, सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार और जबरन धर्म बदला गया। 
मोपला में हिंसा बलात्कार की घटना
   इन दंगो में पीड़ित लोगो की बड़ी संख्या दलित समुदाय से थी। खिलाफत के कई नेताओं ने मोपलाओं को इस जंग की बधाई दी। इस दंगे पर गाँधी ने हिन्दुओ से कहा, ‘‘हिन्दुओ में इतना साहस और आस्था होनी चाहिए कि धर्मांधो द्वारा की जाने वाली गडबडियों के बाबजूद वे अपने धर्म की रक्षा कर सकें। मोपलाओं के पागलपन की मुसलमानों द्वारा की जाने वाली निंदा को मुसलमानों की दोस्ती की कसौटी से नहीं माना जा सकता। मोपला लोगो द्वारा किये गये जबरन धर्म परिवर्तन और लूटपाट के बारे में मुसलमानों को स्वयं शर्मिंदगी होनी चाहिए और उन्हें चुप रहते हुए ऐसे प्रभावकारी प्रयास करने चाहिए कि उनमे से अधिकतम धर्मान्ध व्यक्तियों के लिए ऐसे काम करने असम्भव हो जाएँ। मेरा यह विश्वास है कि हिन्दुओ ने मोपला लोगो के पागलपन का बड़े धैर्य से सामना किया और संस्कृत मुसलमान ईमानदारी से इस बात के लिए दुखी है कि मोपला लोगो ने हजरत की शिक्षाओं को गलत समझा है।" 

कुरान के मुताबिक हत्या न्यायोचित है
   23 सितम्बर, 1926 को स्वामी श्रद्दानन्द की हत्या हुई, अब्दुल रशीद ने उन्हें गोली मार दी। इसके बाद आर्यसमाजी की नानकचन्द की हत्या हुई। सितम्बर 1934 को अब्दुल कयूम ने नाथूरामल शर्मा की हत्या कर दी और इस तरह हत्याओं का सिलसिला चलता रहा। सभी प्रमुख मुसलमानों को गाजी बताकर उनका स्वागत किया गया, उनके क्षमादान के लिए आन्दोलन किये गये (आपको बुरहान वानी, याकूब मेमन और अफज़ल गूरू की याद आ गई ना??)। 
आतंकवादी आफजल गुरु के लिए नारेबाजी
लाहौर के एक बेरिस्टर बरकत अली ने अब्दुल कयूम की ओर से अपील दायर करते हुए कहा कि वो हत्या का दोषी नहीं हैं। क्योंकि कुरान के मुताबिक यह न्यायोचित है। स्वामी श्रद्धानन्द के हत्यारे अब्दुल रशीद की आत्मा की शांति के लिए देवबंद के प्रसिद्द इस्लामी कॉलेज के विधार्थियों और प्रोफेसरों ने पांच बार कुरान का पाठ किया और प्रतिदिन कुरान की सवा लाख आयतों की तिलाबत दी गयी, उनकी प्रार्थना थी कि ‘अल्लाह मियां मरहूम (अब्दुल रशीद) को आला-ए-उलीयीन (सातवें बहिश्त) में स्थान दे। 
देवबंद में हत्यारे के लिए नमाज पढ़ी गई थी
इन हत्याओं के बाद गांधी ने यंग इंडिया में लिखा, ‘’मैं भईया अब्दुल रशीद नामक मुसलमान, जिसने श्रध्दानंद जी की हत्या की है, का पक्ष लेकर कहना चाहता हूँ, कि इस हत्या का दोष हमारा है। अब्दुल रशीद जिस धर्मोन्माद से पीड़ित था, उसके लिए केवल मुसलमान ही नहीं, हिन्दू भी दोषी हैं।” 
   1920-1940 तक ब्रिटिश भारत में हिन्दू मुस्लिम दंगे बड़े पैमाने पर हुए, अम्बेडकर लिखते हैं, "हिन्दुओ के घरों में जिस तरह मुसलमानों ने आग लगाई उससे हिन्दुओ के समूचे परिवार खत्म हो गये और यह सब देखने वाले मुसलमानों को बड़ी प्रसन्नता होती थी। जानबूझकर निर्दयता पूर्वक की गयी इस क्रूरता को अत्याचार नहीं माना गया, जिसकी निंदा भी नहीं की गयी, बल्कि लड़ाई का एक तरीका माना गया। हिन्दुओ की अपेक्षा मुसलमानों के अत्याचार ज्यादा थे"।  
स्वामी श्रद्धानंद
हर मुस्लिम हिन्दुओ के खिलाफ युद्ध करे!
    इसके अलावा कई भडकाऊ भाषणों में किसी ने निंदा नहीं की, उन्हें अपनी मौन स्वीकृति दी गयी। मौलाना आजाद सुभानी ने 27 जनवरी 1939 को अपने भाषण में कहा कि "मुस्लिम लीग की लड़ाई 22 करोड़ हिन्दू दुश्मनों से है। हम इस्लाम के सबसे बड़े शत्रु से नहीं लड़ेंगे तो ये शक्तिशाली हो जाएंगे और रामराज्य स्थापित करेंगे। यह हर मुसलमान का कर्तव्य है वो मुस्लिम लीग में शामिल होकर हिन्दुओ के खिलाफ युद्ध लड़े और अंग्रेज के यहाँ से जाते ही इस्लाम का शासन हो"। 
   1928 में ख्वाजा हसन निजामी ने घोषणा करते हुए कहा कि "मुसलमान हिन्दुओ से अलग है, वो उनके साथ घुलमिल नहीं सकते हैं। मुसलमानों ने एक रक्तरंजित युद्ध के बाद भारत पर फतह हासिल की। मुसलमान एक कौम है जो बादशाह है। उन्होंने हिन्दुओ पर सैकड़ों साल राज किया है। हिन्दुओ को आपस में ही लड़ने से फुर्सत नहीं हैं। वो एक दूसरे के हाथ से पानी पीने से अपवित्र हो जाते हैं। इस देश में मुसलमानों ने राज किया है, वो ही करेंगे।" 

धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत के नाम पर मुस्लिम तुष्टिकरण देश के विभाजन का कारण बना
   जब 26 मार्च 1940 को जब मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की अवधारणा पर जोर दिया तब गाँधी जी का वक्तव्य था- "अन्य नागरिकों की तरह मुस्लिम को भी यह निर्धारण करने का अधिकार है कि वो अलग रह सके, हम एक संयुक्त परिवार में रह रहे हैं" (हरिजन, 6 अप्रैल 1940)। "अगर इस देश के अधिकांश मुस्लिम यह सोचते हैं कि एक अलग देश जरूरी है और उनका हिदुओं से कोई समानता नहीं है तो दुनियाँ की कोई ताक़त उनके विचार नहीं बदल सकती और इस कारण वो नए देश की मांग रखते है तो वो मानना चाहिए, हिन्दू इसका विरोध कर सकते है।" (हरिजन, 18 अप्रैल 1942) 
    करीबन 50 वर्षों तक मुसलमानों की तमाम नाजायज मांगों को ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार किया। गांधी और कांग्रेस ने अपनी सहमति दी। हिन्दुओ की हत्याओं को जायज माना गया, हत्यारों का पक्ष लिया गया। उनके लिए मस्जिदों में प्राथना सभाएं हुईं, उनके जनाजों में हजारों की भीड़ जमा हुई। करीबन 23% मुस्लिम जनसँख्या के लिए 32% भूमि पाकिस्तान के नाम पर दी गयी। 

अब बंटवारे के बाद की सरकारों की नीतियों पर गौर कीजिए 
   इन तमाम सरकारों ने भी इन्ही नीतियों को सरकारी योजनाओं के नाम पर लागू किया। कुछ नीतियों का जिक्र यहाँ कर रहा हूँ। जैसे मुसलमानों को उनके व्यक्तिगत कानून दिए गये। शाहबानो के मामले में कोर्ट के फैसले को राजीव गाँधी सरकार ने पलट दिया। आज जब ट्रिपल तलाक का मामला आया तब तमाम धर्मनिरपेक्ष दल ट्रिपल तलाक के पक्ष में नजर आए। कोर्ट में इसके समर्थन में वकालत की लेकिन कोर्ट के फैसले के बाद उनकी भाषा बदल गयी। वहीं मुसलमानों ने भी कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपनी नाराजगी व्यक्त की। 
राजीव गांधी ने शाहबानो केस पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये फैसले के खिलाफ संसद में कानून बनाया
 कश्मीर में हिन्दुओ के कत्लेआम पर इन सरकारों की मूक सहमति रही। केरल-बंगाल में भी हर माह होते दंगो/ हत्याओं पर इस देश में कभी हंगामा नहीं हुआ। कभी सहिष्णुता नहीं घटी-बढ़ी। राष्ट्र की गंगा जमुनी तहजीब को नुकसान नहीं हुआ। मस्जिदों के सामने बाजे-गाजे पर दंगे भडक गये, बरेली का उदाहरण सभी की स्मृति में होगा। मुस्लिम इलाकों से हिन्दूओ की त्यौहारों की झांकियां पर रोक लगी। कब्रिस्तानों की चार दिवारी के लिए करोड़ो के बजट बनाये गये। संस्कृत का भले ही सम्मान नहीं हुआ लेकिन उर्दू को बढ़ावा दिया गया। उसके सम्मान में तमाम सम्मेलन आयोजित हुए। गौहत्या पर देश में कभी कानून नहीं बना। गौ हत्या जारी रही। आतंकियों के समर्थन में भी वकालत हुई, रात के 3 बजे तक अदालतें खुलवाई गयी। 
मुहर्रम पर मूर्ति विसर्जन पर रोक
 एक विश्वविद्यालय (JNU) में देशविरोधी नारे लगाये गये लेकिन धर्मनिरपेक्ष दल उनके साथ नजर आए। उन्हें क्रांतिकारी योद्धा कहा गया। मुहर्रम के लिए दुर्गा मूर्ति विसर्जन पर प्रतिबन्ध लगाया गया। पूर्व प्रधानमंत्री देश की सम्पदा पर मुसलमानों का पहला हक तलक कहने से न चुके। कश्मीर में आतंकियों की मौत पर उनके परिवारों को पेंशन देने की योजना पर भी विचार हुआ। इस देश के इतिहास में लुटरों को महान बनाया गया वहीं नायकों को शर्म का विषय। प्रभु श्रीराम काल्पनिक किरदार हुए। 
    विदेश नीति तक में तुष्टिकरण को लाया गया, जिस तरह अंग्रेजों के खिलाफ मुसलमानों को लड़ने से प्रेरित करने के लिए एक दूसरे देश के आन्दोलन को भारत में जन्म दिया गया। ठीक उसी तरह से भारत मुसलमानों को खुश रखने के लिए इजरायल को हमेशा नजरअंदाज किया गया। भारत की मध्य एशिया की नीति भी मुस्लिम तुष्टीकरण पर आधारित रही। दुनियाभर के मुसलमानों के लिए इस देश में चिंता हुई। 
मुम्बई के आजाद मैदान में "अमर जवान" को पैरों से तोड़ता हुआ अमन दूत
म्यामांर में मुसलमानों के लिए भारत में आजाद मैदान में दंगा हुआ, शहीदों का स्मारक तोडा गया। लेकिन हमेशा की तरह धर्मनिरपक्ष दलों ने इन दंगों को अपनी मूक सहमति दी। इस देश का मुसलमान नाराज न हो जाए, इसके लिए हर संभव कोशिश हुई। अल्पसंख्यको के नाम पर केवल मुसलमानों का ख्याल रखा गया बाकियों को नजरअंदाज किया गया। 
    तमाम मुस्लिम राजनेता, मौलानाओं ने हिन्दू धर्म, हिन्दुओ के खिलाफ बेहूदगी की हदें पार की। जाकिर नायक खुलेआम हिन्दू देवी देवताओं का मजाक बनाता रहा। लेकिन धर्मनिरपेक्षता के पैरेकारों का ध्यान साध्वी, साक्षी, भगवा पर है। एक नेता 15 मिनट में 100 करोड़ हिन्दुओ को खत्म, भारतीय सेना को नपुंसक तक कह दिए। लेकिन करीबन 10 दिनों तक कहीं चर्चा नहीं हुईं। सोशल मीडिया में विरोध के बाद ‘हम निंदा करते हैं’ जैसे बयान सामने आए। 
   ताजा उदाहरण लीजिए, रोहिंग्या मुसलमानों के मामले में अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शन हुए हैं। बंगाल और बिहार से हिन्दुओ को खत्म करने की चुनौतियां दी गयी हैं, भारत का इतिहास बदला जायेगा। इसके विरोध में अभी तलक कितने धर्मनिरपेक्षता के उपासकों, रक्षकों की प्रतिक्रिया आपने सुनी हैं? देश के दो हिस्से होने के बाबजूद भी तुष्टिकरण की नीतियाँ कम नहीं हुई बल्कि हद से ज्यादा बढ़ावा दिया गया। मस्जिद के मौलानाओं, इमामों को प्रतिमाह भत्ता देना शुरू किया गया। 
   तुष्टिकरण की नीति में सभी धर्मनिरपेक्ष दल भागीदार रहे हैं, जिनमे से कुछ ही नीतियों का यहाँ जिक्र हुआ है और इन्ही नीतियों पर चलकर धर्मनिरपेक्ष दलों ने वर्षों तक सत्ता में राज किया और आज भी कर रहे हैं। वो जानते हैं जिन नीतियों की वजह से देश टूट सकता है तो सरकार बनाना कितना आसान काम हैं। लेकिन यह मांगे आखिर कहाँ रुकेगीं, सोचियेगा! 

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