राहुल गांधी की तरह ही जवाहरलाल नेहरू भी हिन्दू विरोधी थे!

राहुल गांधी और जवाहरलाल नेहरू

सबसे पहले राहुल गांधी फिर बाद में इनके 2 काँग्रेसी नेताओं (पी चिताम्बरम और सुशील शिंदे) द्वारा देश के गृहमंत्री पद पर रहते हुए अपने सुल्तान (राहुल गांधी) के नक्शे कदम पर चलते हुए हिन्दुओ को विभिन्न मामले में आतंकवादी साबित करने की असफल कोशिश किया गया है। जिसमें अनेक हिन्दुओ की गिरफ्तारी भी हुई थी। सवाल उठता है कि आखिर राहुल गांधी का हिन्दू विरोध क्यो? क्या यह हिन्दू विरोध ठीक जवाहरलाल नेहरू जैसा ही है? आइए इतिहास के पन्नो से जानते है -

सन 1947 में देश विभाजन के समय पूर्वी तथा पश्चिमी पंजाब, दिल्ली और कुछ अन्य स्थानों पर बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक दंगे हुए थे। मुसलमानों द्वारा पाकिस्तान से लौट रहे हिन्दू व सिख शरणार्थियों के लाशों से भरी हुई ट्रेनें लौट रही थी। युवतियों व महिलाओं को जबरदस्ती अपने साथ भगाया जा रहा था, बलात्कार किया जा रहा था। जब पश्चिमी पंजाब से दिल्ली में आये हुए हिन्दू व सिख शरणार्थियों ने अपनी आपबीती सुनाई, तो दिल्ली साम्प्रदायिक की आग की लपटों से जल उठी। लेकिन देश के प्रथम प्रधानमंत्री उन लपटों को शांत करने के बजाय मुस्लिम परस्ती में डूबे हुए थे। नेहरू का हर कदम पर हिन्दू और सिखों के पैरों तले कांटे बिछा रहे थे। लेकिन दूसरी तरह जिहादी मुसलमानों के लिए तरह-तरह की मांग व सुविधाएं उपलब्ध कराने की कोशिश कर रहे थे। जिसके उदाहरण दिए जा रहे है।

देश के बटवारे में ऐसे बहुत कुछ मामले है, जो नेहरू और वामपंथी इतिहासकारों द्वारा पूरी तरह से छिपाया गया है। जिसकी भनक आम भारतीय को आज भी नही है। जैसे -
  • 1- हिन्दू-सिख और मुस्लिम शरणार्थियों के साथ प्रधानमंत्री नेहरू ने किस तरह का भेदभाव किया?
  • 2- किस तरह से नेहरू ने दिल्ली के एक हिस्से को फिर से साम्प्रदायिकता की राह पर धकेलते हुए मुस्लिम बहुल बना देने की कोशिश की ?
  • 3- किस तरह पाकिस्तान चले गए मुस्लिमो को भारत बुलाकर फिर से बसाने का प्रयास किया गया ?
  • 4- किस तरह नेहरू ने मुस्लिमो की छोड़ी हुई संपत्ति, हिन्दू शरणार्थियों को देने से रोक लगाई ?
  • 5- किस तरह से “नेहरू-लियाकत” समझौते के तहत पूर्वी बंगाल (बंगला देश) के हिन्दुओ को पाकिस्तान की दया पर छोड़ दिया गया ?
  • 6- किस तरह दिल्ली की जामा मस्जिद सहित अन्य मस्जिद व मुस्लिम बस्तियां अवैध हथियारों का जखीरा बन चुकी थी ?

नेहरू द्वारा दिल्ली में एक और पाकिस्तान बनाने की योजना
पंजाब में आतंक मचाने वाले ख़ाकसारो ने दिल्ली और अजमेर पर कब्जा करने का प्रयास किया, जिससे दिल्ली की हालत और बदतर हो गई। पहाड़गंज, करोलबाग और जामा मस्जिद जैसे अनेक मुस्लिम बहुल मुहल्लों से अस्त्र-शस्त्र और गोला बारूद का जखीरा मिला था। डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने सरदार पटेल को सूचना दी कि करोल बाग में लगभग 500-600 मेवाती मुसलमान एकत्र हो गए है, जिन्हें सेना द्वारा तीतर-बितर करना जरूरी है।
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लेकिन जवाहरलाल नेहरू को सोच दूरी थी और वह पूरी दिल्ली को अलग-अलग मुस्लिम कॉलोनी में बाटने के इच्छुक थे। केंद्र सरकार ने 35 हजार मेव (मेवाती) मुस्लिम शरणार्थियो के लिए दिल्ली में आवास उपलब्ध करवाया था। जबकि 15 हजार मेवों को पहले ही आवास उपलब्ध करा चुकी थी। नेहरू का विचार था कि सभी मेवों को एक जगह बसाया जाय। जबकि सरदार पटेल का कहना था कि इससे बाद में दिल्ली के अंदर एक और पाकिस्तान का निर्माण हो जाएगा। नेहरू ने बिलखते हिन्दू शरणार्थियों के भाग्य पर मुस्लिम तुष्टिकरण की तरजीह दी और कई फैसले बिना अपने गृहमंत्री और उनके मंत्रालय के जानकारी में दिए हुए ही किये। नेहरू ने केसी नियोगी को शरणार्थी समस्या सुलझाने का मंत्री नियुक्त कर दिया, जिसपर सरदार भड़क गए और कहा कि यह गलत चयन है क्योंकि नियोगी उन लोगो की मनोवृत्तियों से अनजान है, जिनके लिए उन्हें कार्य करना है। नेहरू ने बिना गृह मंत्रालय को जानकारी में दिए विशेष पुलिस अधिकारियों की भर्ती भी की और मौलाना आजाद उनकी हाँ में हाँ मिलाते रहे।

नेहरू की मुस्लिम तुष्टिकरण से वोटबैंक की सेक्युलर राजनीति
सरदार पटेल ने 12 अक्टूबर 1947 को नेहरू को पत्र लिखकर जानकारी दी थी कि “1034 विशेष अधिकारियों में से 574 कांग्रेस द्वारा नामित किये गए थे। इन सभी अधिकारियों की सिफारिश दिल्ली कांग्रेस समिति ने की थी। 49 में से 19 मजिस्टेट कांग्रेस द्वारा नामित थे।” अर्थात देश बँट चुका था, शरणार्थी कराह रहे थे, लेकिन गृहमंत्रालय को स्वतंत्र रूप से कार्य करने देने की जगह पंडित जवाहरलाल नेहरू मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए अपने हिसाब से ट्रांसफर-पोस्टिंग में व्यस्त थे। वह हर हाल में साम्प्रदायिक मुसलमानों को भारत मे रोकना चाहते थे, ताकि आने वाले समय मे वे उनके एवम उनके परिवार के लिए मजबूत वोट बैंक बने रहे। हालांकि नेहरू का तर्क होता था कि इससे भारत की “धर्मनिरपेक्षता” छवि बनेगी।

नेहरू द्वारा पाकिस्तान जा रहे मुस्लिमो को रोकने का प्रयास
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ‘आल इंडिया रेडियो’ से यह घोषणा की कि “पाकिस्तान जाने वाले मुसलमान पाकिस्तान न जाय, यही रुक जाए।” सवाल उठता है कि जो लोग मजहब के आधार पर पाकिस्तान की मांग कर रहे थे और विभाजन के बाद पाकिस्तान जा रहे थे तो भारत मे रोककर किस तरह की धर्मनिरपेक्षता स्थापित करने की कोशिश की जा रही थी? जबकि यह स्पष्ट है कि अलग पाकिस्तान की मांग करने वाले मुसलमान, अखंड भारत के साम्प्रदायिक विभाजन के पक्षधर थे। 1946 के चुनाव में 90 फीसदी मुसलमानों ने विभाजन के पक्ष में मुस्लिम लीग के समर्थंन में मतदान किया था। जिस दिल्ली में मुसलमानों को रोकने और उनकी अलग कालोनी बसाने के लिए जवाहरलाल नेहरू तरह-तरह के पैतरे अजमा रहे थे, उसी दिल्ली की लगभग  आधी पुलिस ने पाकिस्तान जाना पसंद किया था। इनकी पुष्टि गांधी हत्या के बाद गृहमंत्रालय की रिपोर्ट से हुई, क्योकि दिल्ली में पुलिस बल में भारी कमी आ गयी थी।

आगे चलकर ऐसे मुसलमान भारत को अखंड रहने देंगे, इसकी क्या गारंटी है?
आज भी देश मे चल रहा मजहबी उन्माद, अलगाववाद, आतंकवाद और साम्प्रदायिक दंगे उन लोगो की मजहबी सोच का ही नतीजा है, जिनके दिल मे तो पाकिस्तान था, लेकिन जो प्रलोभनंवश यहाँ रुक गए थे। सरदार पटेल का कहना था कि “जो लोग कल तक पाकिस्तान की मांग कर रहे थे, वे रातोरात इस देश के वफादार हो जाये, इस बात को देश के अन्य करोड़ो लोग स्वीकार नही कर सकते है। इन करोड़ो की भावनाओ की ओर भी हमे ध्यान देना चाहिए।” लेकिन जवाहरलाल नेहरू को उन करोड़ो से अधिक उन अलगाववादी मजहबी मुसलमानों की चिंता थी, जो पाकिस्तान जाना चाह रहे थे।

पाकिस्तान जाने वाले मुस्लिमो की संपत्ति हिन्दू-सिखों को न दिए जाय: नेहरू
नेहरू ने 30 सितंबर 1947 को सरदार पटेल को पत्र लिखा कि “एक लाख 30 हजार मेव (मेवाती मुसलमान) शरणार्थी पुराना किला व हुमांयू के मकबरे में शरण लिए हुए है। इनमे से आधे शरणार्थी पकिस्तान जाना चाहते है और शेष यही रहना चाहते है। अतः उनके द्वारा छोड़ी गई संपत्ति को गैर-मुस्लिमो को न दिया जाय।” नेहरू ने अपनी ओर से सरदार को बिना बताए एक निर्णय ले लिया, जिसकी जानकारी सरदार को कार्यालय ज्ञापन से प्राप्त हुई। नेहरू ने यह निर्णय लिया था कि दिल्ली के मुस्लिम बहुल मुहल्लों में खाली पड़े मकानों को गैर-मुस्लिम अर्थात हिन्दुओ व सिखों को न दिया जाय, ताकि कुछ मुहल्ले दिल्ली में मुस्लिम ब्लॉक बने रहे। नेहरू की कोशिश थी कि शरणार्थी मुस्लिमो को दिल्ली में एक जगह बसाया जाय। लेकिन सरदार पटेल ने इसका विरोध किया और कहा कि पृथक आवास सुविधा पृथकतावाद को और अधिक बढ़ाएंगी। सरदार पटेल हैरान थे कि न तो मंत्रिमंडल ने यह निर्णय लिया है, न ही उन्हें इस बारे में कोई जानकारी है और नेहरू दिल्ली के अंदर एक नॉए पाकिस्तान को जन्म देने के लिए लगतर कोशिश में जुटे हुए है।

नेहरू द्वारा हथियारबंद जिहादियों को बचाने की कोशिश
गोला बारूद, स्वचालित हथियार आदि के साथ पकड़े जा रहे मुसलमानों से नेहरू की इतनी सहानुभूति रहती थी कि वह सरदार पटेल को पत्र के जरिये यह समझाने की कोशिश करते थे कि मुसलमान अब दुर्व्यवहार नही करेंगे! क्योकि उनका मनोबल बुरी तरह से गिर गया है। नेहरू की कोशिश थी और उन्हीने बहुत हद तक इस छवि का निर्माण भी कर दिया कि पश्चिमी पाकिस्तान से आये सिख व हिन्दू ही दिल्ली में दंगे के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है।

मैं दिल्ली के 700 मिल के दायरे में हिन्दू व सिख शरणार्थियों को आने की इजाजत नही दूंगा: नेहरू
सरदार पटेल: मुसलमान और शरणार्थी” पुस्तक (जो सरदार पटेल को प्राप्त और इनके द्वारा लिखी हुई चिट्ठियों का संग्रह है) के अनुसार, “इस सम्बंध में नेहरू की टिप्पणी को दोहराना रोचक होगा, जब उनके पास पंजाब नेशनल बैंक के चेयरमैन श्री योधराज आये तथा सुझाव दिए कि “पंजाब से आये शरणार्थियों को बसाने के लिए दिल्ली के पास कुछ सौ एकड़ जमीन अधिगृहित की जाए।” अपनी पुस्तक “इंडिया: फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर” में दुर्गा दास ने लिखा है, “पंडित नेहरू ने तत्काल प्रतिक्रिया व्यक्त की- ‘मैं दिल्ली के 700 मिल के दायरे के भीतर उन्हें (हिन्दू व सिख शरणार्थियों को) आने की इजाजत नही दूंगा।’

पश्चिमी पंजाब से आने वाले हिन्दू व पंजाबी शरणार्थियों के लिए दिल्ली में बसने की जगह देने से मना करने वाले नेहरू को जब मृदुला साराभाई ने यह प्रस्ताव दिया कि करनाल से 20 हजार या 30 हजार मुसलमानों को दिल्ली में लाकर उनके रिश्तेदारों या मित्रो के पास पुनः बसाया जाय तो नेहरू खुशी-खुशी तैयार हो गए। है न आश्चर्य ! “सरदार पटेल: मुसलमान और शरणार्थी” पुस्तक के मुताबिक सरदार पटेल ने नियोगी को स्पष्ट आदेश किया कि सरकार की नीति निश्चित रूप से दिल्ली में किसी जगह से आने वाले शरणार्थियों के प्रतिकूल थी, इसलिए यह प्रस्ताव (मृदुला साराभाई का) अस्वीकार्य था।

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