शिकागो वक्तृता : हिन्दू धर्म - 19 सित.1893 भाग -४ [ Hinduism - Swami Viveka Nand]


तो फिर क्या कोई आशा ही नहीं हैं ? क्या इससे बचने का कोई मार्ग नहीं हैं ?
 यही करुण पुकार निराशाविह्वल हृदय के अन्तस्तल से उपर उठी और उस करुणामय के सिंहासन तक जा पहुँची । वहाँ से आशा तथा सान्त्वना की वाणी निकली और उसने एक वैदिक ऋषि को अन्तःस्फूर्ति प्रदान की, और उसने संसार के सामने खड़े होकर तूर्यस्वर में इस आनन्द सन्देश की घोषणा की : “हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो ! मैंने उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया हैं, तो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है। केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो । दूसरा कोई पथ नहीं ।' -- श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २.५, ३-८ ॥

'अमृत के पुत्रो ' -- कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन हैं यह !
 बन्धुओ ! इसी मधुर नाम - अमृत के अधिकारी से - आपको सम्बोधित करूँ, आप इसकी आज्ञा मुझे दे । निश्चय ही हिन्दू आपको पापी कहना अस्वीकार करता हैं । आप ईश्वर की सन्तान हैं , अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं, आप इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं । आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप बैं , वह मानव स्वरूप पर घोर लांछन हैं । आप उठें ! हे सिंहो ! आएँ , और इस मिथ्या भ्रम को झटक कर दूर फेक दें की आप भेंड़ हैं । आप हैं आत्मा अमर, आत्मा मुक्त, आनन्दमय और नित्य ! आप जड़ नहीं हैं , आप शरीर नहीं हैं; जड़ तो आपका दास हैं , न कि आप हैं जड़ के दास ।

अतः वेद ऐसी घोषणा नहीं करते कि यह सृष्टि –
 व्यापार कतिपय निर्मम विधानों का सघात हैं , और न यह कि वह कार्य-कारण की अनन्त कारा हैं ; वरन् वे यह घोषित करते हैं कि इन सब प्राकृतिक नियमों के मूल नें , जड़तत्त्व और शक्ति के प्रत्येक अणु-परमाणु में ओतप्रोत वही एक विराजमान हैं, “जिसके आदेश से वायु चलती हैं, अग्नि दहकती हैं, बादल बरसते हैं और मृत्यु पृथ्वी पर नाचती हैं।“  -- कठोपनिषद् ॥२.३.३॥
और उस पुरुषव का स्वरूप क्या हैं ?
वह सर्वत्र हैं, शुद्ध, निराकार, सर्वशक्तिमान् हैं, सब पर उसकी पूर्ण दया हैं । “ तू हमारा पिता हैं, तू हमारी माता हैं, तू हमारा परम प्रेमास्पद सखा हैं, तू ही सभी शक्तियों का मूल हैं; हमैं शक्ति दे। तू ही इन अखिल भुवनों का भार वहन करने वाला हैं, तू मुझे इस जीवन के क्षुद्र भार को वहन करने में सहायता दे।“ वैदिक ऋषियों ने यही गाया हैं । हम उसकी पूजा किस प्रकार करें ? प्रेम के द्वारा ।' ऐहिक तथा पारत्रिक समस्त प्रिय वस्तुओं से भी अधिक प्रिय जानकर उस परम प्रेमास्पद की पूजा करनी चाहिए ।

वेद हमें प्रेम के सम्वन्ध में इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं :
अब देखें कि श्रीकृष्ण ने, जिन्हें हिन्दू लोग पृथ्वी पर ईश्वर का पूर्णावतार मानते हैं , इस प्रेम के सिद्धांत का पूर्ण विकास किस प्रकार किया हैं और हमें क्या उपदेश दिया हैं ।
उन्होने कहा हैं कि मनुष्य को इस संसार में पद्मपत्र की तरह रहना चाहिए । पद्मपत्र जैसे पानी में रहकर भी उससे नहीं भीगता, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में रहना चाहिए -- उसका हृदय ईश्वर में लगा रहे और हाथ कर्म में लगें रहें ।
इहलोक या परलोक में पुरस्कार की प्रत्याशा से ईश्वर से प्रेम करना बुरी बात नहीं, पर केवल प्रेम के लिए ही ईश्वर से प्रेम करना सब से अच्छा हैं, और उसके निकट यही प्रार्थन करनी उचित हैं, “हे भगवन्, मुझे न तो सम्पत्ति चाहिए, न सन्तति, न विद्या । नही तो सहस्रों बार जन्म-मृत्यु के चक्र में पडूँगा; पर हे प्रभो, केवल इतना ही देकर मैं फल की आशा छाड़कर तेरी भक्ति करूँ, केवल प्रेम के लिए ही तुझ पर मेरा निःस्वार्थ प्रेम हो ।“ -- शिक्षाष्टक ॥४॥

श्रीकृष्ण के एक शिष्य युधिष्टर इस समय सम्राट् थे !
 उनके शत्रुओं ने उन्हें राजसिंहासन से च्युत कर दिया और उन्हें अपनी सम्राज्ञी के साथ हिमालय के जंगलों में आश्रय लेना पड़ा था । वहाँ एक दिन सम्राज्ञी ने उनसे प्रश्न किया, "मनुष्यों में सर्वोपरि पुण्यवान होते पुए भी आपको इतना दुःख क्यों सहना पड़ता हैं ?" युधिष्टर ने उत्तर दिया:  "महारानी, देखो, यह हिमालय कैसा भव्य और सुन्दर हैं। मैं इससे प्रेम करताहूँ। यह मुझे कुछ नहीं देता ; पर मेरा स्वभाव ही ऐसा हैं कि मैं भव्य और सुन्दर वस्तु से प्रेम करता हूँ और इसी कारण मैं उससे प्रेम करता हूँ। उसी प्रकार मैं ईश्वर से प्रेम करता हूँ। उस अखिल सौन्दर्य, समस्त सुषमा का मूल हैं। वही एक ऐसा पात्र हैं, जिससे प्रेम करना चाहिए। उससे प्रेम करना मेरा स्वभाव हैं और इसीलिए मैं उससे प्रेम करता हूँ। मैं किसी बात के लिए उससे प्रार्थना नहीं करता, मैं उससे कोई वस्तु नहीं माँगता। उसकी जहाँ इच्छा हो, मुझे रखें। मैं तो सब अवस्थाओं में केवल प्रेम ही उस पर प्रेम करना चाहता हूँ, मैं प्रेम में सौदा नहीं कर सकता।" --महाभारत, वनपर्व ॥३१.२.५॥
वेद कहते हैं कि “आत्मा दिव्यस्वरूप हैं, वह केवल पंचभूतों के बन्धन में बँध गयी हैं और उन बन्धनों के टूटने पर वह अपने पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगीं । इस अवस्था का नाम मुक्ति हैं”
जिसका अर्थ हैं: स्वाधीनता –अपूर्णता के बन्धन से छुटकारा , जन्म-मृत्यु से छुटकारा।
और यह बन्धन केवल ईश्वर की दया से ही टूट सकता हैं और वह दया पवित्र लोगों को ही प्राप्त होती हैं। अतएव पवित्रता ही उसके अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय हैं। उसकी दया किस प्रकार काम करती हैं? वह पवित्र हृदय में अपने को प्रकाशित करता हैं। पवित्र और निर्मल मनुष्य इसी जीवल में ईश्वर दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता हैं।
“तब उसकी समस्त कुटिलता नष्ट हो जाती हैं, सारे सन्देह दूर हो जाते हैं ।“ --मुण्डकोपनिषद् ॥२.२.८॥ तब वह कार्य-कारण के भयावह नियम के हाथ खिलौना नहीं रह जाता ।
आगे भाग ..५ में ....

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