शिकागो वक्तृता : हिन्दू धर्म - 19 सित.1893 भाग -३ [ Hinduism - Swami Viveka Nand]

दूसरी बात यह हैं कि सृष्टि:
         उत्पादक ईश्वर को मान्यता देनेवाला सिद्धान्त वैषम्य की कोई व्याख्या नहीं करता, बल्कि वह तो केवल एक सर्वशक्तिमान् पुरुष का निष्ठुर आदेश ही प्रकट करता हैं। अत एव इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही चाहिए, जिनके फलस्वरुप मनुष्य इस जन्म में सुखी या दुःखी हुआ करते हैं । और ये कारण हैं, उसके ही पुर्वनुष्ठित कर्म ।

क्या मनुष्य के शरीर और मन की सारी प्रवृत्तियों की व्याख्या उत्तराधिकार से प्राप्त क्षमता द्वारा नहीं हो सकती ?
         यहाँ जड़ और चैतन्य (मन) , सत्ता की दो समानान्तर रेखाएँ हैं । यदि जड़ और जड़ के समस्त रूपान्तर ही, जो कुछ यहाँ उसके कारण सिद्ध हो सकते, तो फ़िर आत्मा के अस्तित्व को मानने की कोई आवश्यकता ही न रह जाती । पर यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि चैतन्य (विचार) का विकास जड़ से हुआ हैं, और यदि कोई दार्शनिक अद्वैतवाद अनिवार्य हैं, तो आध्यात्मिक अद्वैतवाद निश्चय ही तर्कसंगत हैं और भौतिक अद्वैतवाद से किसी भी प्रकार कम वाँछनीय नहीं; परन्तु यहाँ इन दोनों की आवश्यकता नहीं हैं ।

 हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते कि शरीर कुछ प्रवृत्तियों को आनुवंशिकता से प्राप्त करता है ;
         किन्तु ऐसी प्रवृत्तियों का अर्थ केवल शरीरिक रूपाकृति से है, जिसके माध्यम से केवल एक विशेष मन एक विशेष प्रकार से काम कर सकता है । आत्मा की कुछ ऐसी विशेष प्रकृत्तियाँ होती है, जिसकी उत्पत्ति अतीत के कर्म से होती है । एक विशेष प्रवृत्तिवाली जीवात्मा ' योग्यं योग्येन युज्यते ' इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करती है, जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सब से उपयुक्त आधार हो । यह विज्ञानसंगत है, क्योंकि विज्ञान हर प्रवृत्ति की व्याख्या आदत से करना चाहता है, और आदत आवृत्तियों से वनती है । अतएव नवजात जीवात्मा की नैसर्गिक आदतों की व्याख्या के लिए आवृत्तियाँ अनिवार्य हो जाती है । और चूँकि वे प्रस्तुत जीवन में प्राप्त नहीं होती, अतः वे पिछले जीवनों से ही आयी होंगी ।

एक और दृष्टिकोण हैं:
        ये सभी बातें यदि स्वयंसिद्ध भी मान लें, तो में अपने पूर्व जन्म की कोई बात स्मरण क्यों नहीं रख पाता ? इसका समाधान सरल हैं । मैं अभी अंग्रेजी बोल रहा हीँ । वह मेरी मातृ भाषा नहीं हैं । वस्तुतः इस समय मेरी मातृभाषा का कोई भी शब्द मेरे चित्त में उपस्थित नहीं हैं , पर उन शब्दों को सामने लोने का थोड़ा प्रयत्न करते ही वे मन में उमड़ आते हैं । इससे यही सिद्ध होता है कि चेतना मानससागर की सतह मात्र हैं और भीतर, उसकी गहराई में, हमारी समस्त अनुभवराशि संचित हैं । केवल प्रयत्न और उद्यम किजिए, वे सब ऊपर उठ आएँगे । और आप अपने पूर्व जन्मों का भी ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे ।

यह प्रत्यक्ष एवं प्रतिपाद्य प्रमाण हैं:
        सत्यसाधन ही किसी परिकल्पना का पूर्ण प्रमाण होता हैं , और ऋषिगण यहाँ समस्त संसार को एक चुनौती दे रहे हैं । हमने उस रहस्य का पता लगा लिया हैं , जिससे स्मृतिसागर की गम्भीरतम गहराई तक मन्थन किया जा सकता हैं -- उसका प्रयोग कीजिए और आप अपने पूर्व जन्मों का सम्पूर्ण संस्मृति प्राप्त कर लेंगे ।
 
अत एव हिन्दू का यह विश्वास हैं कि वह आत्मा हैं :
        “उसको शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि दग्ध नहीं कर सकती, जल भीगो नहीं सकता और वायु सुखा नही सकती । ' -- गीता ॥२.२३॥ हिन्दुओं की यह धारणा हैं कि आत्मा एक ऐसा वृत्त हैं जिसकी कोई परिधि नहीं हैं, किन्तु जिसका केन्द्र शरीर में अवस्थित हैं; और मृत्यु का अर्थ हैं, इस केन्द्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाना । यह आत्मा जड़ की उपाधियों से बद्ध नहीं हैं । वह स्वरूपतः नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव हैं । परन्तु किसी कारण से वह अपने को जड़ से बँधी हुई पाती हैं  और अपने को जड़ ही समझती हैं ।
 
अब दूसरा प्रश्न हैं कि यह विशुद्ध, पूर्ण और विमुक्त आत्मा इस प्रकार जड़ का दासत्व क्यों करती हैं ?
        स्वमं पूर्ण होते हुए भी इस आत्मा को अपूर्ण होनें का भ्रम कैसे हो जाता हैं? हमें यह बताया जाता हैं कि हिन्दू लोग इस प्रश्न से कतरा जाते हैं ऐसे कह देते कि ऐसा प्रश्न हो ही नहीं सकता । कुछ विचारक पूर्णप्राय सत्ताओं की कल्पना कर लेते हैं और इस रिक्त को भरने के लिए बड़े- बड़े वैज्ञानिक नामों का प्रयोग करते हैं । परन्तु नाम दे देना व्याख्या नहीं हैं । प्रश्न ज्यों का त्यों ही बना रहता हैं। पूर्ण ब्रह्म पूर्णप्राय अथवा अपूर्ण कैसे हो सकता हैं ; शुद्ध, निरपेक्ष ब्रह्म अपने स्वभाव को सूक्ष्माति सूक्ष्म कण भर भी परिवर्तित कैसे कर सकता हैं ? पर हिन्दू ईमानदार हैं । वह मिथ्या तर्क का सहारा नहीं लेना चाहता । पुरुषोचित रूप में इस प्रश्न का सामना करने का साहस वह रखता हैं, और इस प्रश्न का उत्तर देता हैं , "मैं नहीं जानता । मैं नहीं जानता कि पूर्ण आत्मा अपने को अपूर्ण कैसे समझने लगी, जड़पदार्थों के संयोग से अपने को जड़नियमाधीन कैसे मानने लगी।" पर इस सब के बावजूद तथ्य जो हैं, वही रहेगा । यह सभी की चेतना का एक तथ्य हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने को शरीर मानता हैं । हिन्दू इस बात की व्याख्या करने का प्रयत्न नहीं करता कि मनुष्य अपने को शरीर क्यों समझता हैं ।
        यह ईश्वर की इच्छा है: यह उत्तर कोई समाधान नहीं हैं । यह उत्तर हिन्दू के 'मैं नहीं जानता” के सिवा और कुछ नहीं हैं ।

 अत एव मनुष्य की आत्मा अनादि और अमर हैं, पूर्ण और अनन्त हैं, और मृत्यु का अर्थ हैं –
       एक शरीर से दूसरे शरीर में केवल केन्द्र-परिवर्तन । वर्तमान अवस्था हमारे पूर्वानुष्ठित कर्मों द्वारा निश्चित होती हैं और भविष्य, वर्तमान कर्मों द्वारा । आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र में लगातार घूमती हुई कभी ऊपर विकास करती हैं, कभी प्रत्यागमन करती हैं । पर यहाँ एक दूसरा प्रश्न उठता हैं -- क्या मनुष्य प्रचण्ड तूफान में ग्रस्त वह छोटी सी नौका हैं , जो एक क्षण किसी वेगवान तरंग के फेनिल शिखर पर चढ़ जाती हैं और दूसरे क्षण भयानक गर्त में नीचे ढकेल दी जाती हैं, अपने शुभ और अशुभ कर्मों की दया पर केवल इधर-उधर भटकती फिरती हैं ; क्या वह कार्य-कारण की सततप्रवाही, निर्मम, भीषण तथा गर्जनशील धारा में पड़ा हुआ अशक्त, असहाय भग्न पोत हैं, क्या वह उस कारणता के चक्र के नीचे पड़ा हुआ एक क्षुद्र शलभ हैं, जो विधवा के आँसुओं तथा अनाथ बालक की आहों की तनिक भी चिन्ता न करते हिए, अपने मार्ग में आनेवाली सभी वस्तुओं को कुचल डालता हैं ? इस प्रकार के विचार से अन्तःकरण काँप उठता हैं, पर यही प्रकृति का नियम हैं ।
आगे भाग ..4 में ....

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