भारतीय मुसलमान और "सुपर अरब सिंड्रोम"


भारतीय मुसलमान और "सुपर अरब सिंड्रोम"
भारतीय मुसलमान समाज वैसे तो कई प्रकार के मानसिक दिवालियेपन से ग्रस्त है, लेकिन इसमें सबसे प्रमुख है "सुपर अरब सिंड्रोम"। यानि अपने तथाकथित अरब मूल का होने का झूठा अभिमान! ये अक्सर अरबों से अपने रिश्ते जो़ड़ने की कोई कसर नहीं छोड़ते, लेकिन हकीकत में अगर ये अपने पुरखों का लेखाजोखा निकालेंगे तो इनके पूर्वजों में से किसी न किसी का नाम राम प्रसाद ही निकलेगा। 
     "सुपर अरब सिंड्रोम" की ताजा मिसाल हैं दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष "ज़फरउल इस्लाम खान"! जिन्होने अपने ताजा पोस्ट में अपने तथाकथित अरबी बाप-दादाओं को शुक्रिया अदा करते हुए इस देश के हिंदुओं को ये धमकी दी है कि (नीचे तस्वीर लगी है) - "अरे कट्टरपंथियो (हिंदुओं), यह जान लो कि भारतीय मुसलमानों ने अब तक अरब और मुस्लिम जगत से आपके हेट कैम्पेन, लिंचिंग और दंगों की शिकायत नहीं की है, जिस दिन उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाएगा, उस दिन कट्टरपंथियों (हिंदुओं) को तूफान का सामना करना पड़ेगा।"... 
भारतीय मुसलमानों का ये "सुपर अरब सिंड्रोम" होता क्या है?
   अक्सर आपने अपने मुस्लिम दोस्तों को ये बोलते हुए सुना होगा कि "हमारे मक्का में", "हमारे अरब में"! दरअसल ये कनवर्टेड होने की कुंठा है। भारतीय मुसलमानों को ये बहुत बड़ी गलतफहमी है कि इनके डीएनए (DNA) अरब लोगों का है। लेकिन हकीकत में इनके रंग-रूप को देखकर ये साफ अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इनके वंशज इसी भारतीय उपमहाद्वीप के हैं। लेकिन गलतफहमी में अक्सर इन्हे लगता है कि जब भी इनपर संकट आएगा तो अरब मुल्क इनके साथ खड़े हो जाएंगे। 
    मैंने कई मुस्लिम लोगों को बोलते सुना है और आपने भी सुना होगा कि- "हमारे 57 मुल्क हैं!" इसी झूठे अभिमान और अकड़ के चलते भारत के कई मुसलमान अरब देशों को भारत के खिलाफ भड़काने में लगे हैं। जफरउल इस्लाम जैसे लोग यही काम कर रहे हैं। यहां तक कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से जुड़े कुछ लोग गायक सोनू निगम को तीन साल पुराने वीडियो के मसले को उठाकर उन्हे दुबई में गिरफ्तार करवाना चाहते हैं। कोई माने या न माने, लेकिन मेरी नज़र में ये विशुद्ध देशद्रोह है। जी हां, किसी दूसरे मुल्क को अपने मुल्क के बारे भड़काना देशद्रोह ही होता है। 
भारतीय मुसलमानों द्वारा ऐसा करने का इतिहास
   भारतीय मुसलमानों ने पहली बार ऐसा नहीं किया है, (बल्कि) इनका यही इतिहास है। अरब और तुर्कों के लिए हमेशा से इनका दिल धड़कता है। इन्हे अपने भारतीय होने से ज्यादा उम्मा (इस्लामिक दुनिया) की चिंता ज्यादा सताती है। 1920 के खिलाफत आंदोलन के बारे में तो आप सभी जानते ही हैं कि कैसे तुर्की के खलीफा और उसके ऑटोमन साम्राज्य को बचाने के लिए भारतीय मुसलमानों ने मोपाला और देश के दूसरे इलाको में हिंदुओं के खून से होली खेली थी। इतना ही नहीं खिलाफत आंदोलन के सबसे बड़े नेता मोहम्मद अली जौहर ने तो बकायदा अफगानिस्तान के सुल्तान को भारत पर आक्रमण करने के लिए टेलीग्राम भी भेज दिया था। 
    ये वही मोहम्मद अली जौहर हैं, जिनके नाम पर समाजवादी पार्टी के नेता आज़म खान ने जौहर यूनिवर्सिटी बनाई है। यानि कहने का मतलब ये है कि भारतीय मुसलमानों का अपने विदेशी मुस्लिम भाईयों से मदद मांगने का पुराना रिकॉर्ड रहा है। 
भारतीय मुसलमानों की इस प्रवृत्ति को डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर अच्छी तरह से जानते थे  
    जिस तरह से 2020 में कुछ भारतीय मुसलमान अपने ही मुल्क के खिलाफ अरब देशों से मदद की गुहार लगा रहे हैं, उसका अंदाजा 1945 में ही डॉ. अंबेडकर को हो गया था। जय भीम, जय मीम का नारा लगाने वालों को मेरी बात बुरी लगेगी, लेकिन सच यही है। डॉ अंबेडकर ने अपनी किताब "पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन" के पेज नंबर 297 (नीचे तस्वीर लगी हुई है) पर लिखा है कि- "तथ्य यह है कि भारत, चाहे एक मात्र मुस्लिम शासन के अधीन न हो, दार-उल-हर्ब है, और इस्लामी सिद्धान्तों के अनुसार मुसलमानों द्वारा जिहाद की घोषणा करना न्यायसंगत है। वे जिहाद की घोषणा ही नहीं कर सकते, बल्कि उसकी कामयाबी के लिए विदेशी मुस्लिम शक्ति यानि किसी मुस्लिम देश की मदद भी ले सकते हैं, और यदि कोई मुस्लिम देश जेहाद की घोषणा करना चाहता है तो उसकी सफलता के लिए भारत के मुसलमान उसे मदद भी दे सकते हैं।” 
   जैसा की मैंने उपर लिखा है कि भारतीय मुसलमानों का दिल अरब देशों के लिए धड़कता है और उन्हे वो अपना आका मानते हैं। यही बात डॉ अंबेडकर बहुत पहले कह चुके थे। उन्होने अपनी किताब "पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन" में देश के प्रति मुसलमानों की वफादारी पर बहुत बड़ा सवाल उठाया था। उन्होने कहा था कि "मुसलमान भारत को अपनी मातृभूमि नहीं मानते हैं!" इस किताब के पेज नंबर 332 (नीचे तस्वीर लगी हुई है) पर डॉ अंबेडकर लिखते हैं कि- "इस्लाम एक बंद खि़ड़की की तरह है, जो मुसलमानों और गैर मुसलमानों के बीच भेद करता है। इस्लाम में जिस भाईचारे की बात की गई है वो मानवता का भाईचारा नहीं है बल्कि उसका मतलब सिर्फ मुसलमानों का मुसलमानों से भाईचारा है। मुसलमानों के भाईचारे का फायदा सिर्फ उनके अपने लोगों को ही मिलता है। और जो गैर मुस्लिम हैं, उनके लिए इस्लाम में सिर्फ घृणा और शत्रुता ही है।" 
    अंबेडकर आगे लिखते हैं कि "मुसलमानों की वफादारी उस देश के लिए नहीं होती, जिसमें वो रहते हैं। बल्कि उनकी वफादारी अपने धर्म के लिए होती है, जिसका कि वो पालन करते हैं।"  
    भारतीय मुसलमानों के अरब प्रेम पर लिखने को बहुत कुछ है, लेकिन पोस्ट लंबा हो जाएगा। इसलिए फिलहाल इतना ही। अगले पोस्ट में मैं आपको बताउंगा कि अरब के मुसलमान हमारे भारतीय मुसलमानों के लिए क्या सोचते हैं।  

प्रखर श्रीवास्तव 


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