नवपाषाण युग |
नवपाषाण काल (Neolithic age) : खाद्य उत्पादक (7000 से 3000 वर्ष पू.)
नवपाषाण काल को जॉन लुबाक ने नवपाषाण संस्कृति की संज्ञा दी है। तथा गॉर्डन चाइल्ड ने भी यह कहा है। इसका कारण यह है कि इस काल में मानव खाद्य संग्राहक से खाद्य उत्पादक की श्रेणी में आ गया था। इस काल में कृषि व पशुपालन का विकास हुआ। कृषि का प्राचीनतम साक्ष्य मेहरगढ (ब्लूचिस्तान, पाकिस्तान) से प्राप्त हुए हैं। इस काल में स्थाई निवास के प्रमाण मिले हैं।
गेहूँ तथा जौ भी इसी काल में मिले हैं तथा खजूर की एक किस्म भी प्राप्त हुई है। कृषि के लिए अपनाई गई सबसे प्राचीन फसल गेहूँ व जौ हैं। पहिए का आविष्कार नवपाषाण काल में हुआ। इस काल से ही पता चलता है कि मनुष्य ने सबसे पहले कुत्ते को पालतू बनाया। कृषि कर्म से अनाज के संग्रह, भोजन की पद्धति हेतु मृदभाण्डों का निर्माण प्रारंभ हुआ। कृषि कार्य के लिए पत्थर के उपकरण अधिक धारदार व सुघङ बनने लगे । उन पर पोलिश भी होने लगी। अनाज के उत्पादन से जीवन में स्थायित्व की प्रवृत्ति आई तथा ग्राम संस्कृति की स्थापना हुई।
नवपाषाण काल के स्थल-
भारत में नवपाषाणयुगीन सभ्यता के तीन प्रमुख क्षेत्र रहे हैं-
१- उत्तर – पश्चिमी क्षेत्र (लगभग 6000 ई.पू.)
२- उत्तर – पूर्वी क्षेत्र (लगभग 5000ई.पू.)
३- दक्षिणी क्षेत्र (लगभग 2500ई.पू.)
१- उत्तर – पश्चिमी क्षेत्र (लगभग 6000 ई.पू.)
२- उत्तर – पूर्वी क्षेत्र (लगभग 5000ई.पू.)
३- दक्षिणी क्षेत्र (लगभग 2500ई.पू.)
ब्लुचिस्तान – मेहरगढ, सरायखोल
कश्मीर – बुर्जहोम, गुफ्कराल
उत्तरप्रदेश – कोल्डीहवा, चौपातीमांडो, महागरा
बिहार – चिरांग
बंगाल – ताराडीह, खेराडीह, पाण्डु,मेघालय, असम, गारोपहाङियाँ
दक्षिणी भारत से – कर्वाटक, मास्की, ब्रह्मगिरी, टेक्कलकोट्टा, संगेनकल्लू
आंध्रप्रदेश – उत्तनूर
तमिलनाडु – पोचमपल्ली
दक्षिणी भारतीय नवपाषाण स्थलों की प्रमुख विशेषता है, गोशाला की प्राप्ति एवं राख के ढेर की प्राप्ति।
कश्मीर – बुर्जहोम, गुफ्कराल
उत्तरप्रदेश – कोल्डीहवा, चौपातीमांडो, महागरा
बिहार – चिरांग
बंगाल – ताराडीह, खेराडीह, पाण्डु,मेघालय, असम, गारोपहाङियाँ
दक्षिणी भारत से – कर्वाटक, मास्की, ब्रह्मगिरी, टेक्कलकोट्टा, संगेनकल्लू
आंध्रप्रदेश – उत्तनूर
तमिलनाडु – पोचमपल्ली
दक्षिणी भारतीय नवपाषाण स्थलों की प्रमुख विशेषता है, गोशाला की प्राप्ति एवं राख के ढेर की प्राप्ति।
★ उत्तर – पश्चिमी क्षेत्र में नवपाषाणयुगीन सभ्यता की प्रमुख विशेषता गेहूं और जौ का उत्पादन, कच्ची ईंटों के आयताकार मकान, बङे पैमाने पर पशुपालन आदि हैं। इसी क्षेत्र में 5000ई.पू. के बाद से मृदभांडों के अवशेष प्राप्त हुए हैं जो भारत में उपलब्ध प्राचीनतम हैं।
★ बुर्जहोम – यहाँ से गर्त्त-आवास, विविध प्रकार के मृदभांड, पत्थर के साथ-साथ हड्डियों के औजार, गेहूं व जौ के अलावा मसूर,अरहर, का उत्पादन, औजारों पर पॉलिश आदि के अवशेष मिले हैं। यहां से मनुष्य की कब्र में कुत्ते को भी साथ दफनाए जाने के साक्ष्य मिले हैं।
★ गुफ्कराल यहाँ से भी गर्त्त – आवास के साक्ष्य मिले हैं।
★ गुफ्कराल यहाँ से भी गर्त्त – आवास के साक्ष्य मिले हैं।
★ विन्ध्य क्षेत्र में बेलन घाटी क्षेत्र औऱ मिर्जापुर में भी नवपाषाण युग के अनेक स्थल मिले हैं।
★ कोल्डीहवा(उ.प्र.)- यहाँ से चावल के प्राचीनतम साक्ष्य मिले हैं। यहां से मृदभांडो के प्राचीनतम साक्ष्य मिले हैं और झोंपङियों के भी साक्ष्य मिले हैं।
नवपाषाण युग के औजार |
चिरांद (बिहार) से सर्वाधिक मात्रा में हड्डी के उपकरण मिले हैं। यहां से टोराकोटा की मानव मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। असम व मेघालय में नवपाषाणयुगीन महत्तवपूर्ण स्थल प्राप्त हुए हैं। इस क्षेत्र से प्राप्त मृदभांड विशिष्ट हैं जिन पर रस्सी से चिह्नित किया गया है और मोती चिपकाएं गए हैं। दक्कन में चंदेली, नेवासा, दैमाबाद, ऐरण, जोखा आदि नवपाषाण स्थल रहे थे । यहां के मानव धातुयुग में प्रवेश कर गए थे। दक्षिण भारत में नागार्जुन, मास्की, पिक्कीहल, ब्रह्मगिरि, हल्लुर आदि प्रमुख बस्तियां थी। जहाँ उत्तर भारत में गेहूँ , जौ एवं चावल के साक्ष्य मिले हैं वहीं दक्षिण भारत में रागी के साक्ष्य मिले हैं ।
विश्व स्तर पर लगभग 9000 वर्ष पूर्व नवपाषाण काल की शुरुआत हो चुकी थी लेकिन भारत में इसकी शुरुआत 7000 ई.पू. में मानी जाती है। दक्षिण भारत में नवपाषाण काल लगभग 1100/1000 वर्ष पूर्व तक चलता रहा। यहाँ नवपाषाण काल के बाद ताम्र पाषाण काल अनुपस्थित है और महापाषाण काल (लौह काल) के साक्ष्य मिलते हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाने वाली एकमात्र नवपाषाणकालीन बसावट 7000 ई.पू. के दौर की है जो पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के मेहगढ में स्थित है। 5000 ई.पू में, प्रारंभिक अवस्था में, इस स्थल के लोग किसी प्रकार के मिट्टी के बर्तनों का उपयोग नहीं करते थे। विंध्य घाटी के उत्तरी ढलानों में भी कुछ नवपाषाणकालीन स्थल पाये जाते हैं जो 5000 ई.पू. के हो सकते हैं। लेकिन दक्षिण भारत में पाई जाने वाली नवपाषाण कालीन बस्तियां 2500 ई.पू. से ज्यादा पुरानी नहीं हैं; दक्षिणी और पूर्वी भारत के कुछ हिस्सों में भी यह स्थल 1000 ई.पू. तक के हो सकते हैं।
इस युग के लोग चमकदार पत्थरों से बने औजारों का उपयोग करते थे। वे मुख्य रूप से पत्थर से बनी कुल्हाड़ियों का उपयोग करते थे जो देश के पहाड़ी ढलानों वाले स्थलों में बड़ी संख्या में पाई गई हैं। लोगों द्वारा इस धारदार औजार का उपयोग कई तरह से किया जाता था, और प्राचीन पुराणों में परशुराम एक ऐसे नायक के रूप में उभरे जिनके हाथों में यह हथियार हुआ करता था। (परशुराम विष्णु के अवतार व शिव के भक्त थे।)
नवपाषाण युग के औजार |
नवपाषाणकालीन निवासियों के द्वारा उपयोग में लाये जाने वाली कुल्हाड़ियों के प्रकार के आधार पर, हमें नवपाषाणकालीन सभ्यता के तीन महत्वपूर्ण क्षेत्र देखने को मिलते हैं-
१- उत्तर-पश्चिमी, २- उत्तर-पूर्वी और ३- दक्षिणी।
१- उत्तर-पश्चिमी नवपाषाणकालीन औजार
उत्तर-पश्चिमी नवपाषाणकालीन औजारों का समूह आयताकार कुल्हाड़ियां, जिनकी धार अर्द्ध-गोलाकार होती थी, को प्रदर्शित करता है। उत्तरपूर्वी समूह चमकदार पत्थरों से बनी ऐसी कुल्हाड़ियाँ दर्शाता है जो आयताकार होने के साथ-साथ उसमें लम्बी छड़ भी होती थी। दक्षिणी समूह ऐसी कुल्हाड़ियों के लिए प्रसिद्ध है जो अण्डाकार होती थीं और जिनके किनारे नुकीले होते थे।
उत्तर पश्चिम में, कश्मीरी नवपाषाण संस्कृति इसकी सिरेमिक बर्तनों, पत्थरों और हड्डियों के विभिन्न प्रकार के औजारों तथा गुफानुमा निवासों के लिए प्रसिद्ध है, और इस दौर में सूक्ष्म पाशाण बिल्कुल नहीं पाये जाते। इसका एक महत्वपूर्ण स्थल बुर्जहोम है जिसका अर्थ होता है ‘जन्म स्थान‘ और यह श्रीनगर से 16 कि.मी. उत्तर-पश्चिम में स्थित है। नवपाषाणकलीन लोग यहां एक झील के किनारे बने गड्ढ़ों मे रहते थे और वे शायद शिकार और मछली मारकर अपना जीवन व्यापन करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि वे कृषि से परिचित थे।
गुफ्कराल जिसका अर्थ होता है ‘कुम्हार की गुफा‘ के लोग, कृषि और पशुपालन दोनों ही व्यवसाय करते थे, यह स्थल श्रीनगर से 41 कि.मी. दक्षिण पश्चिम में है। कश्मीर में नवपाषाणकलीन लोग न केवल चमकीले पत्थरों से बने औजारों का उपयोग करते थे बल्कि यह जानना और भी रोचक होगा कि वे कई ऐसे औजारों और हथियारों का उपयोग करते थे जो हड्डियों से बने होते थे। पटना से 40 कि.मी. पश्चिम में गंगा के उत्तरी तट पर स्थित चिरंद एक मात्र ऐसा स्थल है, जहाँ उल्लेखनीय मात्रा में हड्डियों से बनी चीजें पाई जाती है।
हिरण के सींगों से बने यह औजार उन नवपाषाणकालीन स्थलों पर पाये जाते है, जहाँ वर्षा 100 से.मी. के आसपास होती है। यहाँ पर निवास इसलिए संम्भव हो सका क्योंकि यहाँ चार नदियाँ - गंगा, सोन, घाघरा, और गंडक मिलती है तथा खुली जगह उपलब्ध है। यह स्थल इसलिए उल्लेखनीय है क्योंकि यहां पत्थर के औजार कम मात्रा में पाये जाते हैं।
बुर्जहोम के लोग भद्दे, अपरिष्कृत धूसर बर्तनों का उपयोग करते थे। यह रोचक है कि बुर्जहोम में पालतु कुत्ते उनके मालिकों के साथ कब्र में दफनाये जाते थे। भारत के किसी और क्षेत्र में नवपाषाणकलीन लोगों के बीच यह परम्परा नहीं पाई जाती है। बुर्जहोम का प्रारंभिक समय 2400 ई.पू ज्ञात होता है किंतु चिरंद से प्राप्त हड्ड़ियां 1600 ई.पू. से ज्यादा पुरानी प्रतीत नहीं होती हैं, और सम्भ्वतः वे ताम्र-पत्थर दौर की होनी चाहिए।
२- उत्तर-पूर्वी नवपाषाणकालीन औजार
नवपाषाणकालीन लोगों का दूसरा समूह वह है आसाम घाटी। नवपाषाणकालीन उपकरण भारत के उत्तरपूर्व सीमांत पर स्थित मेघालय की गारो घाटी में पाये गये हैं। इसके अतिरिक्त हमें विंध्य घाटी के उत्तरी ढ़लानों में स्थित मिर्जापुर और इलाहाबाद जिलों में भी बड़ी मात्रा में नवपाषाणकालीन बस्तियों के अवशेष मिलते हैं। अलाहाबाद जिले में स्थित नवपाषाणकालीन स्थल चावल की खेती के लिए प्रसिद्ध हैं जो 6 मिलेनियम ई.पू के हो सकते हैं।
३- दक्षिणी नवपाषाणकालीन औजार
तीसरा क्षेत्र जहाँ नवपाषाणकालीन दक्षिण भारत में गोदावरी नदी के दक्षिण में रहता था। वे सामान्यतः पहाड़ियों के शिखर पर या नदियों के किनारे पठारों पर रहते थे। वे पत्थर की कुल्हाड़ियां और पत्थर से बने धारदार चाकू का इस्तेमाल करते थे। पके हुए मिट्टी के बर्तन यह दर्शाते हैं कि वे बड़ी संख्या में मवेशी भी रखते थे। वे गाय, भैंस, भेढ़ और बकरियां पालते थे। वे पत्थर से बनी चक्की का उपयोग करते थे जो यह दर्शाता है कि वे खाद्य उत्पादन के बारे में जानते थे।
कुछ महत्वपूर्ण नवपाषाणकालीन स्थल जिनकी खुदाई हुई है, उनमें कर्नाटक के मस्की, ब्रहमगिरी, हल्लूर, कोदेकल, संगानाकल्लू, नरसीपुर और टेक्कला कोटा है। आंध्र प्रदेश में पिकलीहार और उतनुर महत्वपूर्ण नवपाषाण स्थल हैं, दक्षिण भारत में नवपाषाणकालीन दौर 2000 ई.पू. से 1000 ई.पू. तक चला।
भारत मे प्रमुख पाषाणयुग के साईट |
पिकलीहाल के नवपाषाणकालीन रहवासी पशुपालक थे। वे मवेशी भेड़, बकरियाँ आदि पालते थे। वे मौसमी शिविर लगाते थे, जिसमें वे मवेशियों का गोबर इकट्ठा करते थे। फिर पूरे मैदान पर आग लगा दी जाती थी जिससे की वह अगले मौसम के लिए सूखकर तैयार हो जाये। कर्नाटक में ब्रहमगिरी, हल्लूर, कोडेकल, पिकलीहाल, संगानाकल्लू, टी.नरसिंपुर, और टेक्कला कोटा, तथा तमिलनाडु में पायमपल्ली जैसे स्थलों की खुदाई में निवास स्थानों के साथ राख के ढेर भी मिले हैं।
नवपाषाणकालीन निवासी प्रारम्भिक कृषक समुदायों में से थे। वे पत्थर से बने कुदालों से मैदानों की खुदाई करते थे और उसके बाद सीमा रेखा बनाने के लिए मध्य आकार के पत्थर गाढ़ देते थे। वे चमकीले पत्थरों के अतिरिक्त सूक्ष्म पत्थर औजारों का भी उपयोग करते थे। वे गोलाकार या आयताकार मकानो में रहते थे जो मिट्टी के बने होते थे। यह माना जाता है कि गोलाकार मकानों मे रहने वाले ये आदिम मानव सामुदायिक सम्पत्ति की अवधारणा को मानते थे। नवपाषाणकालीन ये निवासी स्थायी निवासी के रूप में जीवन जीते थे। वे रागी और कुल्थी का उत्पादन कर लेते थे।
नवपाषाणकालीन निवासी प्रारम्भिक कृषक समुदायों में से थे। वे पत्थर से बने कुदालों से मैदानों की खुदाई करते थे और उसके बाद सीमा रेखा बनाने के लिए मध्य आकार के पत्थर गाढ़ देते थे। वे चमकीले पत्थरों के अतिरिक्त सूक्ष्म पत्थर औजारों का भी उपयोग करते थे। वे गोलाकार या आयताकार मकानो में रहते थे जो मिट्टी के बने होते थे। यह माना जाता है कि गोलाकार मकानों मे रहने वाले ये आदिम मानव सामुदायिक सम्पत्ति की अवधारणा को मानते थे। नवपाषाणकालीन ये निवासी स्थायी निवासी के रूप में जीवन जीते थे। वे रागी और कुल्थी का उत्पादन कर लेते थे।
मेहगढ़ के नवपाषाणकालीन निवासी तुलनात्मक रूप से ज्यादा प्रगत थे। वे गेहूँ और कपास का उत्पादन करते थे और वे मिट्टी और ईट से बने घरों में रहते थे। मेहगढ़ के नवपाषाणकालीन निवासी तुलनात्मक रूप से ज्यादा प्रगत थे। वे गेहूँ और कपास का उत्पादन करते थे और वे मिट्टी और ईट से बने घरों में रहते थे।
नवपाषाणकालीन दौर को कुछ निवासी बस्तियाँ अनाज की खेती और पशुपालन से परिचित हो गई थीं, उन्हें ऐसे बर्तनों की जरूरत होने लगी थी जिसमें वे अपने अनाज को एकत्रित कर सकें। इसके अतिरिक्त उन्हें खाना पकाने आदि के लिए मिट्टी के बर्तनों की आवश्यकता भी होने लगी। इसलिए इस दौर में सबसे पहले मिट्टी के बर्तनों के निर्माण की शुरूआत दिखाई देती है। प्रारंभिक अवस्था में हाथ से बने हुए मिट्टी के बर्तन पाये गये हैं। नवपाषाणकालीन दौर के बाद के निवासी बर्तन बनाने के लिए पहियों का इस्तेमाल करने लगे थे। उनके मिट्टी के बर्तनों में काले, धूसर, पके हुए बर्तन दिखाई देते हैं।
उड़ीसा और छोटा नागपुर की पहाड़ियों में नवपाषाणकलीन कुल्हाड़ी, बसुला, छैनी, हथौड़ी आदि जैसे औजार पाये गये हैं। किंतु मध्यप्रदेश और दक्कन केे उपरी हिस्सों में नवपाषाणकालीन बस्तियों की संख्या कम ही पाई गई है क्योंकि यहां उस प्रकार के पत्थर उपलब्ध नहीं थे, जिनकी पिसाई की जा सके और जिन्हें चमकीला बनाया जा सके।
9000 ई.पू.-3000 ई.पू. तक के कालखण्ड में पश्चिमी एशिया में उल्लेखनीय तकनीकी प्रगति हुई क्योंकि लोगों ने कृषि, सिलाई, बर्तन बनाना, घर निर्माण, पशुपालन आदि की कला सीख ली थी। किंतु भारतीय उपमहाद्वीप में नवपाषाण युग की शुरूआत 6 मिलेनियम ई.पू. ही हो सकी। इस काल खण्ड में कुछ महत्वपूर्ण फसलें जिसमें चावल, गेहूँ और जौ शामिल हैं, की खेती प्रारंभ हो गई थी और संसार के इस भाग में गाँव भी प्रकट होने लगे थे। ऐसा लगता है कि अब लोग सभ्यता की कगार पर खड़े थे।
पाषाणकालीन लोगों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह थी कि वे केवल घाटी क्षेत्रों में ही बस्तियां बसा सकते थे क्योंकि उनके औजार और हथियार केवल पत्थर से बने होते थे। वे अपनी बस्तिया पहाड़ों की ढलानों, गुफाओं और नदी घाटियों में ही बसा सकते थे। इसके अतिरिक्त बहुत परिश्रम करने पर भी वे अपनी आवश्यकता से ज्यादा उत्पादन नहीं कर सकते थे।
★★★★★
Nice ,post
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