सिंधु घाटी सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता (२५०० ईसा पूर्व से १५०० ईसा पूर्व) The Indus valley Civilization

Indus valley
सिंधुघाटी सभ्यता के क्षेत्र
सिंधु घाटी सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता (२५०० ईसा पूर्व से १५०० ईसा पूर्व) The Indus valley Civilization

सिन्धु घाटी सभ्यता का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक था। हड़प्पा  और मोहनजोदड़ो की खुदाई से इस सभ्यता के प्रमाण मिले हैं। अतः विद्वानों ने इसे सिन्धु घाटी की सभ्यता का नाम दिया, क्योंकि यह क्षेत्र सिन्धु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में आते हैं, पर बाद में रोपड़, लोथल, कालीबंगा, वनमाली, रंगापुर आदि क्षेत्रों में भी इस सभ्यता के अवशेष मिले जो सिन्धु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र से बाहर थे। अतः कई इतिहासकार इस सभ्यता का प्रमुख केन्द्र हड़प्पा होने के कारण इस सभ्यता को "हड़प्पा सभ्यता" नाम देना अधिक उचित मानते हैं। भारतीय पुरातत्व विभाग के महानिदेशक जॉन मार्शल ने 1924 में सिन्धु सभ्यता के बारे में तीन महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे।

हड़प्पा सभ्यता को निम्नलिखित नामों से जाना जाता है-
1. हड़प्पा संस्कृतिः इस संस्कृति का सबसे पहले खोजा गया स्थल पंजाब प्रान्त में स्थित हड़प्पा था। इसलिये इस सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता या हड़प्पा संस्कृति कहा जाता है।
2. सिन्धु सभ्यताः इस सभ्यता के प्रारम्भिक स्थल सिन्धु नदी के आसपास ही पाये गये, इसलिए इस सभ्यता को सिन्धु सभ्यता कहा जाने लगा। किन्तु अब इस सभ्यता का क्षेत्र काफी विस्तृत हो गया है।
3. कांस्य युगीन सभ्यताः सैन्धव लोगों ने ही सर्वप्रथम तांबे में टिन मिलाकर कांसा तैयार किया, इसलिए इसे कांस्य युगीन सभ्यता कहा गया।
4. प्रथम नगरीय क्रान्तिः सिन्धु सभ्यता में ही सर्वप्रथम नगरीय क्रान्ति के चिन्ह दृष्टिगोचर होते हैं। अतः इसको प्रथम नगरीय क्रान्ति के नाम से भी जाना जाता है।
5. सिन्डनः सैन्धव लोगों ने ही सर्वप्रथम कपास की फसल उगाई, इसी कारण युनानी इस सभ्यता को सिन्डन (कपास) कहने लगे।

उपर्युक्त सभी नामों से इस सभ्यता को पुकारा जा सकता है। किन्तु सर्वाधिक उपयुक्त नाम “हड़प्पा सभ्यता” ही होगा।
Indus valley: Tericota pot
खुदाई से प्राप्त टेरीकोटा के बर्तन

सिंधु घाटी सभ्यता: 3300 ईसापूर्व से १७०० ईसापूर्व तक, परिपक्व काल: 2600 ई.पू. से 1900 ई.पू.)
विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता है। जो मुख्य रूप से दक्षिण एशिया के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में, जो आज तक उत्तर पूर्व अफगानिस्तान, पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम और उत्तर भारत में फैली है। प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया की प्राचीन सभ्यता के साथ, यह प्राचीन दुनिया की सभ्यताओं के तीन शुरुआती कालक्रमों में से एक थी, और इन तीन में से सबसे व्यापक तथा सबसे चर्चित। सम्मानित पत्रिका “नेचर” में प्रकाशित शोध के अनुसार यह सभ्यता कम से कम 8000 वर्ष पुरानी है। यह हड़प्पा सभ्यता और 'सिंधु-सरस्वती सभ्यता' के नाम से भी जानी जाती है।
इसका विकास सिंधु और घघ्घर/ हकड़ा (प्राचीन सरस्वती) के किनारे हुआ मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा, राखीगढ़ी और हड़प्पा इसके प्रमुख केन्द्र थे। दिसम्बर २०१४ में भिर्दाना को सिंधु घाटी सभ्यता का अब तक का खोजा गया सबसे प्राचीन नगर माना गया है। ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी और ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े हैं।
Place of Hadappa Culture
हड़प्पा संस्कृति के स्थल

7वी शताब्दी में पहली बार जब लोगो ने पंजाब प्रांत में ईटो के लिए मिट्टी की खुदाई की तब उन्हें वहां से बनी बनाई इटे मिली, जिसे लोगो ने भगवान का चमत्कार माना और उनका उपयोग घर बनाने में किया। उसके बाद 1826 में चार्ल्स मैसेन  ने पहली बार इस पुरानी सभ्यता को खोजा। कनिंघम ने 1856 में इस सभ्यता के बारे में सर्वेक्षण किया।

1856 में कराची से लाहौर के मध्य रेलवे लाइन के निर्माण के दौरान बर्टन बंधुओं द्वारा हड़प्पा स्थल की सूचना सरकार को दी। इसी क्रम में 1861 में एलेक्जेंडर कनिंघम के निर्देशन में भारतीय पुरातत्व विभाग की स्थापना की। 1904 में लार्ड कर्जन द्वारा जॉन मार्शल को भारतीय पुरातात्विक विभाग (ASI) का महानिदेशक बनाया गया। फ्लीट ने इस पुरानी सभ्यता के बारे में एक लेख लिखा। १९२१ में दयाराम साहनी  ने हड़प्पा का उत्खनन किया। इस प्रकार इस सभ्यता का नाम हड़प्पा सभ्यता रखा गया व दयाराम साहनी को इसका खोजकर्ता माना गया। यह सभ्यता सिन्धु नदी घाटी में फैली हुई थी इसलिए इसका नाम सिन्धु घाटी सभ्यता रखा गया। प्रथम बार नगरों के उदय के कारण इसे प्रथम नगरीकरण भी कहा जाता है। प्रथम बार कांस्य के प्रयोग के कारण इसे कांस्य सभ्यता भी कहा जाता है।

सिन्धु घाटी सभ्यता के १४०० केन्द्रों को खोजा जा सका है, जिसमें से ९२५ केन्द्र भारत में है। ८० प्रतिशत स्थल सरस्वती नदी और उसकी सहायक नदियों के आस-पास है। अभी तक कुल खोजों में से ३ प्रतिशत स्थलों का ही उत्खनन हो पाया है।

खोजः
सबसे पहले हड़प्पा सभ्यता के विषय में जानकारी 1826 ई0 में चार्ल्स मैसन ने दी। 1852 और 1856 ई0 में जान ब्रिन्टन एवं विलियम ब्रिन्टन नामक इंजीनियर बन्धुओं ने करांची से लाहौर रेलवे लाइन निर्माण के समय यहाँ के पुरातात्विक सामाग्रियों को तत्कालीन पुरातत्व विभाग के प्रमुख कनिंघम से मूल्यांकन करवाया। कनिघंम को भारतीय पुरातत्व विभाग का जनक कहा जाता है। भारतीय पुरातत्व विभाग की स्थापना लार्ड कर्जन के समय में अलिक्जेन्डर कनिंघम ने की थी। जब पुरातत्व विभाग के निर्देंशक जान मार्शल थे तभी दयाराम साहनी ने 1921 ई0 में हड़प्पा स्थल की खोज की। अगले ही वर्ष 1922 ई0 में राखलदास बनर्जी ने इसके दूसरे स्थल मोहनजोदड़ों की खोज की।

काल निर्धारणः
सैन्धव सभ्यता का काल निर्धारण भारतीय पुरातत्व विभाग का विवादग्रस्त विषय है। इतिहासकारों ने इस सभ्यता का काल निर्धारण भिन्न-भिन्न प्रकार से निर्धारित किया है।

कुछ प्रमुख इतिहासकारों द्वारा निर्धारित तिथियां निम्नलिखित हैं-
1. 3250 ई0पू0 से 2750 ई0पू0- इस तिथि का निर्धारण 1931 ई0 में जान मार्शल ने किया।
2. 2350 ई0पू0 से 1750 ई0पू0डी0पी0 अग्रवाल द्वारा निर्धारित यह तिथि कार्बन डेटिंग पर आधारित है।
3. 2800 ई0पू0 से 2500 ई0पू0- इस काल का निर्धारण अर्नेस्ट मैके ने किया।
4. 2500 ई0पू0 से 1500 ई0पू0- यह मार्टिमर ह्वीलर द्वारा निर्धारित तिथि है।
5. 2500 ई0पू0 से 1700 ई0पू0- रेडियो कार्बन-14 (नवीन पद्धति के द्वारा निर्धारित तिथि है। जो वर्तमान में सर्वाधिक मान्य है।

सिन्धु सभ्यता का विस्तारः
इस सभ्यता का क्षेत्र संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं के क्षेत्र से अनेक गुना बड़ा और विशाल था। इस परिपक्व सभ्यता के केन्द्र-स्थल पंजाब तथा सिन्ध में था। तत्पश्चात इसका विस्तार दक्षिण और पूर्व की दिशा में हुआ। इस प्रकार हड़प्पा संस्कृति के अन्तर्गत पंजाब, सिन्ध और बलूचिस्तान के भाग ही नहीं, बल्कि गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमान्त भाग भी थे। इसका फैलाव उत्तर में रहमानढेरी से लेकर दक्षिण में दैमाबाद (महाराष्ट्र) तक और पश्चिम में बलूचिस्तान के मकरान समुद्र तट के सुत्कागेनडोर से लेकर उत्तर पूर्व में मेरठ और कुरुक्षेत्र तक था। प्रारंभिक विस्तार जो प्राप्त था उसमें सम्पूर्ण क्षेत्र त्रिभुजाकार था (उत्तर में जम्मू के माण्डा से लेकर दक्षिण में गुजरात के भोगत्रार तक और पश्चिम में अफगानिस्तान के सुत्कागेनडोर से पूर्व में उत्तर प्रदेश के मेरठ तक था और इसका क्षेत्रफल 12,99,600 वर्ग किलोमीटर था।) इस तरह यह क्षेत्र आधुनिक पाकिस्तान से तो बड़ा है ही, प्राचीन मिस्र  और मेसोपोटामिया से भी बड़ा है। ईसा पूर्व तीसरी और दूसरी सहस्त्राब्दी में संसार भर में किसी भी सभ्यता का क्षेत्र हड़प्पा संस्कृति से बड़ा नहीं था।
Indus valley: civil construction with well planning
हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त नगर निर्माण का विहंगम दृश्य

अब तक भारतीय उपमहाद्वीप में इस संस्कृति के कुल 1000 स्थलों का पता चल चुका है। इनमें से कुछ आरंभिक अवस्था के हैं तो कुछ परिपक्व अवस्था के और कुछ उत्तरवर्ती अवस्था के। परिपक्व अवस्था वाले कम जगह ही हैं। इनमें से आधे दर्जनों को ही नगर की संज्ञा दी जा सकती है। इनमें से दो नगर बहुत ही महत्वपूर्ण हैं - पंजाब का हड़प्पा तथा सिन्ध का मोहेंजोदड़ो (शाब्दिक अर्थ- प्रेतों का टीला)। दोनो ही स्थल वर्तमान पाकिस्तान में हैं। दोनो एक दूसरे से 483 किमी दूर थे और सिंधु नदी द्वारा जुड़े हुए थे। तीसरा नगर मोहेंजोदड़ो से 130 किमी दक्षिण में चन्हुदड़ो स्थल पर था तो चौथा नगर गुजरात के खंभात की खाड़ी के ऊपर लोथल नामक स्थल पर।

इसके अतिरिक्त राजस्थान के उत्तरी भाग में कालीबंगा  (शाब्दिक अर्थ- काले रंग की चूड़ियां) तथा हरियाणा के हिसार जिले का बनावली। इन सभी स्थलों पर परिपक्व तथा उन्नत हड़प्पा संस्कृति के दर्शन होते हैं। सुतकागेंडोर तथा सुरकोतड़ा के समुद्रतटीय नगरों में भी इस संस्कृति की परिपक्व अवस्था दिखाई देती है। इन दोनों की विशेषता है एक एक नगर दुर्ग का होना। उत्तर हड़प्पा अवस्था गुजरात के कठियावाड़ प्रायद्वीप में रंगपुर और रोजड़ी स्थलों पर भी पाई गई है। इस सभ्यता की जानकारी सबसे पहले १८२६ में चार्ल्स मैन को प्राप्त हुई।

सिंधु सभ्यता के प्रमुख नगरः
(1) हड़प्पा:
★ हड़प्पा पंजाब के मांटगोमरी जिले में स्थित है।
★ इसका सर्वप्रथम उल्लेख चार्ल्स मैशन ने किया।
★ जबकि पुरातत्व विभाग के निदेशक जान मार्शल के समय में 1921 में दयाराम साहनी ने इस स्थल की खोज अन्तिम रूप से की।
★ इस स्थल की खोज से माधोस्वरूप वत्स (1926) तथा मर्टिमर  ह्वीलर (1946) भी सम्बन्धित थे।
★ हड़प्पा से प्राप्त दो टीलों में पूर्वी टीलें को “नगर टीले” तथा पश्चिमी टीले को “दुर्ग टीला” के नाम से जाना जाता है।
★ यहाँ पर एक 12 कक्षों वाला अन्नागार प्राप्त हुआ है। ह
★ ड़प्पा के सामान्य आवास क्षेत्र के दक्षिण में एक ऐसा कब्रिस्तान स्थित है जिसे समाधि आर-37 कहा जाता है।
★ यहाँ अभिलेखयुक्त मुहरें भी प्राप्त हुई हैं।

कुछ महत्वपूर्ण अवशेषों में एक बर्तन पर बना मछुआरे का चित्र, शंख का बना बैल, स्त्री से गर्भ से निकलता हुआ पौधा, पीतल का बना इक्का, ईंटों के वृत्ताकार चबूतरे, गेंहू तथा जौ के दाने प्राप्त हुए हैं।
Indus Valley: City construction with planning
सिंधुघाटी: विश्व का सबसे पहला प्लानिंग से बना नगर

(2) मोहनजोदड़ोंः
★ सिन्धु नदी के दायें तट पर सिन्धु प्राप्त के लरकाना जिले में स्थित मोहनजोदड़ों की खोज 1922 ई0 में राखालदास बनर्जी ने किया।
★ सिन्धी भाषा में मोहनजोदड़ों को मृतकों या मुर्दों का टीला कहा जाता है।
★ मोहनजोदड़ों का सबसे महत्वपूर्ण स्थल विशाल स्नानागार है।
★ इस स्नानागार को मार्शल ने तात्कालीन विश्व का आश्चर्य बताया है।
विशाल अन्नागारः- यह मोहनजोदड़ों की सबसे बड़ी इमारत थी।
★ मोहनजोदड़ों के पश्चिम भाग में स्थित दुर्ग टीले को स्तूप टीला कहा जाता है जिसका निर्माण सम्भवतः कुषाण शासकों ने कराया था।

मोहनजोदड़ों से प्राप्त कुछ महत्वपूर्ण अवशेष निम्नलिखित हैं-
महाविद्यालय भवन, सी0पी0 की बनी हुई पटरी, योगी की मूर्ति, काँसे की नृतकी, मुद्रा पर अंकित पशुपति शिव, हाथी का कपाल खण्ड, घोडे़ के दांत एवं गीली मिट्टी के, कपड़े के साक्ष्य मुख्य हैं।  

मोहनजोदड़ों की खुदाई से इसके भवनों से सात स्तर प्रकाश में आये हैं। अन्तिम स्तर पर विखरे हुए नर कंकाल प्राप्त हुये हैं जबकि यहाँ से कोई कब्रिस्तान प्राप्त नहीं हुआ।

(3) चान्हूदड़ोंः
★ सिन्धु नदी के बांये तरफ स्थित जिसकी खोज 1931 में एम0जी0 मजूमदार ने की।
★ यह नगर अन्य नगरों की तरह दुर्गीकृत नहीं था।
★ यहाँ से हड़प्पोत्तर अवस्था की झूकर-झाकर संस्कृति का प्रमाण प्राप्त हुआ है।
★ यहाँ के निवासी मनके, सीप, अस्थि तथा मुद्रा की कारीगरी में बहुत कुशल थे।
★ यहाँ के प्रमुख अवशेषों में अलंकृत हाथी, कुत्ता द्वारा दौड़ाई गयी बिल्ली, लिपिस्टिक, विभिन्न प्रकार के खिलौने प्रमुख हैं।

(4) लोथलः
★ गुजरात के अहमदाबाद जिले में भोगवा नदी के किनारे यह स्थल स्थित है।
★ इसकी खोज एस0आर0 राव ने 1955 ई0 में किया।
★ इस स्थल से कोई पूर्वी टीला नहीं मिला है अर्थात पूरा स्थल एक ही टीले द्वारा घेरा गया था।
★ यहाँ के भवनों के दरवाजे और खिड़कियाँ अन्य स्थलों से विपरीत सड़कों की ओर खुलती थी।

इस स्थल के प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
★ यह स्थल पश्चिम एशिया से व्यापार का प्रमुख बन्दरगाह था।
★ फारस की मुद्रा शील या पक्के रंगों में रंगे पात्रों के अवशेषों से यह पता चलता है कि लोथल एक सामुद्रिक व्यापारिक केन्द्र था।
★ यहाँ से धान और बाजरे का साक्ष्य, फारस की मुहर, घोड़े की लघु मृण्यमूर्ति, तीन युगल समाधि, मुहरें, बाट-माप आदि पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं।

(5) कालीबंगाः
★ कालीबंगा राजस्थान के गंगा नगर जिले में सरस्वती दृश्यद्वती नदियों के किनारे स्थित था।
★ इसकी खोज अमलानन्द घोष ने 1951 में की।
★ यहाँ के पश्चिमी और पूर्वी टीले दोनों अलग-अलग रक्षा प्राचीर से घिरे हुए थे।
★ यहाँ के मकान कच्ची ईंटों से निर्मित हुए थे जबकि नालियों में पक्की ईंटों का प्रयोग मिलता है।
★ जुते हुए खेत, हवनकुण्ड, अलंकृत ईंट, बेलनाकार मुहर, युगल तथा प्रतीकात्मक समाधियां आदि कालीबंगा से प्राप्त  प्रमुख पुरातात्विक साक्ष्य हैं।
★ कालीबंगा में अन्तमष्टि संस्कार हेतु तीन विधियां जिसमें पूर्ण समाधीकरण, आंशिक समाधीकरण एवं दाह संस्कार प्रचलित थी।
★ कालीबंगा से भूकम्प आने से प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
★ यहां से एक ही खेत में एक साथ दो फसलों का उगाया जाना तथा लकड़ी को कुरेद कर नाली बनाना आदि प्रमुख साक्ष्य मिले हैं।

(6) बनवाली:
★ यह स्थल हरियाणा के हिसार जिले में सरस्वती नदी के किनारे स्थित था।
★ इसकी खोज 1974 ई0 में आर0एस0 विष्ट ने की थी।
★ यहाँ पर जल निकासी का अभाव दिखता है।
★ पुरातात्विक साक्ष्यों में मिट्टी के बर्तन, सेलखड़ी की मुहर, हड़प्पा कालीन विशिष्ट लिपि से युक्त मिट्टी की मुहर, फल की आकृति, तिल, सरसों का ढेर, अच्छे किस्म का जौ, मातृ देवी की मृण्ड मूर्ति, तांबे के वावांग, चर्ट के फलक आदि प्रमुख हैं।

(7) धौलावीरा:
★ गुजरात के कच्छ जिले के भचाऊ तहसील में स्थित है।
★ इसकी खोज 1967-68 में जे0पी0 जोशी ने किया।
★ यह नगर आयताकार तथा तीन भागों किला, मध्य नगर, निचला नगर में विभाजित था।
★ धौलावीरा से सैन्धव लिपि के दस ऐसे अक्षर प्रकाश में आये हैं जो काफी बड़े हैं तथा विश्व की प्राचीन अक्षर माला में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।

(8) सुरकोटडा:
★ इसकी खोज जे0पी0 जोशी में 1964 में की। यह स्थल भी गुजरात के कच्छ जिले में स्थित है।
★ अन्य नगरों के विपरीत यह नगर दो दुर्गीकृत भागों गढ़ी तथा आवास क्षेत्र में विभाजित था।
★ यहाँ से घोड़े की हड्डी, एक कब्रिस्तान से शवाधान की नई विधि कलश शवाधान का साक्ष्य प्राप्त होता है।

(9) कोटदीजी:
★ सिन्धु प्रान्त में खैरपुर में स्थित इस स्थल की खोज धु्रवे ने 1935 ई0 में किया।
★ यहाँ के प्रमुख अवशेषों में वाणाग्र, कांस्य की चूडि़यां, धातु के उपकरण तथा हथियार प्रमुख हैं।

(10) देशलपुर:
★ इस स्थल का उत्खनन 1964 ई0 में के0वी0 सौन्दर राजन ने कराया।
★ यहाँ से एक सुरक्षा प्राचीर, मिट्टी तथा जेस्पर के वाट, गाडि़यों के पहिये, छेनी, ताँबे की छूरियां, अँगूठी आदि महत्वपूर्ण अवशेष मिले हैं।

(11) रोजदी:
★ गुजरात के सौराष्ट्र जिले में स्थित सैन्धव कालीन महत्वपूर्ण स्थल हैं।
★ यहाँ से प्राप्त मृदभाण्ड लाल, काले तथा चमकदार हैं।
★ रोजदी से हाथी के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

(12) आलमगीरपुर:
★ उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में स्थित सैंन्धव सभ्यता का सबसे पश्चिमी स्थल है।
★ यहाँ की खुदाई से मृदभाण्ड, रोटी बेलने की चैकी, कटोरे के बहुसंख्यक टुकड़े, सैन्धव लिपि के दो अक्षर, कुछ बर्तनों पर मोर, गिलहरी आदि की चित्रकारियां प्राप्त हुई हैं।

(13) दैमाबाद:
★ महाराष्ट्र के अहमद नगर जिले में प्रवरा नदी के बायें किनारे स्थित सैन्धव सभ्यता का सबसे दक्षिणी स्थल है।
★ यहाँ से मृदभाण्ड, सैंन्धव लिपि की एक मोहर, प्याले, तस्तरी, बर्तनों पर दो सीगों की आकृति, मानव संसाधन आदि के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।    

(14) माण्डी:
★ उत्तर प्रदेश के मुजफ्फर नगर जिले में स्थित हड़प्पा सभ्यता का नवीनतम स्थल है।
★ इस स्थल से सोने के छल्ले, टकसाल गृह आदि के पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं।

(15) कुन्तासी: गुजरात के राजकोट जिले में स्थित है इस स्थल की खुदाई से लम्बी सुराहियां, दोहत्थे कटोरे, मिट्टी की खिलौना गाड़ी, चूडि़यां, अगूंठी आदि अवशेष प्राप्त हुए हैं।

(16) रोपड़: पंजाब के सतलज नदी के तट पर स्थित इस स्थल की खोज 1955-56 में यज्ञदत्त शर्मा ने की। यहाँ से हड़प्पा संस्कृति के पांच स्तरीय क्रम प्राप्त हुए हैं। मानवीय शवाधान या कब्र के नीचे एक कुत्ते का शवाधान प्राप्त हुआ है।

(17) राखीगढ़ी: हरियाणा के जींद जिले में घग्घर नदी के तट पर स्थित इस स्थल की खोज 1969 ई0 में सूरजभान ने किया। राखीगढ़ी को हड़प्पा सभ्यता की प्रान्तीय राजधानी कहा जाता है।

(18) रंगपुरा: यह स्थल अहमदाबाद जिले में स्थित है यहाँ पर 1931 ई0 एम0एस0 वत्स तथा 1953 में एस0आर0 राव ने खुदाई करवायी। यहाँ सैन्धव संस्कृति के उत्तरा अवस्था के दर्शन होते हैं। यहाँ से मातृ देवी तथा मुद्रा का कोई साक्ष्य नहीं मिला है। यहाँ धान की भूसी के ढेर, कच्ची ईंटो के दुर्ग, नालियां, मृदभाण्ड, पत्थर के फलक आदि मिले हैं।

भारत के विभिन्न राज्यो में स्थित के अनुसार
भारत के विभिन्न राज्यों में सिंधु घाटी सभ्यता के निम्न शहर है:-
1- गुजरात
◆ लोथल       ◆ सुरकोटदा    ◆ रंगपुर
◆ रोजदी       ◆ मालवड   ◆ देसलपुर
◆ धोलावीरा   ◆ प्रभाषपाटन    ◆ भगतराव

2- हरियाणा  
◆ राखीगढ़ी      ◆ भिर्दाना   ◆ बनावली
◆ कुणाल         ◆ मीताथल
3- पंजाब
◆ रोपड़ (पंजाब)  ◆ बाड़ा ◆ संघोंल (जिला फतेहगढ़, पंजाब)
4- महाराष्ट्र
★ दायमाबाद
5- धौलपुर
◆ रावण उर्फ़ बड़ागांव    ◆ अम्बखेड़ी ◆हुलास
6- जम्मू कश्मीर  
◆ मांदा    
7- राजस्थान
◆ कालीबंगा          ◆ तरखनवाला डेरा

नगर निर्माण योजना
इस सभ्यता की सबसे विशेष बात थी यहां की विकसित नगर निर्माण योजना। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो दोनो नगरों के अपने दुर्ग थे जहां शासक वर्ग का परिवार रहता था। प्रत्येक नगर में दुर्ग के बाहर एक उससे निम्न स्तर का शहर था, जहां ईंटों के मकानों में सामान्य लोग रहते थे। इन नगर भवनों के बारे में विशेष बात ये थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे। यानि सड़के एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं और नगर अनेक आयताकार खंडों में विभक्त हो जाता था। ये बात सभी सिन्धु बस्तियों पर लागू होती थीं चाहे वे छोटी हों या बड़ी।
Mohan jodado
मोहन जोदड़ो केके भवन निर्माण

हड़प्पा तथा मोहन् जोदड़ो के भवन बड़े होते थे। वहाँ के स्मारक इस बात के प्रमाण हैं कि वहाँ के शासक, मजदूर जुटाने और कर-संग्रह में परम कुशल थे। ईंटों की बड़ी-बड़ी इमारत देख कर सामान्य लोगों को भी यह लगेगा कि ये शासक कितने प्रतापी और प्रतिष्ठावान् थे।

मोहन जोदड़ो का अब तक का सबसे प्रसिद्ध स्थल है, विशाल सार्वजनिक स्नानागार, जिसका जलाशय दुर्ग के टीले में है। यह ईंटो के स्थापत्य का एक सुन्दर उदाहरण है। यह 11.88 मीटर लंबा, 7.01 मीटर चौड़ा और 2.43 मीटर गहरा है। दोनो सिरों पर तल तक जाने की सीढ़ियां लगी हैं। बगल में कपड़े बदलने के कमरे हैं। स्नानागार का फर्श पकी ईंटों का बना है। पास के कमरे में एक बड़ा सा कुंआ है, जिसका पानी निकाल कर होज़ में डाला जाता था। हौज़ के कोने में एक निर्गम (Outlet) है, जिससे पानी बहकर नाले में जाता था। ऐसा माना जाता है कि यह विशाल स्नानागार धर्मानुष्ठान सम्बंधी स्नान के लिए बना होगा जो भारत में पारंपरिक रूप से धार्मिक कार्यों के लिए आवश्यक रहा है।
Bathing place of Mohanjodado
मोहनजोदड़ो: विशाल स्नानागार

मोहन जोदड़ो की सबसे बड़ा संरचना है - अनाज रखने का कोठार, जो 45.71 मीटर लंबा और 15.23 मीटर चौड़ा है। हड़प्पा के दुर्ग में छः कोठार मिले हैं, जो ईंटों के चबूतरे पर दो पांतों में खड़े हैं। हर एक कोठार 15.23 मी. लंबा तथा 6.09 मी. चौड़ा है और नदी के किनारे से कुछ एक मीटर की दूरी पर है। इन बारह इकाईयों का तलक्षेत्र लगभग 838.125 वर्ग मी. है जो लगभग उतना ही होता है जितना मोहन जोदड़ो के कोठार का।

हड़प्पा के कोठारों के दक्षिण में खुला फर्श है और इसपर दो कतारों में ईंट के वृत्ताकार चबूतरे बने हुए हैं। फर्श की दरारों में गेहूँ और जौ के दाने मिले हैं। इससे प्रतीत होता है कि इन चबूतरों पर फ़सल की दवनी होती थी। हड़प्पा में दो कमरों वाले बैरक भी मिले हैं जो शायद मजदूरों के रहने के लिए बने थे। कालीबंगां में भी नगर के दक्षिण भाग में ईंटों के चबूतरे बने हैं जो शायद कोठारों के लिए बने होंगे। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि कोठार हड़प्पा संस्कृति के अभिन्न अंग थे।

हड़प्पा संस्कृति के नगरों में ईंट का इस्तेमाल एक विशेष बात है, क्योंकि इसी समय के मिस्र के भवनों में धूप में सूखी ईंट का ही प्रयोग हुआ था। समकालीन मेसोपेटामिया में पक्की ईंटों का प्रयोग मिलता तो है पर इतने बड़े पैमाने पर नहीं जितना सिन्धु घाटी सभ्यता में। मोहन जोदड़ो की जल निकास प्रणाली अद्भुत थी। लगभग हर नगर के हर छोटे या बड़े मकान में प्रांगण और स्नानागार होता था। कालीबंगां के अनेक घरों में अपने-अपने कुएं थे। घरों का पानी बहकर सड़कों तक आता जहां इनके नीचे मोरियां (नालियां) बनी थीं। अक्सर ये मोरियां ईंटों और पत्थर की सिल्लियों से ढकीं होती थीं। सड़कों की इन मोरियों में नरमोखे भी बने होते थे। सड़कों और मोरियों के अवशेष बनावली में भी मिले हैं।
Civilization of Indus valley
मोहनजोदड़ो का विशाल सुव्यवस्थित नगर निर्माण

आर्थिक जीवन
★ सिंधु सभ्यता की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी,

★ किंतु व्यापार एव पशुपालन भी प्रचलन में था।

कृषि एवं पशुपालन
आज के मुकाबले सिन्धु प्रदेश पूर्व में बहुत उपजाऊ था। ईसा-पूर्व चौथी सदी में सिकन्दर के एक इतिहासकार ने कहा था कि “सिन्ध इस देश के उपजाऊ क्षेत्रों में गिना जाता था।” पूर्व काल में प्राकृतिक वनस्पति बहुत थीं जिसके कारण यहां अच्छी वर्षा होती थी। यहां के वनों से ईंटे पकाने और इमारत बनाने के लिए लकड़ी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल में लाई गई जिसके कारण धीरे धीरे वनों का विस्तार सिमटता गया। सिन्धु की उर्वरता का एक कारण सिन्धु नदी से प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ भी थी। गाँव की रक्षा के लिए खड़ी पकी ईंट की दीवार इंगित करती है, बाढ़ हर साल आती थी। यहां के लोग बाढ़ के उतर जाने के बाद नवंबर के महीने में बाढ़ वाले मैदानों में बीज बो देते थे और अगली बाढ़ के आने से पहले अप्रैल के महीने में गेहूँ और जौ की फ़सल काट लेते थे। यहाँ कोई फावड़ा या फाल तो नहीं मिला है लेकिन कालीबंगां की प्राक्-हड़प्पा सभ्यता के जो कूँट (हलरेखा) मिले हैं उनसे आभास होता है कि राजस्थान में इस काल में हल जोते जाते थे।

सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग गेंहू, जौ, राई, मटर, ज्वार आदि अनाज पैदा करते थे। वे दो किस्म की गेँहू पैदा करते थे। बनावली में मिला जौ उन्नत किस्म का है। इसके अलावा वे तिल और सरसों भी उपजाते थे। सबसे पहले कपास भी यहीं पैदा की गई। इसी के नाम पर यूनान के लोग इस सिन्डन (Sindon) कहने लगे। हड़प्पा यो तो एक कृषि प्रधान संस्कृति थी, पर यहां के लोग पशुपालन भी करते थे। बैल-गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सूअर पाला जाता था। हड़प्पाई लोगों को हाथी तथा गैंडे का ज्ञान था।

उद्योग-धंधे:
यहाँ के नगरों में अनेक व्यवसाय-धन्धे प्रचलित थे। मिट्टी के बर्तन बनाने में ये लोग बहुत कुशल थे। मिट्टी के बर्तनों पर काले रंग से भिन्न-भिन्न प्रकार के चित्र बनाये जाते थे। कपड़ा बनाने का व्यवसाय उन्नत अवस्था में था। उसका विदेशों में भी निर्यात होता था। जौहरी का काम भी उन्नत अवस्था में था। मनके और ताबीज बनाने का कार्य भी लोकप्रिय था,अभी तक लोहे की कोई वस्तु नहीं मिली है। अतः सिद्ध होता है कि इन्हें लोहे का ज्ञान नहीं था।

व्यापार:
यहां के लोग आपस में पत्थर, धातु शल्क (हड्डी) आदि का व्यापार करते थे। एक बड़े भूभाग में ढेर सारी सील (मृन्मुद्रा), एकरूप लिपि और मानकीकृत माप तौल के प्रमाण मिले हैं। वे चक्के से परिचित थे और संभवतः आजकल के इक्के (रथ) जैसा कोई वाहन प्रयोग करते थे। ये अफ़ग़ानिस्तान और ईरान (फ़ारस) से व्यापार करते थे। उन्होंने उत्तरी अफ़गानिस्तान में एक वाणिज्यिक उपनिवेश स्थापित किया जिससे उन्हें व्यापार में सहूलियत होती थी। बहुत सी हड़प्पाई सील मेसोपोटामिया में मिली हैं जिनसे लगता है कि मेसोपोटामिया से भी उनका व्यापार सम्बंध था। मेसोपोटामिया के अभिलेखों में मेलुहा के साथ व्यापार के प्रमाण मिले हैं साथ ही दो मध्यवर्ती व्यापार केन्द्रों का भी उल्लेख मिलता है - दलमुन और माकन। दिलमुन की पहचान शायद फ़ारस की खाड़ी के बहरीन के की जा सकती है।

राजनैतिक जीवन
इतना तो स्पष्ट है कि हड़प्पा की विकसित नगर निर्माण प्रणाली, विशाल सार्वजनिक स्नानागारों का अस्तित्व और विदेशों से व्यापारिक संबंध किसी बड़ी राजनैतिक सत्ता के बिना नहीं हुआ होगा पर इसके पुख्ता प्रमाण नहीं मिले हैं कि यहां के शासक कैसे थे और शासन प्रणाली का स्वरूप क्या था। लेकिन नगर व्यवस्था को देखकर लगता है कि कोई नगर निगम जैसी स्थानीय स्वशासन वाली संस्था थी।

धार्मिक जीवन   
हड़प्पा में पकी मिट्टी की स्त्री मूर्तिकाएं भारी संख्या में मिली हैं। एक मूर्ति में स्त्री के गर्भ से निकलता एक पौधा दिखाया गया है। विद्वानों के मत में यह पृथ्वी देवी की प्रतिमा है और इसका निकट संबंध पौधों के जन्म और वृद्धि से रहा होगा। इसलिए मालूम होता है कि यहां के लोग धरती को उर्वरता की देवी समझते थे और इसकी पूजा उसी तरह करते थे जिस तरह मिस्र के लोग नील नदी की देवी आइसिस् की। लेकिन प्राचीन मिस्र की तरह यहां का समाज भी मातृ प्रधान था कि नहीं यह कहना मुश्किल है। कुछ वैदिक सूक्तों में पृथ्वी माता की स्तुति है, धोलावीरा के दुर्ग में एक कुआँ मिला है इसमें नीचे की तरफ जाती सीढ़ियाँ है और उसमें एक खिड़की थी जहा दीपक जलाने के सबूत मिलते है। उस कुएँ में सरस्वती नदी का पानी आता था, तो शायद सिंधु घाटी के लोग उस कुएँ के जरिये सरस्वती की पूजा करते थे।
Swastik stamp Indus valley
खुदाई से प्राप्त स्वस्तिक चिन्ह का स्टैम्प (छापा)

सिंधु घाटी सभ्यता के नगरों में एक सील पाया जाता है जिसमें एक योगी का चित्र है 3 या 4 मुख वाला, कई विद्वान मानते है कि यह योगी शिव है। मेवाड़ जो कभी सिंधु घाटी सभ्यता की सीमा में था वहाँ आज भी 4 मुख वाले शिव के अवतार एकलिंगनाथ जी की पूजा होती है। सिंधु घाटी सभ्यता के लोग अपने शवों को जलाया करते थे। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा जैसे नगरों की आबादी करीब 50 हज़ार थी, पर फिर भी वहाँ से केवल 100 के आसपास ही कब्रे मिली है जो इस बात की और इशारा करता है वे शव जलाते थे। लोथल, कालीबंगा आदि जगहों पर हवन कुंड मिले है, जो की उनके वैदिक होने का प्रमाण है। यहाँ स्वास्तिक के चित्र भी मिले है।

कुछ विद्वान मानते है कि हिंदू धर्म, द्रविड़ो का मूल धर्म था और शिव द्रविड़ो के देवता थे, जिन्हें आर्यों ने अपना लिया। कुछ जैन और बौद्ध विद्वान यह भी मानते है कि सिंधु घाटी सभ्यता जैन या बौद्ध धर्म के थे, पर मुख्यधारा के इतिहासकारों ने यह बात नकार दी और इसके अधिक प्रमाण भी नहीं है।

प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया में पुरातत्वविदों को कई मंदिरों के अवशेष मिले है, पर सिंंधु घाटी में आज तक कोई मंदिर नहीं मिला, मार्शल आदि कई इतिहासकार मानते है कि सिंधु घाटी के लोग अपने घरो में, खेतो में या नदी किनारे पूजा किया करते थे, पर अभी तक केवल बृहत्स्नानागार या विशाल स्नानघर ही एक ऐसा स्मारक है जिसे पूजास्थल माना गया है। जैसे आज हिंदू गंगा में नहाने जाते है वैसे ही सैन्धव लोग यहाँ नहाकर पवित्र हुआ करते थे।

शिल्प और तकनीकी ज्ञान
यद्यपि इस युग के लोग पत्थरों के बहुत सारे औजार तथा उपकरण प्रयोग करते थे, पर वे कांसे के निर्माण से भली भांति परिचित थे। तांबे तथा टिन मिलाकर धातुशिल्पी कांस्य का निर्माण करते थे। हालांकि यहां दोनो में से कोई भी खनिज प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं था। सूती कपड़े भी बुने जाते थे। लोग नाव भी बनाते थे। मुद्रा निर्माण, मूर्ति का निर्माण के सात बरतन बनाना भी प्रमुख शिल्प था।

प्राचीन मेसोपोटामिया की तरह यहां के लोगों ने भी लेखन कला का आविष्कार किया था। हड़प्पाई लिपि का पहला नमूना 1853 ईस्वी में मिला था और 1923 में पूरी लिपि प्रकाश में आई, परन्तु अब तक पढ़ी नहीं जा सकी है। लिपि का ज्ञान हो जाने के कारण निजी सम्पत्ति का लेखा-जोखा आसान हो गया। व्यापार के लिए उन्हें माप तौल की आवश्यकता हुई और उन्होनें इसका प्रयोग भी किया। बाट के तरह की कई वस्तुएँ मिली हैं। उनसे पता चलता है कि तौल में 16 या उसके आवर्तकों (जैसे - 16, 32, 48, 64, 160, 320, 640, 1280 इत्यादि) का उपयोग होता था।

दिलचस्प बात ये है कि आधुनिक काल तक भारत में 1 रुपया 16 आने का होता था। 1 किलो में 4 पाव होते थे और हर पाव में 4 कनवां यानि एक किलो में कुल 16 कनवां

अवसान (The expiration)

यह सभ्यता मुख्यतः 2500 ई.पू. से 1800 ई. पू. तक रही। ऐसा आभास होता है कि यह सभ्यता अपने अंतिम चरण में ह्रासोन्मुख थी। इस समय मकानों में पुरानी ईंटों के प्रयोग की जानकारी मिलती है। इसके विनाश के कारणों पर विद्वान सहमत नहीं हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के अवसान के पीछे विभिन्न तर्क दिये जाते हैं जैसे: आक्रमण, जलवायु परिवर्तन एवं पारिस्थितिक असंतुलन, बाढ तथा भू-तात्विक परिवर्तन, महामारी, आर्थिक कारण।

ऐसा लगता है कि इस सभ्यता के पतन का कोई एक कारण नहीं था, बल्कि विभिन्न कारणों के मेल से ऐसा हुआ। जो अलग-अलग समय में या एक साथ होने कि सम्भावना है। मोहेन्जो दरो में नग‍र और जल निकास कि व्यवस्था से महामारी कि सम्भावना कम लगती है। भीषण अग्निकान्ड के भी प्रमाण प्राप्त हुए है। मोहेन्जोदरो के एक कमरे से १४ नर कंकाल मिले है जो आक्रमण, आगजनी, महामारी के संकेत है।

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