अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी में जिन्ना की तस्वीर और इतिहास!

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी


अजीब बात है, कोई राजनीतिक पर्यटक अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी की तरफ झांक तक नहीं रहा है। वहां जाना तो दूर, कोई बयान तक नहीं आया, ट्वीट भी नहीं। जबकि भारत के टुकड़े-टुकड़े करने वाले बाबा-ए-क़ौम की तस्वीर को लेकर युनिवर्सिटी जल रहा है, गोलियां चल रही है, लाठियां बरस रही हैं, छात्र घायल हैं, तनाव का माहौल है। फिर भी न तो राहुल गांधी, न ही केजरीवाल, न ही समाजवादी पार्टी का कोई नेता, न मायावती और तो और किसी वामपंथी नेता भी बयान नहीं दिया। तथाकथित सेकुलर नेताओं की मुस्लिम छात्रों के प्रति इतनी बेरुखी ? आखिर राज़ क्या है?

इसे समझने के पहले, जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी की घटना को याद करना जरूरी है!
वहां भारत तेरे टुकड़े-टुकड़े का नारा देने वालों के पर न तो लाठियां चली, न आंसू गैस छोड़े गए, न कोई घायल हुआ था, न ही फायरिंग हुई थी! फिर भी राजनीतिक पर्यटकों की बाढ़ आ गई थी। जबकि जेएनयू के छात्रों का अपराध और भी जघन्य था। वहां तो एक आतंकवादी की बरसी मनाने वाले और भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह चीखने वाले लोग थे। वहां तो कश्मीर को भारत से छीन कर आजादी मांगने वाले लोग थे। फिर भी वहां राहुल गांधी और विपक्ष के दूसरे नेताओं ने इन देशद्रोहियों का साथ दिया था।

अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी का मामला बहुत ही साफ है
विश्वविद्यालय के छात्रसंघ भवन में मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर लगी है। इस यूनिवर्सिटी की स्थापना वर्ष 1920 में हुई थी। उस समय से छात्रसंघ मौजूद है। भारत-पाकिस्तान विभाजन से पहले मोहम्मद अली जिन्ना एएमयू आया करते थे। उन्हें छात्रसंघ ने मानद सदस्यता दी थी। छात्रसंघ ने जिन लोगों को मानद सदस्यता दी है, उनकी तस्वीरें छात्रसंघ भवन में लगी हुई है। लेकिन स्थानीय सांसद सतीश कुमार गौतम को इस तस्वीर के बारे में पता चला तो उन्होंने वीसी को चिट्ठी लिख कर सिर्फ ये पूछा कि आखिर जिन्ना की तस्वीर लगाने की जरूरत क्या है? युनिवर्सिटी की तरफ से दलील दी गई कि छात्रसंघ एक स्वतंत्र संगठन है, इसलिए एएमयू इंतजामिया इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता है। ये दलील ही मूर्खता नहीं है बल्कि विश्वयविद्यालय की मानसिकता का परिचायक है। अगर कल छात्रसंघ की तरफ से वहां हाफिज सईद या ओसामा बिन लादेन की तस्वीर लगा दे तो क्या युनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन की यही दलील होगी? दरअसल, ये लोग चाहते ही नहीं है कि तस्वीर हटाई जाए।

लेकिन जो दलील युनिवर्सिटी के छात्रसंघ के नेता दे रहे हैं वो वाकई शर्मनाक है
छात्रसंघ के अध्यक्ष का कहना है कि जो योगदान जवाहरलाल नेहरू जैसे लोगों का आजादी की लड़ाई में है वही योगदान मोहम्मद अली जिन्ना का भी है। ये सुनकर हैरानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि यही देश के सेकुलर-गैंग ने अपने छात्रों को सिखाया है। इस मंदबुद्धि को पता नहीं है कि अगर हिंदुस्तान के लीडर्स जिन्ना जैसे होते तो न इस शहर का नाम अलीगढ़ होता और न ही ये अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी बचता। लेकिन इसमें इसका दोष नहीं है क्योंकि ये जेहनियत का मामला है। इसे बचपन से यही बताया गया है कि जिन्ना बाबा-ए-कौम है।

अलीगढ़ युनिवर्सिटी में जिन्ना की तस्वीर लगने की एक और वजह है
इस युनिवर्सिटी का इतिहास. जिन्ना के नेतृत्व में जब 1940 में मुसलमान पाकिस्तान के लिए आंदोलन कर रहे थे..! तब अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी इस आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। ये एक एतिहासिक सत्य है जिसे कोई नकार नहीं सकता है। जिन्ना यहां 1940 पहले कभी नहीं आए, लेकिन पाकिस्तान रेजोलुशन के बाद वो हर साल यहां आना शुरु कर दिया। वो यहां पाकिस्तान आंदोलन के लिए कार्यकर्ता की तलाश में आते थे। विश्वविद्यालय की तरफ से छात्रों को बाकायदा पाकिस्तान आंदोलन में शामिल होने को कहा जाता था। जिन्ना के अलावा मुस्लिम लीग का कोई न कोई बड़ा नेता यहां प्रवास किया करता था। लियाकत अली खान अक्सर यहां छात्रों से मिला करते थे। याद रखने वाली बात ये है कि पाकिस्तान की मांग करने वाले पंजाब, सिंध या नार्थ वेस्ट फ्रंटियर के लोग नहीं थे। उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमानों ने पाकिस्तान बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई। यही वजह है कि पाकिस्तान आंदोलन के ज्यादातर नेता का वास्ता अलीगढ़ युनिवर्सिटी से रहा। पाकिस्तान के अखबारों को पढ़ने से पता चलता है कि आज भी पाकिस्तानी विश्लेषक पाकिस्तान के बनने में एएमयू के रोल को बड़ा अहम मानते हैं।

मुस्लिम लीग के नेता अलीगढ़ किसी पिकनिक पर नहीं आते थे
वो यहां पढ़े लिखे मुसलमानों को आंदोलन का हिस्सा बनाने आया करते थे। आजादी के बाद पाकिस्तान के ज्यादातर मुख्य पदों पर आसीन होने वाले लोगों का रिश्ता अलीगढ़ से रहा। पाकिस्तान के लिए अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी का प्रेम न सिर्फ गहरा है बल्कि काफी पुराना है। यही वजह है आज भी मैच में पाकिस्तान के जीतने के बाद यहां खुलेआम जश्न मनाया जाता है। मेरे कहने का मतलब ये कतई नहीं है कि 1940 से अब तक जितने लोगों ने अलीगढ़ में पढ़ाई की वो सब पाकिस्तान के समर्थक हैं। यहां हमेशा से मुसमलानों का एक धरा ऐसा रहा है जो पाकिस्तान के खिलाफ रहा। ठीक उसी तरह जिस तरह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे वामपंथियों के गढ़ में विद्यार्थी परिषद के लोग रहते हैं। अलीगढ़ से पढ़कर पाकिस्तान में बड़े बड़े ओहदे पर बैठने वाले लोग इस विश्वविद्यालय के बारे जो हकीकत बताते हैं उससे वामपंथी इतिहासकारों की पोल खुल जाती है।

अलीगढ़ में जिन्ना की तस्वीर इसलिए भी है क्योंकि दुनिया भर में हो रहे बदलाव की वजह से हिंदुस्तान का मुस्लिम समाज पहले से ज्यादा कट्टर होता जा रहा है। आधुनिक विचारों को छोड़ रूढ़िवादी विचारों को तरजीह दिया जा रहा है। मोदी सरकार के आने के बाद तो इसमें और ज्यादा तेजी आई है। इनके इगो को ठेंस पहुंची है। इसलिए ये अब रिएक्शनरी बन चुके हैं। यही वजह है कि जब जिन्ना की तस्वीर का मामला उठा तो छात्रसंघ के उपाध्यक्ष एक गुंडे की भांति लाठी लेकर सड़क पर उतर आया। जैसे कि किसी ने मुस्लिम समाज के पहचान पर ही सवाल खड़ा कर दिया हो। जिन्ना की तस्वीर का मामला मुसलमानों के लिए इतिहास, पहचान और इगो का मामला बन गया है। हैरानी की बात ये है कि विपक्षी पार्टियां इस मुद्दे के असर को भलीभांति जानते हैं इसलिए निर्लल्ज की तरह मौन बैठे हैं। वोट की खातिर ये लोग इस सवाल का भी जवाब नहीं देगें की अलीगढ़ युनिवर्सिटी में जिन्ना की तस्वीर होनी चाहिए कि नहीं? राजनीति में ये बेइमानी की पराकाष्ठा है।

सार्वजनिक रुप से विपक्षी पार्टियां कुछ नहीं बोलेंगी..
लेकिन कांग्रेस-वामपंथी एक्सपर्ट्स ने इस मामले को स्पिन देने की कोशिश कर रहे हैं। इनका मानना है कि अगर संसद में सावरकर की तस्वीर लग सकती है तो अलीगढ़ में जिन्ना की तस्वीर क्यों नहीं लग सकती? टीवी चैनलों में मुस्लिम स्कॉलर्स ये मांग करते दिखे कि पहले संसद से सावरकर की तस्वीर हटाओ फिर हम एएमयू से जिन्ना की तस्वीर हटा लेंगे। ये तर्क पूरी तरह से मूर्खतापूर्ण और कुंठित है। इनकी दलील है कि दोनो ‘टू नेशन थ्योरी’ के समर्थक थे। दरअसल, ये वामपंथियों द्वारा फैलाया गया सफेद झूठ है, प्रोपेगैंडा है। जो लोग वामपंथियों के इस झूठ को ब्रह्मसत्य मानते हैं उन्हें डा. भीमराव अंबेदकर की किताब – Pakistan or Partition of India के तीसरे पार्ट को पढ़ना चाहिए, इनका दिमागी फितूर खत्म हो जाएगा।

सावरकर और जिन्ना के विचारों में सबसे बड़ा फर्क ये है कि जिन्ना देश को बांटने के पक्षधर थे जबकि सावरकर विभाजन के सबसे बड़े विरोधी। दूसरी बात ये कि मुस्लिम लीग ने तो 1940 में ये प्रस्ताव पास किया था कि उन्हें अलग देश चाहिए। अगर हिंदू महासभा ने कभी भारत का विभाजन कर हिंदू राष्ट्र का कोई प्रस्ताव पास किया हो तो इन्हें बताना चाहिए। अगर सावरकर ने देश के विभाजन का कोई प्लान दिया हो तब तो जिन्ना से तुलना की जा सकती है, अगर नहीं तो इन हाफ-मुस्लिम हाफ-सेकुलर जमात को चुप रहना चाहिए। जहां तक बात लालकृष्ण आडवाणी की है तो उन्हें जिन्ना के बारे में एक पाकिस्तान प्रेमी- पूर्व वामपंथी सुधींद्र कुलकर्णी ने बरगला दिया था। जिन्ना के बारे में दिए बयान के लिए आडवानी को सजा मिली। इसके बाद कुलकर्णी से आडवाणी ने भी तौबा कर लिया।

इसमें दो राय नहीं है कि हिंदुस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना के लिए कोई स्थान नहीं है। इस व्यक्ति के हाथ दुनिया के सबसे बड़े नरंसहार के खून से सना है। ये किसी ओसामा बिन लादेन से कम नहीं है। विडंबना ये है कि एएमयू के नेता जिन्ना को नेहरू जैसा बताते है फिर भी कांग्रेस पार्टी बेशर्म होकर चुपचाप बैठी है। ये मामला अभी सिर्फ उठा है..! देश में विपक्षी पार्टियों का जो रवैया है उससे साफ लगता है कि अलीगढ़ से जिन्ना की तस्वीर हटाने में योगी-मोदी सरकार को काफी पापड़ बेलने पड़ेंगे। लेकिन जनभावना यही है कि चाहे युनिवर्सिटी बंद करना पड़ जाए..! जिन्ना की तस्वीर हटनी चाहिए।

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