गुंजन अग्रवाल:
विगत कई महानों से इस विषय पर लिखने की सोच रहा था। आज ‘एनिमेशन’ एक उभरता हुआ उद्योग है। इसने विभिन्न क्षेत्रों, जैसे— ई-शिक्षा, चिकित्सा, मैकेनिकल जानकारी, वास्तुकला-दृश्य, वेब-डिजाइनिंग और मनोरंजन (टीवी-प्रसारण, एनिमेटेड फ़िल्में, कार्टून, कंप्यूटर-गेम), आदि में पैर पसार लिए हैं। इनमें से ज्यादातर एनिमेशन, कंप्यूटर की सहायता से किया जा रहा है और कंप्यूटर-ग्राफिक्स का इस्तेमाल करके एनिमेटेड छवियाँ उत्पन्न की जाती हैं। इनमें भी एनिमेशन-फ़िल्में मुझे काफ़ी पसन्द हैं। पहले केवल बच्चे ऐसी फ़िल्में देखते थे, पर अब सभी उम्र के भारतीय दर्शक ऐसी फ़िल्में पसन्द कर रहे हैं और इसकी लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इसी लोकप्रियता ने इस क्षेत्र में निवेश के लिए प्रोडक्शन हाउस स्थापित करने के लिए प्रेरित किया है।
इतिहास के पन्ने उलटें, तो पता चलता है कि अमेरिकी तकनीकी सहयोग मिशन के तहत देश की पहली एनिमेशन स्टूडियो को स्थापित करने और भारतीय एनिमेटरों को प्रशिक्षित करने के लिए, फ़िल्म्स डिवीजन ऑफ़ इण्डिया ने ‘वाल्ट डिज़नी स्टूडियो’ के एनिमेटर, भारतीय मूल के श्री क्लेयर वीक (1911-1996) को आमंत्रित किया था। वीक द्वारा प्रशिक्षित भारतीय एनिमेटर के मुख्य समूह ने 1957 में विजया मुळे (1921-) के निर्देशन में ‘द बनयान डियर’, और 1974 में ‘एक अनेक और एकता’ (एकता के मूल्यों पर आधारित लघु शैक्षिक फ़िल्म) बनाई, जो फ़िल्म डिवीज़न ऑफ़ इण्डिया द्वारा निर्मित एनिमेटेड फ़िल्मों में मील का पत्थर थी। इस फ़िल्म का डिजाइन, एमिनेशन और निर्माण भीमसेन खुराना (1936-) ने किया था जो ‘भारतीय एनिमेशन के पिता’ माने जाते हैं।
यह फ़िल्म दूरदर्शन पर प्रसारित हुई और बच्चों के बीच बेहद लोकप्रिय हुई। इस फ़िल्म ने सर्वश्रेष्ठ शैक्षिक फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार जीता था। मैंने सन् 90 के दशक में दूरदर्शन पर सोनी के अपने पुराने ब्लैक एण्ड ह्वाइट टेलीविजन पर इसे कई बार देखा था। आज भी इस फ़िल्म को बड़े चाव से देखा जाता है।
ऐसा नहीं है कि ‘द बनयान डियर’ से पहले भारत में एनिमेशन फ़िल्म ही नहीं बनी थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि भारतीय सिनेमा के पिता दादा साहिब फाळके (1870-1944) ने ही सर्वप्रथम इसकी शुरूआत की थी। 1915 में उन्होंने ‘अगकाद्यांची मौज़’ नाम से एक शॉर्ट एनिमेशन-फ़िल्म बनाकर इस क्षेत्र में कदम रख दिया था। कहा जाता है कि श्री फाळके को कार्टून और वृत्तचित्रों के निर्माण-जैसे काम करने के लिए मज़बूर किया गया था; क्योंकि यूरोप में युद्ध के दौरान फ़िल्म सहित आयातों को कम कर दिया था। दुर्भाग्यवश, फाळके द्वारा निर्मित एनिमेटेड कार्य, जैसे— ‘अगकाद्यांची मौज़’ और ‘विचित्र शिल्प’ समय के विनाश से नहीं बच सके।
गुनमॉय बनर्जी ने साढ़े तीन मिनट की पहली ब्लैक एण्ड ह्वाइट एनिमेशन-फ़िल्म ‘द पी ब्रदर्श’ बनाई थी। यह सिनेमाघर में दिखाई गई पहली एनिमेटेड फ़िल्म थी, जो 1934 में कलकत्ता में सिनेमाघर में दिखाई गयी। उसी वर्ष पूना की प्रभात फ़िल्म कम्पनी ने ‘जम्बू काका’ नामक एनिमेशन फ़िल्म बनाई थी। इस अवधि की अन्य शॉर्ट एनिमेशन-फ़िल्में हैं: कोलापुर सिनेटून्स’ द्वारा निर्मित ‘बाकम भट्ट’, मोहन भवानी द्वारा निर्देशित ‘लफंगा लंगूर’ (1935), जी.के. गोखळे द्वारा निर्देशित ‘सुपरमैन्स मिथ’ (1939), मन्दार मलिक द्वारा निर्देशित ‘आकाश-पाताल’ (1939), इत्यादि। पर ये फ़िल्में चर्चा का विषय न बन सकीं। वर्ष 1986 में प्रसारित पहली भारतीय एनिमेटेड टेलीविजन शृंखला, सुधासात्व बसु द्वारा निर्देशित ‘घायब आया’ थी।
सन् 1992 में जापान के सहयोग से ‘रामायण : द लेजेण्ड ऑफ़ प्रिंस राम’ निर्मित हुई, जिसे शताधिक बार देखने पर भी मुझे तृप्ति अनुभव नहीं होती है। इस फ़िल्म के दृश्य और संवाद इतने धीर-गम्भीर और सजीव हैं कि आँखों से हटते नहीं हैं। इस फ़िल्म के सैकड़ों संवाद मुझे कण्ठस्थ हो गए हैं। इस फ़िल्म में श्री अरुण गोविल (1958-) ने राम और श्री अमरीश पुरी (1932-2005) ने रावण की आवाज़ दी थी। इस फ़िल्म ने 2000 में सं.रा. अमेरिका के सांता क्लारिया इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में ‘बेस्ट एनिमेशन फ़िल्म’ का पुरस्कार जीता था।
पहली भारतीय थ्री-डी कंप्यूटर एनिमेटेड फिल्म, उमा गणेश राजा द्वारा निर्देशित ‘पाण्डव : द फाइव वॉरियर्स’, वर्ष 2000 में रिलीज़ हुई थी। इसके बाद तो एनिमेशन-फ़िल्मों की मानो झड़ी ही लग गयी। वर्ष 2003 में कार्टून नेटवर्क पर अंग्रेजी और हिंदी-भाषाओं में तेनालीराम के जीवन और कहानियों पर आधारित ‘द एडवेंचर्स ऑफ़ तेनालीराम’ नाम से एनिमेटेड शृंखला प्रसारित हुई। यह भारत की पहली एनिमेटेड टेलीविजन-शृंखला है। यह ‘टूंज एमिनेशन स्टूडियो’ द्वारा निर्मित किया गया था। इसके तमिळ और कन्नड़-संस्करण भी प्रसारित किए गये। इसे बच्चों ने काफ़ी सराहा। 2005 में क्षितिज सिंह द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘हनुमान’ ने तो सफलता के झण्डे ही गाड़ दिये। यह अकेली फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस में बेहद लोकप्रिय और सुपर-डुपर हिट हो गई थी। इस फ़िल्म में जाने-माने अभिनेता श्री मुकेश खन्ना (1958-) ने सूत्रधार के रूप में अपनी आवाज़ दी थी। इस फ़िल्म की सफलता के बाद एनिमेशन-फिल्म उद्योग ने गति पकड़ी।
‘हनुमान’ के बाद ‘दी लेजेण्ड ऑफ़ बुद्ध’ (2005), ‘बाल हनुमान’ (2006), ‘किट्टू’ (2006), ‘कृष्ण’ (2006), ‘इनिमे नंगथन’ (2007), ‘रिटर्न ऑफ़ हनुमान’ (2007), ‘बाल गणेश’ (2007), ‘रोडसाइड रोमियो’ (2008), ‘दशावतार’ (2008), ‘घटोत्कच : दी मैजिक ऑफ़ मास्टर’ (2008), ‘चींटी चींटी भाग भाग’ (2008), ‘जम्बो’ (2008), ‘बाल गणेश-2’ (2009), ‘पंगा गंग (2010), ‘बाल हनुमान-2’ (2010), ‘बाल हनुमान : रिटर्न ऑफ़ द डेमन’ (2010), ‘बर्ड आइडोल’ (2010), ‘लव-कुश : दी वॉरियर ट्विन्स’ (2010), ‘बारू: द वण्डर किड’ (2010), ‘टूनपुर का सुपरहीरो’ (2010), ‘रामायण : द इपिक’ (2010), ‘क्रैकर्स’ (2011), ‘अलीबाबा और 41 चोर’ (2011), ‘अर्जुन : दी वॉरियर प्रिंस’ (2012), ‘रामायण : प्रिंस ऑफ़ अयोध्या’ (2012), ‘दिल्ली सफ़ारी’ (2012), ‘सन्स ऑफ़ राम’ (2012), ‘महाभारत’ (2013), ‘कोचाडाइयान’ (2014), ‘घटोत्कच-2’ (2014), ‘चार साहिबज़ादे’ (2014), ‘महायोद्धा राम’ (2016), ‘हनुमान : द दमदार’ (2017), आदि एनिमेशन-फ़िल्में भी उल्लेखनीय हैं।
पहली भारतीय 3-डी एनिमेटेड फ़िल्म 2008 में जुगल हंसराज (1972-) द्वारा लिखित और निर्देशित ‘रोडसाइड रोमियो’ थी, जो यशराज फ़िल्म और वाल्ट डिजनी कम्पनी के भारतीय प्रभाग के बीच एक संयुक्त उपक्रम था। इस फ़िल्म को बेस्ट एनिमेटेड फ़िल्म के नेशनल फ़िल्म एवार्ड से सम्मानित किया गया था।
वर्ष 2011 में बीएपीएस स्वामी नारायण संस्था ने श्री स्वामीनारायण चरित’ नाम से 4 भागों में स्वामी नारायण की गुजराती, हिंदी एवं अंग्रेज़ी में 3-डी एनिमेशन फ़िल्म बनायी, जो बच्चों में लोकप्रिय है। इसी तरह बीएपीएस स्वामीनारायण संस्था ने ‘मिस्टिक इण्डिया’ फ़िल्म, जो दिल्ली के स्वामीनारायण अक्षरधाम मन्दिर में दिखाई जाती है, का भी 3-डी एनिमेशन-संस्करण तैयार कर लिया है।
वर्ष 2012 में अर्णव चौधरी द्वारा निर्देशित और यूटीवी मोशन पिक्चर्स तथा वाल्ट डिज़नी पिक्चर्स द्वारा 2-जी एनिमेशन तकनीक से निर्मित ‘अर्जुन : दी वॉरियर प्रिंस’ ने भी मुझे काफ़ी आकृष्ट किया। यह फ़िल्म महाभारत के पात्र अर्जुन को केन्द्र में रखकर बनाई गई है। इस फ़िल्म में खाण्डवप्रस्थ, द्रौपदी-स्वयंवर, मार्शल आर्ट, आदि के दृश्य अत्यन्त नयनाभिराम और संवाद अत्यन्त शानदार हैं, जो मंत्रमुग्ध कर देते हैं। कुल मिलाकर ‘रामायण : दी लेजेण्ड ऑफ़ प्रिंस राम’ के बाद यह फ़िल्म मुझे सर्वाधिक पसन्द आयी। इस फ़िल्म को दुनिया के सबसे बड़े और सबसे पुराने एनिमेशन फ़िल्म उत्सव : ‘एनीसी इंटरनेशनल एनिमेटेड फ़िल्म फेस्टिवल’ में ‘क्रिस्टल एवार्ड फॉर बेस्ट फ़िल्म’ के लिए नामित किया गया।
वर्ष 2013 में कौशल कांतिलाल गदा एवं धवल जयन्तीलाल गदा (1989-) ने ‘महाभारत’ के नाम से एनिमेशन-फ़िल्म निर्मित की। इस फ़िल्म की ख़ास बात यह थी कि इसमें महाभारत के पात्रों का चित्रण बॉलीवुड के सुपरस्टारों को लेकर किया गया था। उदाहरण के लिए भीष्म, कृष्ण, भीम, अर्जुन, द्रौपदी, युधिष्ठिर, शकुनि, कुन्ती, दुर्योधन का अभिनय क्रमशः अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, सनी देओल, अजय देवगन, अनिल कपूर, माधुरी दीक्षित, विद्या बालन, मनोज वाजपेयी, अनुपम खेर, दीप्ति नवल और जैकी श्राफ के एनिमेटेड पात्रों ने किया है और आवाज़ भी उन्हीं कलाकारों ने दी है। यह फ़िल्म उस समय बॉलीवुड की सबसे महंगी एनिमेडेड फ़िल्म मानी गई थी।
वर्ष 2012 में स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) की 150वीं जयन्ती के उपलक्ष्य में रामकृष्ण मठ (चेन्नई) और रामकृष्ण मिशन (दिल्ली) ने उनकी शिकागो-यात्रा और वहाँ विश्व धर्म संसद में दिए गए उद्बोधन पर आधारित 15 मिनट की शॉर्ट 3-डी एनिमेशन फ़िल्म ‘9/11 : दी अवेकनिंग’ का निर्माण किया। इस फ़िल्म को वर्तमान में चेन्नई के विवेकानन्द हाउस 3-डी थियेटर और दिल्ली के रामकृष्ण मिशन में प्रदर्शित किया गया है। अगले वर्ष शिवाजी महाराज के जीवन पर आधारित एनिमेशन टीवी-शृंखला 11 कड़ियों में मराठी में निर्मित हुई, परन्तु बेहतर एनिमेशन तकनीक का प्रयोग न किए जाने के कारण इसे सराहना न मिल सकी।
वर्ष 2014 में हैरी बावेजा (1956-) द्वारा गुरु गोविन्द सिंह (1666-1708) के चार पुत्रों— अजीत सिंह, जुझार सिंह, फतेह सिंह और जोरावर सिंह के बलिदान की ऐतिहासिक वीरगाथा पर पंजाबी और हिंदी में निर्मित 3-डी एनिमेशन-फ़िल्म ‘चार साहिबजादे’ को भी दर्शकों ने काफ़ी पसन्द किया गया। उल्लेखनीय है कि सिख-सम्प्रदाय के नियमानुसार सिख-गुरुओं का किरदार कोई जीवित व्यक्ति नहीं कर सकता, इसलिए बॉलीवुड में सिख-इतिहास पर फ़िल्म बनाना काफ़ी चुनौतीपूर्ण था। बन जाने पर उसे पास कराना असम्भव था। ऐसे में निर्देशक ने इतिहास में काफ़ी छान-बीन करके और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमिटी के अधिकारियों से मिलकर इस फ़िल्म के निर्माण में आने वाली रुकावटों को दूर किया। फ़िल्म में गुरु के स्थिर चित्रों का ही प्रयोग किया गया और बाकी पात्रों के लिए भी आवाज़ देनेवाले कलाकारों के नाम गुप्त रखे गये। केवल सूत्रधार के रूप में आवाज़ देनेवाले श्री ओम पुरी (1950-2017) ही सामने आये। 26 करोड़ रुपये से निर्मित इस फ़िल्म ने काफ़ी सुर्खियाँ बटोरीं।
वर्ष 2016 में निर्मित और भारी-भरकर बज़ट वाली ‘महायोद्धा राम’ में कुणाल कपूर (1977-) ने राम की और गुलशन ग्रोवर (1955-) ने रावण की आवाज़ दी है। लेकिन रामायण की मूल कथा से काफ़ी छेड़छाड़ और रावण पर केन्द्रित होने के कारण यह फ़िल्म लोकप्रिय न हो सकी।
इस तरह हम देखते हैं कि भारत में निर्मित ज़्यादातर एनिमेशन-फ़िल्में हिंदू पौराणिक कथाओं पर आधारित हैं। हम जानते हैं कि भारतीय समाज में दादी-नानी की कहानियों की जगह तेजी से वीडियो गेम्स, स्मार्ट फ़ोन गेम और यू-ट्यूब चैनल लेते जा रहे हैं। ऐसे में एनिमेशन-फ़िल्में भारतीय पौराणिक गाथाओं, रामायण और महाभारत-जैसे भारतीय महाकाव्यों को बच्चों को परिचित कराने का एक बेहतर और स्वागतयोग्य तरीक़ा हैं।
हम यह भी देख रहे हैं कि संजय लीला भंसाली-जैसे पेशेवर निर्देशक भारतीय इतिहास से जुड़ी फ़िल्मों के निर्माण में ख़ासी दिलचस्पी तो लेते हैं, लेकिन मनोरंजन के नाम पर तथ्यों से तोड़-मरोड़ करने में ये आसुरी सुख का अनुभूति करते हैं। इनकी निगाह में मध्यकालीन भारतीय योद्धा खलनायक और अलाउद्दीन और औरंगज़ेब राष्ट्रनायक थे। इसलिए ऐसे फ़िल्मकारों द्वारा निर्मित फ़िल्मों में ऐतिहासिकता, तथ्यपरकता, वस्तुनिष्ठता और राष्ट्रीय गौरव का पूर्णतया अभाव दिखता है।
ऐसे में एनिमेशन-फ़िल्मों से ही थोड़ी आशा बँधती है, जिसके माध्यम से बच्चों के बीच राष्ट्रीय गौरव को परोसा जा सकता है। जिस प्रकार इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों में राष्ट्रीय गौरव को खंडित रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, उस छवि को समाप्त करने के लिए एनिमेटेड फिल्म एक बेहतरीन माध्यम हो सकते हैं। बच्चे कार्टून (एनिमेशन फ़िल्में) पसन्द करते हैं और ये फ़िल्में उनको शैक्षिक तरीके से मनोरंजन के साथ इतिहास-बोध भी करा सकती हैं। आवश्यकता है कि हमारे फ़िल्मकार पौराणिक विषयों से बाहर निकलकर अन्य प्राचीन और मध्यकालीन ऐतिहासिक चरित्रों, घटनाओं पर भी एनिमेशन-फ़िल्में बनाने के लिए आगे आयें।
भारतीय इतिहास में ऐसी घटनाओं और कहानियों की कोई कमी नहीं है जिन पर फ़िल्में बनाई जा सकती हैं। उदाहरण के लिए चाणक्य और चन्द्रगुप्त के विषय में एक बहुत अच्छी एनिमेशन फ़िल्म बनाए जाने की आवश्यकता है। सिकन्दर के भारतीय अभियान और पुरु द्वारा उसकी पराजय पर भी फ़िल्म बनाने के लिए काफ़ी मसाला प्रतीक्षा कर रहा है। इसी प्रकार एक फ़िल्म ऐसी बने, जिसमें वैदिक युग का सटीक चित्रण हो। हम प्रायः इतिहास में वैदिक युग के विषय में बढ़ते समय गिरि-कन्दराओं में रहनेवाले साधु-संन्यासियों के विषय में पढ़ते हैं। क्या उस समय नगरीय सभ्यता नहीं थी? यदि इस तरह की कोई बढ़िया फ़िल्म बनती है, तो उससे ‘आर्य आक्रमण सिद्धान्त’ के उन्मूलन में भी सहायता मिलेगी।
इसी तरह भारत की सन्त-परम्परा (आद्य शंकराचार्य, सन्त ज्ञानेश्वर, स्वामी रामानन्दाचार्य, स्वामी रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य), भारत की संसार को वैज्ञानिक देन (भरद्वाज, वराहमिहिर, आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, आदि), मुस्लिम आक्रमणकारियों का प्रतिरोध करते भारतीय वीरों (बाप्पा रावल, पृथ्वीराज चौहान, महाराणा सांगा, महाराणा कुम्भा, महाराणा प्रताप, सुहेलदेव, शिवाजी आदि) पर एनिमेटेड फ़िल्में बनने पर संजय लीला भंसाली जैसे दुष्ट फ़िल्मकार त्राहि-त्राहि कर उठेंगे। हम पहले ‘चार साहिबज़ादे’ के बारे में बता चुके हैं। तमाम मुश्किलों के बाद भी यह फ़िल्म इतिहास के साथ न्याय करने में सफल रही।
दुर्भाग्यवश भारत में एक पूर्ण विशेषताओं वाली एनिमेटेड फ़िल्म बनाने में फ़िल्मकारों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। विकसित बाज़ार का अभाव, निवेशकों की अरुचि से इस असीम सम्भावनाओं वाले उद्योग को ग्रहण लग रहा है। बकौल राजीव चिलका (‘छोटा भीम’ के निर्माता), ‘कार्टून फ़िल्म बनाना और रिलीज़ करना बहुत चुनौतीपूर्ण है। फ़िल्म प्रदर्शित करो तो सिनेमाघरवाले पूछते हैं कि इन फ़िल्मों को देखने कौन आता है। उन्हें बताना पड़ता है कि भीम की फ़िल्म चलती है। तभी तो चौथी फ़िल्म आ रही है। उन्हें जँचाना पड़ता है कि बच्चे भी फ़िल्म देखने आएँगे। वे ऑड शो टाइम देते हैं और हमें यह स्वीकारना पड़ता है। पहले हम यह फ़िल्म 18 दिसम्बर को रिलीज़ करना चाहते थे ताकि क्रिसमस की छुट्टियों का फ़िल्म को लाभ मिले, लेकिन उस दिन ‘बाजीराव मस्तानी’ और ‘दिलवाले’ रिलीज़ हुईं तो हमें सिनेमाघर उपलब्ध नहीं थे। हमें फ़िल्म की रिलीज़ डेट आगे करना पड़ी। हम जानते हैं कि बच्चों की फ़िल्म से बहुत ज़्यादा लाभ नहीं होता है, लेकिन हम बदलाव लाने की कोशिश में जुटे हुए हैं।’
उपर्युक्त समस्याओं को प्राथमिकता के आधार पर दूर किया जाना चाहिये, ताकि इस उद्योग को बड़ी सफलता के रास्ते पर लाया जा सके। इसके अलावा हमें उस मानसिकता को भी बदलना होगा जो भारतीय दर्शकों को एनिमेशन-फ़िल्में देखने के लिए सिनेमाघर जाने से रोकता है। इसके उलट पश्चिम में ऐसी फ़िल्में देखने में लोग काफ़ी दिलचस्पी लेते हैं। दूसरी ओर क्योंकि इस उद्योग को सरकार द्वारा कोई सब्सिडी नहीं है, इसलिए भारत में स्थानीय एनिमेटेड कंटेंट बहुत कम तैयार हो रहे हैं। यही कारण है कि बच्चों द्वारा देखे जानेवाले ज्यादातर कार्यक्रम या तो अमेरिका या जापान से हैं और भारत में वे डब किए जाते हैं।
★★★