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राफेल लड़ाकू विमान |
कर्नाटक में होने वाले विधानसभा चुनाव कांग्रेस के अस्तित्व के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गए हैं। लिहाजा, वह हर चीज पर सवाल उठा रही है। इनमें से सबसे ताजा है राफेल सौदा, जिस पर कांग्रेस ने सवाल उठाए हैं। जिन लोगों का वास्ता राष्ट्रीय सुरक्षा से नहीं होता, वह संभवतः यह सोच सकते हैं कि यह भाजपा द्वारा यूपीए शासन के दौरान हुए घोटालों के आरोप का कांग्रेस का जवाब है। हालांकि जो लोग राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर नजर रखते हैं, वह जानते हैं कि यूपीए के दस वर्ष के शासन के दौरान सैन्य क्षमताओं का विकास में ठहराव आ गया था।
कांग्रेस शासन ने देश के सैन्यबलों को कमजोर किया
यूपीए शासन के दौरान ए के एंटनी के अधीन रक्षा मंत्रालय विभिन्न प्रस्तावों पर कुंडली मारकर बैठा रहा और उसने किसी भी रक्षा सौदे को मंजूरी नहीं दी, जिसका एकमात्र कारण यह था कि एंटनी अपनी साफ-सुथरी छवि को लेकर फिक्रमंद थे। खरीद से संबंधित हर फैसले पर बोफोर्स का प्रेत मंडराने लगता था। गोलाबारूद के भंडार न्यूनतम स्तर पर पहुंच गए थे और जरूरी साजोसामान की कमी हो गई थी। रक्षा तैयारी की कमजोर स्थिति ने लगभग हर क्षेत्र में सैन्य बलों को अत्यंत कमजोर स्थिति में पहुंचा दिया था।
यदि दो मोर्चों पर युद्ध की नौबत आती, तो वायुसेना के लिए मुश्किल हो सकती थी। तोपखाने ने बोफोर्स के बाद कोई और सौदा नहीं देखा, जबकि एक नौसेना प्रमुख ने खराब उपकरणों, बदइंतजामी और कई दुर्घटनाओं, जिनमें कई मौतें तक हो गईं, के बाद इस्तीफा दे दिया। यहां तक कि तत्कालीन थल सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह को सैन्यबल की कमियों को लेकर सरकार को खुला पत्र तक लिखना पड़ा। मगर सरकार बेफिक्र सोई रही और सिर्फ इस बात की चिंता करती रही कि उसकी जो भी बची-खुची प्रतिष्ठा है, उस पर आंच न आए, क्योंकि एंटनी घूसखोरी के आरोपों के दाग से बचना चाहते थे।
कांग्रेस की सरकार लड़ाकू विमान खरीदने को लेकर गंभीर नही थी
ऐसे हालात में मौजूदा सरकार के लिए जरूरी हो गया कि वह सैन्य बलों की जिन क्षमताओं और कौशल की जरूरत है, उन पर ध्यान दे। इनमें राफेल सौदा सबसे पहला है, जिसे सरकार ने मंजूरी दी है। इस बारे में कांग्रेस की ओर से जो गलत दावे किए जा रहे हैं, उन्हें तथ्यों से परखना जरूरी है। मैं खुद सेना का पूर्व अधिकारी हूं और किसी राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व नहीं करता, इसलिए मैं निष्पक्ष ढंग से इस सौदे को देख रहा हूं।
वायुसेना ने 126 विमानों की जरूरत बताई थी, ताकि आने वाले वर्षों में पुराने पड़ चुके विमानों की जगह उनकी भरपाई हो सके और उसके पास किसी भी दो मोर्चे वाले युद्ध के लिए आवश्यक विमान मौजूद हों। विमानों की खरीद से संबंधित यह प्रस्ताव 2007 में जारी किया गया। उसके बाद से 2011 तक वायु सेना ने विमान के चयन के लिए कई चरणों में परीक्षण किए। अंत में राफेल और यूरोफाइटर टाइकून को छांटा गया। 2012 में राफेल को 'एल1बिडर' घोषित किया गया, जिसका मतलब था कि इसकी कीमत सबसे कम थी।
यूरोफाइटर ने उसके बाद डिस्काउंट की पेशकश की, मगर उसका कोई मतलब नहीं था। 2012-2014 क दौरान जब यूपीए शासन था, ठेके से संबंधित बातचीत अधूरी रही, इसके पीछे सबसे बड़ा कारण था कि प्रस्ताव की शर्तों और कीमत पर सहमति नही बन पा रही थी। इससे ऐसा लगा कि यूपीए सरकार इस सौदे को लेकर गंभीर नहीं है।
विमान की कीमत कभी भी बुनियादी कीमत नहीं होती, जैसा कि कांग्रेस कह रही है। कीमत वैमानिकी, अस्त्र-शस्त्र, रख-रखाव और साजो-सामान निर्भर करती है और इन्हें तय करने का एकमात्र अधिकार वायु सेना के पास होता है। ये सारे पहलू गोपनीय होते हैं और इन्हें सार्वजनिक किए जाने का असर सुरक्षा पर पड़ सकता है। इसलिए इन्हें दोनों देशों के हस्ताक्षर से नॉन डिस्क्लोजर क्लास (यानी सार्जनिक नहीं किए जाने का प्रावधान) में रखा जाता है।
विमान की कीमत कभी भी बुनियादी कीमत नहीं होती, जैसा कि कांग्रेस कह रही है। कीमत वैमानिकी, अस्त्र-शस्त्र, रख-रखाव और साजो-सामान निर्भर करती है और इन्हें तय करने का एकमात्र अधिकार वायु सेना के पास होता है। ये सारे पहलू गोपनीय होते हैं और इन्हें सार्वजनिक किए जाने का असर सुरक्षा पर पड़ सकता है। इसलिए इन्हें दोनों देशों के हस्ताक्षर से नॉन डिस्क्लोजर क्लास (यानी सार्जनिक नहीं किए जाने का प्रावधान) में रखा जाता है।
कांग्रेस सरकार ने राफेल के साथ “Transfer of Technology)” (टीओटी) का समझौता नही किया था
जो दूसरा मुद्दा उठाया जा रहा है, वह है प्रौद्योगिकी का स्थानांतरण (टीओटी)। इसका आशय प्रौद्योगिकी के स्थानांतरण से है, ताकि भारत में उत्पादन की क्षमता तैयार हो सके। इसका सबसे उल्लेखनीय उदाहरण है धनुष का विकास, जोकि बोफोर्स से टीओटी पर आधारित 155एमएम की स्वदेशी तोप है। यूपीए शासनकाल के दौरान दोनों देशों के बीच शुरुआती बातचीत में टीओटी प्रमुख बाधा बना हुआ था।
राफेल का निर्माण करने वाली कंपनी डसॉल्ट एविएशन कंपनी ने एचएएल (हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड) का मुआयना किया था, जहां 108 विमानों का निर्माण होना था। लेकिन वह कार्यशैली और गुणवत्ता से संतुष्ट नहीं थी और उसने गुणवत्ता नियंत्रण की जिम्मेदारी लेने में असमर्थता जताई। इसके अलावा डसॉल्ट ने भारत में 108 विमानों की एसेंबलिंग के लिए तीन करोड़ मानव घंटे को पर्याप्त बताया, जबकि एचएएल ने इसका दोगुना वक्त चाहा था, जिससे विमान की लागत बढ़ गई। टीओटी पर कभी बात ही नहीं हुई, सिर्फ भारत में एसेंबलिंग की बात हुई थी।
कांग्रेस सरकार ने राफेल सौदे के समझौते नही किये थे!
मोदी की अगुआई में एनडीए सरकार बनने के बाद तय किया गया कि विमान खरीद के मामले में सरकारों के बीच समझौता हो। सरकार ने भारत में टीओटी के तहत विमानों का निर्माण किए जाने के बजाए पूरी तरह से तैयार 36 विमान खरीदने का निर्णय लिया। इस तरह डसॉल्ट कंपनी बातचीत के दौर से बाहर हो गई और यह सौदा सरकारों के बीच हुआ और किसी भी तरह की घूसखोरी को खत्म कर दिया गया। समझौते में यह शामिल था कि विमानों की आपूर्ति समय पर होगी और उसमें विमानिकी के साथ ही वायु सेना की जरूरतों के अनुरूप हथियार प्रणाली लगी होंगी।
इसके बाद प्रस्ताव को रक्षा अर्जन परिषद के पास एक से अधिक बार भेजा गया और उसकी सलाह को इसमें शामिल किया गया। सरकार के स्तर पर अंतिम समझौते को 2016 में मंजूर किया गया, न कि 2014 जैसा कि कांग्रेस दावा कर रही है। इसी तरह से अधिक कीमत की बात भी इस सौदे के बारे में गलत तस्वीर पेश किए जाने के लिए की जा रही है।
- हर्ष कक्कड़, मेजर जनरल (रिटायर्ड)
साभार: अमर उजाला
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