लेखक - सुरेश सोनी
आइंस्टीन ने अपने विशिष्ट सापेक्षता सिद्धांत में पदार्थ व ऊर्जा का एकीकरण किया। उन्होंने कहा कि ऊर्जा की स्थूल अभिव्यक्ति पदार्थ है तथा अपने प्रसिद्ध समीकरण E=mc2 द्वारा सिद्ध किया कि दोनों एक-दूसरे में परिवर्तित हो सकते हैं। न्यूटन ने कहा था कि “स्पेस (अन्तराल) चारों ओर एक रस है और काल सरल रैखिक है।” पर आइंस्टीन ने कहा, “ब्रह्माण्ड मात्र यंत्र नहीं है। उसकी गतिविधियां यांत्रिक नहीं है अपितु व्रह्माण्ड लचीला है व विभिन्न बनावट वाला है।” जहां भी पदार्थ व गति है वहां दिक् (स्पेस) वक्र हो जाता है। जैसे समुद्र में तैरती मछली अपने आस-पास के पानी को काटती है उसी प्रकार एक तारा या पुच्छल तारा या ज्योतिर्माला उस दिक् काल की बनावट में से, जिसमें से वह गुजरता है, परिवर्तन ला देता है। दिक् और काल अलग-अलग नहीं हैं, क्योंकि एक बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। घटनाओं के बिना काल का अस्तित्व नहीं और काल के बिना घटनाओं की जानकारी नहीं। इस प्रकार आइंस्टीन ने पदार्थ, ऊर्जा, दिक्, काल इनका एकीकरण किया।
इस प्रकार पश्चिम की सम्पूर्ण विज्ञान यात्रा को हम संक्षेप में इस प्रकार रख सकते हैं-
समस्त स्थूल जगत तत्वों से, तत्व परमाणुओं से तथा परमाणु सूक्ष्म कणों से बने हैं। परन्तु ये कण हैं भी या नहीं, यह जानना कठिन है। अत: ये सब प्रवाह हैं और प्रवाह बल या ऊर्जा रूप है। यह ऊर्जा चार प्रकार की है, इसमें तीन का एकीकरण समझ में आता है। इनका व्यवहार दिक् (स्पेस) में है और दिक् (स्पेस) तथा काल (टाइम) अलग नहीं है। अत: संपूर्ण जगत दिक्-काल के चतु: आयामी क्षेत्र से उद्भूत है। इस एकीकरण में गुरुत्वाकर्षण शक्ति का एकीकरण संभव नहीं हुआ है। जिस दिन यह हो जाएगा, उस दिन शायद भौतिकी का अंत हो जाएगा। पश्चिम के सैद्धान्तिक क्षेत्र की विज्ञान यात्रा यहां तक हुई है।
यदि गुरुत्वाकर्षण शक्ति का भी एकीकरण हो गया तो!
प्रश्न उठता है, कल यदि गुरुत्वाकर्षण शक्ति का भी एकीकरण हो गया तो क्या इस विश्व की पहेली सुलझ जाएगी? क्या विश्व का अंतिम सत्य जान लिया जाएगा? लगता है नहीं। क्योंकि तब कुछ मूलभूत अन्य प्रश्न उठेंगे। मानव का मन क्या है? बुद्धि क्या है? भावना क्या है? जिसे फ्री-विल या स्वतंत्र इच्छा कहते हैं, वह क्या है? इसका और स्थूल सृष्टि व उसमें होने वाली घटना का सम्बंध क्या है? सर्वोपरि, जिसे चेतना कहा जाता है, क्या है? क्योंकि अभी तक विज्ञान ने मन, चेतना, बुद्धि आदि को अपनी परिधि में नहीं लिया है और विज्ञान, भौतिक विज्ञान तथा जैव विज्ञान ऐसे अलग खेमों में बंटा हुआ है। एक नई प्रकार की जाति व्यवस्था मानो खड़ी हुई है और आज की त्रासदी के पीछे यह खंडित दृष्टि बहुत बड़ा कारण है।
भारत की विज्ञान यात्रा
हमारे यहां प्राचीन काल से व्रह्मांड क्या है और कैसे उत्पन्न हुआ, क्यों उत्पन्न हुआ इत्यादि प्रश्नों का विचार हुआ। पर जितना इनका विचार हुआ उससे अधिक ये प्रश्न जिसमें उठते हैं, उस मनुष्य का भी विचार हुआ। ज्ञान प्राप्ति का प्रथम माध्यम इन्द्रियां हैं। इनके द्वारा मनुष्य देखकर, चखकर, सूंघकर, स्पर्श कर तथा सुनकर ज्ञान प्राप्त करता है। बाह्य जगत के ये माध्यम हैं। विभिन्न उपकरण इन इंद्रियों को जानने की शक्ति बढ़ाते हैं।
दूसरा और अधिक महत्वपूर्ण माध्यम अन्तर्ज्ञान माना गया, जिसमें शरीर को प्रयोगशाला बना समस्त विचार, भावना, इच्छा इनमें स्पन्दन शांत होने पर सत्य अपने को उद्घाटित करता है। अत: ज्ञान प्राप्ति के ये दोनों माध्यम रहे तथा मूल सत्य के निकट अन्तर्ज्ञान की अनुभूति से उपर्युक्त प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयत्न हुआ। यद्यपि वेदों, व्राह्मणों, उपनिषदों, महाभारत, भागवत आदि में ऊपर उठाए प्रश्नों का विवेचन मिलता है, परन्तु व्रह्माण्ड का विश्लेषण परमाणु विज्ञान की दृष्टि से सर्वप्रथम एक शास्त्र के रूप में सूत्रबद्ध ढंग से महर्षि कणाद ने आज से हजारों वर्ष पूर्व अपने वैशेषिक दर्शन में प्रतिपादित किया था।
कुछ मामलों में महर्षि कणाद का प्रतिपादन आज के विज्ञान से भी आगे जाता है। महर्षि कणाद कहते हैं, “द्रव्य को छोटा करते जाएंगे तो एक स्थिति ऐसी आएगी जहां से उसे और छोटा नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि उससे अधिक छोटा करने का प्रत्यन किया तो उसके पुराने गुणों का लोप हो जाएगा।” दूसरी बात वे कहते हैं कि “द्रव्य की दो स्थितियां हैं- एक आणविक और दूसरी महत। आणविक स्थिति सूक्ष्मतम है तथा महत यानी विशाल व्रह्माण्ड। दूसरे, द्रव्य की स्थिति एक समान नहीं रहती है।”
अत: कणाद कहते हैं-
‘धर्म विशेष प्रसुदात द्रव्य
गुण कर्म सामान्य विशेष समवायनां
पदार्थानां साधर्य वैधर्यभ्यां
तत्वज्ञाना नि:श्रेयसम’ (वै.द.-४)
गुण कर्म सामान्य विशेष समवायनां
पदार्थानां साधर्य वैधर्यभ्यां
तत्वज्ञाना नि:श्रेयसम’ (वै.द.-४)
अर्थात:- धर्म विशेष में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय के साधर्य और वैधर्म्य के ज्ञान द्वारा उत्पन्न ज्ञान से नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है।
द्रव्य क्या है? इसकी महर्षि कणाद की व्याख्या बहुत व्यापक एवं आश्चर्यजनक है। वे कहते हैं-
पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं कालोदिगात्मा मन इति द्रव्याणि (वै.द. १/५)
अर्थात: पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा जीवात्मा तथा मन- ये द्रव्य हैं। यहां पृथ्वी, जल आदि से कोई हमारी पृथ्वी, जल आदि का अर्थ लेते हैं। पर ध्यान रखें इस सम्पूर्ण व्रह्माण्ड में ये नौ द्रव्य कहे गए, अत: स्थूल पृथ्वी से यहां अर्थ नहीं है।
वे कहते हैं, पृथ्वी यानी द्रव्य का ठोस (Solid) रूप, जल यानी द्रव्य (ख्त्द्र्दद्वत्ड्ड) रूप तथा वायु (क्रठ्ठद्म) रूप, यह तो सामान्यत: दुनिया में पहले से ज्ञात था, पर महर्षि कणाद कहते हैं कि “तेज भी द्रव्य है।” जबकि पदार्थ व ऊर्जा एक है, यह ज्ञान २०वीं सदी में आया है। इसके अतिरिक्त वे कहते हैं- “आकाश भी द्रव्य है तथा आकाश परमाणु रहित है और सारी गति आकाश के सहारे ही होती है, क्योंकि परमाणु के भ्रमण में हरेक के बीच अवकाश या प्रभाव क्षेत्र रहता है।” अत: हमारे यहां घटाकाश, महाकाश, हृदयाकाश आदि शब्दों का प्रयोग होता है। महर्षि कणाद कहते हैं- “दिक् (space) तथा काल (Time) यह भी द्रव्य है!” जबकि पश्चिम से इसकी अवधारणा आइंस्टीन के सापेक्षतावाद के प्रतिपादन के बाद आई।
महर्षि कणाद के मत में मन तथा आत्मा भी द्रव्य हैं। इस अवधारणा को मानने की मानसिकता आज के विज्ञान में भी नहीं है।
प्रत्येक द्रव्य की स्थित आणविक है। वे गतिशील हैं तथा परिमण्डलाकार उनकी स्थिति है। अत: उनका सूत्र है-
- ‘नित्यं परिमण्डलम‘ (वै.द. ७/२०)
- ‘नित्यं परिमण्डलम‘ (वै.द. ७/२०)
परमाणु छोटे-बड़े रहते हैं, इस विषय में महर्षि कणाद कहते हैं-
- “एतेन दीर्घत्वहृस्वत्वे व्याख्याते” (वै.द. ७-१-१७)
आकर्षण-विकर्षण से अणुओं में छोटापन और बड़ापन उत्पन्न होता है। इसी प्रकार व्रह्मसूत्र में कहा गया-
- “महद् दीर्घवद्वा हृस्वपरिमण्डलाभ्याम्” (व्र.सूत्र २-२-११)
अर्थात् महद् से हृस्व तथा दीर्घ परिमण्डल बनते हैं।
परमाणु प्रभावित कैसे होते हैं तो महर्षि कणाद कहते हैं-
- “विभवान्महानाकाशस्तथा च आत्मा” (वै.द. ७-२२)
अर्थात् उच्च ऊर्जा, आकाश व आत्मा के प्रभाव से।
परमाणुओं से सृष्टि की प्रक्रिया कैसे होती है, तो महर्षि कणाद कहते हैं कि पाकज क्रिया के द्वारा। इसे पीलुपाक क्रिया भी कहते हैं। अर्थात् अग्नि या ताप के द्वारा परमाणुओं का संयोजन होता है। दो परमाणु मिलकर द्वयणुक बनते हैं। तीन द्वयणुक से एक त्रयणुक, चार त्रयणुक से एक चतुर्णुक तथा इस प्रकार स्थूल पदार्थों की निर्मित होती है। वे कुछ समय रहते हैं तथा बाद में पुन: उनका क्षरण होता है और मूल रूप में लौटते हैं।
महर्षि कणाद ने परमाणु को ही अंतिम तत्व माना
कहते हैं कि जीवन के अंत में उनके शिष्यों ने उनकी अंतिम अवस्था में प्रार्थना की कि कम से कम इस समय तो परमात्मा का नाम लें, तो कणाद ऋषि के मुख से निकला पीलव: पीलव: पीलव: अर्थात् परमाणु, परमाणु, परमाणु।
महर्षि कपिल थोड़ा और गहराई में गए तथा कपिल का “सांख्य दर्शन” जगत की अत्यंत वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करता है। महर्षि कपिल ने कहा- “जिसकी भी कुछ आन्तरिक रचना है उनके भिन्न-भिन्न रूप हैं। अत: निश्चयात्मक रूप से यह जगत् मूल रूप से जिनसे बना है, उसके आकार के बारे में नहीं कह सकते। इतना कह सकते हैं कि वे सूक्ष्म हैं तथा उनका एक विशेष प्रकार का गुण है।’ अत: उन्होंने कहा- “जगत त्रिगुणात्मक है और ये तीन गुण हैं सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण।
महर्षि कपिल की व्याख्या आश्चर्यजनक है, वे कहते हैं कि ये तीनों गुण हैं।
(१) लध्वादिधर्म: साधर्म्यं वैधर्यं च गुणानाम् (सांख्य दर्शन-१-१२८)
अर्थात् सूक्ष्मता की दृष्टि से इनमें समानता है परन्तु विशेषता या गुण की दृष्टि से इनमें भिन्नता है।
(२) गुण क्या हैं? वे कहते हैं-
प्रीत्यप्रीतिविषादाद्यैर्गुणानामन्योऽन्यं वैधर्म्यम् (सां.द.१-१२७)
अर्थात: प्रीति (ॠद्यद्यद्धठ्ठड़द्यत्दृद), अप्रीति (ङड्ढद्रद्वथ्द्मत्दृद) तथा विषाद (ग़्ड्ढद्वद्यद्धठ्ठथ्)- ये भिन्न-भिन्न विशेषता इन गुणों की है।
(३) इसमें भी जो गति होती है वह आकर्षण व विकर्षण के कारण ही होती है। अत: सांख्य दर्शन कहता है-
‘रागविरागयोर्योग: सृष्टि:‘ (सां.द. २-९)
‘रागविरागयोर्योग: सृष्टि:‘ (सां.द. २-९)
अर्थात: आकर्षण और विकर्षण का योग सृष्टि है। सम्पूर्ण सृष्टि आकर्षण और विकर्षण का ही खेल है और यह सब जिस शक्ति द्वारा होता है उसे क्रिया शक्ति कहा जाता है और समस्त भौतिक शक्तियों का इसमें एकीकरण है।
परन्तु यह सब जानने की जिसमें इच्छा है तथा जिसमें प्रश्न उठते हैं वह मानव, उसका मन, उसके संशय ये सब क्या हैं और अंतिम एकीकरण कहां जाकर होगा, इसका युक्तियुक्त विश्लेषण तथा अनुभव सांख्य के साथ वेदान्त ने किया।
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