नानाजी देशमुख : एक विलक्षण व्यक्तित्व

नानाजी देशमुख

भले ही उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ, लेकिन उनका कार्यक्षेत्र राजस्थान और उत्तरप्रदेश ही रहा। उनकी श्रद्धा देखकर आर.एस.एस. सरसंघचालक श्री गुरू जी ने उन्हें प्रचारक के रूप में गोरखपुर भेजा। बाद में उन्हें बड़ा दायित्व सौंपा गया और वे उत्तरप्रदेश के प्रान्त प्रचारक बने।


ये 4 नवंबर, 1974 की बात है। बिहार में जेपी आंदोलन उफान पर था। जयप्रकाश नारायण पटना में हज़ारों लोगों का एक जुलूस लीड कर रहे थे। तत्कालीन सरकार के खिलाफ़ नारे लग रहे थे- “सच कहना अगर बग़ावत है तो समझो हम भी बाग़ी हैं।”

पटना के बेली रोड में जब यह जुलूस रेवेन्यू बिल्डिंग के पास पहुंचा तो अब्दुल गफूर सरकार के प्रशासन का धैर्य टूट गया और तुरंत लाठीचार्ज का आदेश जारी कर दिया गया। स्थानीय प्रशासन ने यह देखने की भी ज़रूरत नहीं समझी कि उसकी लाठियां किस पर गिरने वाली हैं। प्रशासन की लाठियां गिरीं जेपी पर, लेकिन उन्हें बचाने के लिए जो सबसे पहला हाथ जेपी पर छाते की तरह आया, वह नानाजी देशमुख का था। 60 वर्ष के नानाजी ने जेपी पर किए गए सारे वारों को खुद पर झेल लिया और बाद में घायल होकर भी कहते रहे कि वह साठ बरस के नौजवान हैं।

राजनीतिक जीवन में ऐसे बहुत ही कम लोग होते हैं, जिनका नाम विचारधारा, संगठन और दलगत राजनीति से ऊपर लिया जाता है। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं, जो विपक्षी दलों के भी प्रशंसा के हक़दार बन जाते हैं। भारत में अगर वह व्यक्ति आरएसएस से जुड़ा हो तो यह इज़्ज़त पाना नामुमकिन सा लगता है, लेकिन चंडिकादास अमृतराव  देशमुख भारतीय राजनीति की ऐसी ही महान शख्सियत थे।

भारतीय राजनीति में ऐसे लोग नहीं बचे हैं, जो सक्रिय होते हुए भी मंत्री की कुर्सी ठुकरा दें। ऐसे राजनेता कहां हैं, जो मंत्रालय की कुर्सी को ठोकर मारकर देश में शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीणों के  स्वाबलंबन के लिए जीवन भर काम करते रहें। मगर नाना जी इन्हीं कुछ ख़ास लोगों में से एक थे।

नानाजी देशमुख और नरेंद्र मोदी


आरम्भिक जीवन

नानाजी का जन्म महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के कडोली नामक छोटे से कस्बे में मराठा परिवार में ११ अक्टूबर १९१६ को हुआ था। नानाजी का लंबा और घटनापूर्ण जीवन अभाव और संघर्षों में बीता। उन्होंने छोटी उम्र में ही अपने माता-पिता को खो दिया। मामा ने उनका लालन-पालन किया। बचपन अभावों में बीता। उनके पास शुल्क देने और पुस्तकें खरीदने तक के लिये पैसे नहीं थे किन्तु उनके अन्दर शिक्षा और ज्ञानप्राप्ति की उत्कट अभिलाषा थी। अत: इस कार्य के लिये उन्होने सब्जी बेचकर पैसे जुटाये। वे मन्दिरों में रहे और पिलानी के बिरला इंस्टीट्यूट से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की। बाद में 1930 के दशक में वे आरएसएस में शामिल हो गये।

भले ही उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ, लेकिन उनका कार्यक्षेत्र राजस्थान और उत्तरप्रदेश ही रहा। उनकी श्रद्धा देखकर आर.एस.एस. सरसंघचालक श्री गुरू जी ने उन्हें प्रचारक के रूप में गोरखपुर भेजा। बाद में उन्हें बड़ा दायित्व सौंपा गया और वे उत्तरप्रदेश के प्रान्त प्रचारक बने।

वह कुछ ही दिनों में उत्तर प्रदेश के प्रांत प्रचारक बन गए। उत्तर प्रदेश में संघ की विचारधारा और संगठन को फैलाने का काम आसान नहीं था, क्योंकि संघ के पास इसके लिए न तो पैसे थे और न ही समर्थक। नानाजी ने इसी दौरान बाबा राघवदास के आश्रम को अपना ठिकाना बनाया। आश्रम में रहने के लिए उन्हें खाना बनाना पड़ता था और साथ में वह संघ के काम को भी देखते थे। यह बताता है कि नानाजी ने संघ को उत्तर प्रदेश में खड़ा करने के लिए क्या कुछ नहीं किया होगा। तीन साल के अंदर में अपनी कड़ी मेहनत से नानाजी देशमुख ने उत्तर प्रदेश में 250 शाखाएं शुरू कर दी थीं।


आर.एस.एस. कार्यकर्ता के रूप में

नानाजी देशमुख लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रेरित हुए। तिलक से प्रेरित होकर उन्होंने समाज सेवा और सामाजिक गतिविधियों में रुचि ली। आर.एस.एस. के आदि सरसंघचालक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार से उनके पारिवारिक सम्बन्ध थे। हेडगेवार ने नानाजी की प्रतिभा को पहचान लिया और आर.एस.एस. की शाखा में आने के लिये प्रेरित किया।

१९४० में, डॉ॰ हेडगेवार जी के निधन के बाद नानाजी ने कई युवकों को महाराष्ट्र की आर.एस.एस. शाखाओं में शामिल होने के लिये प्रेरित किया। नानाजी उन लोगों में थे जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र की सेवा में अर्पित करने के लिये आर.एस.एस. को दे दिया। वे प्रचारक के रूप में उत्तरप्रदेश भेजे गये। आगरा में वे पहली बार दीनदयाल उपाध्याय से मिले। बाद में वे गोरखपुर गये और लोगों को संघ की विचारधारा के बारे में बताया। यह कार्य आसान नहीं था।

संघ के पास दैनिक खर्च के लिए भी पैसे नहीं होते थे। नानाजी को धर्मशालाओं में ठहरना पड़ता था और लगातार धर्मशाला बदलना भी पड़ता था, क्योंकि एक धर्मशाला में लगातार तीन दिनों से ज्यादा समय तक ठहरने नहीं दिया जाता था। अन्त में बाबा राघवदास ने उन्हें इस शर्त पर ठहरने दिया कि वे उनके लिये खाना बनाया करेंगे। तीन साल के अन्दर उनकी मेहनत रंग लायी और गोरखपुर के आसपास संघ की ढाई सौ शाखायें खुल गयीं। नानाजी ने शिक्षा पर बहुत जोर दिया। उन्होंने पहले सरस्वती शिशु मन्दिर की स्थापना गोरखपुर में की।

१९४७ में, आर.एस.एस. ने राष्ट्रधर्म और पांचजन्य नामक दो साप्ताहिक और स्वदेश (हिन्दी समाचारपत्र) निकालने का फैसला किया। अटल बिहारी वाजपेयी को सम्पादन, दीन दयाल उपाध्याय को मार्गदर्शन और नानाजी को प्रबन्ध निदेशक की जिम्मेदारी सौंपी गयी। पैसे के अभाव में पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन संगठन के लिये बेहद मुश्किल कार्य था, लेकिन इससे उनके उत्साह में कमी नहीं आयी और सुदृढ राष्ट्रवादी सामाग्री के कारण इन प्रकाशनों को लोकप्रियता और पहचान मिली। १९४८ में गान्धीजी की हत्या के बाद आर.एस.एस. पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया, जिससे इन प्रकाशन कार्यों पर व्यापक असर पड़ा। फिर भी भूमिगत होकर इनका प्रकाशन कार्य जारी रहा।


राजनीतिक और सामाजिक जीवन

नानाजी देशमुख और जयप्रकाश नारायण
जब आर.एस.एस. से प्रतिबन्ध हटा तो राजनीतिक संगठन के रूप में भारतीय जनसंघ की स्थापना का फैसला हुआ। श्री गुरूजी ने नानाजी को उत्तरप्रदेश में भारतीय जन संघ के महासचिव का प्रभार लेने को कहा। नानाजी के जमीनी कार्य ने उत्तरप्रदेश में पार्टी को स्थापित करने में अहम भूमिका निभायी। १९५७ तक जनसंघ ने उत्तरप्रदेश के सभी जिलों में अपनी इकाइयाँ खड़ी कर लीं। इस दौरान नानाजी ने पूरे उत्तरप्रदेश का दौरा किया जिसके परिणामस्वरूप जल्द ही भारतीय जनसंघ उत्तरप्रदेश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गयी।

उत्तरप्रदेश की बड़ी राजनीतिक हस्ती चन्द्रभानु गुप्त को नानाजी की वजह से तीन बार कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। एक बार, राज्यसभा चुनाव में कांग्रेसी नेता और चंद्रभानु के पसंदीदा उम्मीदवार को हराने के लिए उन्होंने रणनीति बनायी। १९५७ में जब गुप्त स्वयं लखनऊ से चुनाव लड़ रहे थे, तो नानाजी ने समाजवादियों के साथ गठबन्धन करके बाबू त्रिलोकी सिंह को बड़ी जीत दिलायी। १९५७ में चन्द्रभानु गुप्त को दूसरी बार हार को मुँह देखना पड़ा।

उत्तरप्रदेश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि, अटल बिहारी वाजपेयी के वक्तृत्व और नानाजी के संगठनात्मक कार्यों के कारण भारतीय जनसंघ महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति बन गया। न सिर्फ पार्टी कार्यकर्ताओं से बल्कि विपक्षी दलों के साथ भी नानाजी के सम्बन्ध बहुत अच्छे थे। चन्द्रभानु गुप्त भी, जिन्हें नानाजी के कारण कई बार चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था, नानाजी का दिल से सम्मान करते थे और उन्हें प्यार से नाना फड़नवीस कहा करते थे। डॉ॰ राम मनोहर लोहिया से उनके अच्छे सम्बन्धों ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी। एक बार नानाजी ने डॉ॰ लोहिया को भारतीय जनसंघ कार्यकर्ता सम्मेलन में बुलाया, जहाँ लोहिया जी की मुलाकात दीन दयाल उपाध्याय से हुई। दोनों के जुड़ाव से भारतीय जनसंघ समाजवादियों के करीब आया। दोनों ने मिलकर कांग्रेस के कुशासन का पर्दाफाश किया।


१९६७ में भारतीय जनसंघ संयुक्त विधायक दल का हिस्सा बन गया और चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में सरकार में शामिल भी हुआ। नानाजी के चौधरी चरण सिंह और डॉ राम मनोहर लोहिया दोनों से ही अच्छे सम्बन्ध थे, इसलिए गठबन्धन निभाने में उन्होंने अहम भूमिका निभायी। उत्तरप्रदेश की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के गठन में विभिन्न राजनीतिक दलों को एकजुट करने में नानाजी जी का योगदान अद्भुत रहा।

नानाजी, विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए। दो महीनों तक वे विनोबाजी के साथ रहे। वे उनके आन्दोलन से अत्यधिक प्रभावित हुए। जेपी आन्दोलन में जब जयप्रकाश नारायण पर पुलिस ने लाठियाँ बरसायीं उस समय नानाजी ने जयप्रकाश को सुरक्षित निकाल लिया। इस दुस्साहसी कार्य में नानाजी को चोटें आई और इनका एक हाथ टूट गया। जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई ने नानाजी के साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति को पूरा समर्थन दिया। जनता पार्टी से संस्थापकों में नानाजी प्रमुख थे। कांग्रेस को सत्ताच्युत कर जनता पार्टी सत्ता में आयी। आपातकाल हटने के बाद चुनाव हुए, जिसमें बलरामपुर लोकसभा सीट से नानाजी सांसद चुने गये। उन्हें पुरस्कार के तौर पर मोरारजी मंत्रिमंडल में बतौर उद्योग मन्त्री शामिल होने का न्यौता भी दिया गया, लेकिन नानाजी ने साफ़ इनकार कर दिया। उनका सुझाव था कि साठ साल से अधिक आयु वाले सांसद राजनीति से दूर रहकर संगठन और समाज कार्य करें।


सामाजिक जीवन

१९८० में साठ साल की उम्र में उन्होंने सक्रिय राजनीति से सन्यास लेकर आदर्श की स्थापना की। बाद में उन्होंने अपना पूरा जीवन सामाजिक और रचनात्मक कार्यों में लगा दिया। वे आश्रमों में रहे और कभी अपना प्रचार नहीं किया। उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की और उसमें रहकर समाज-सेवा की। उन्होंने चित्रकूट में चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की। यह भारत का पहला ग्रामीण विश्वविद्यालय है और वे इसके पहले कुलाधिपति थे। १९९९ में एन० डी० ए० सरकार ने उन्हें राज्यसभा का सांसद बनाया।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या नानाजी के लिये बहुत बड़ी क्षति थी। उन्होंने नई दिल्ली में अकेले दम पर दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की और स्वयं को देश में रचनात्मक कार्य के लिये समर्पित कर दिया। उन्होंने गरीबी निरोधक व न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम चलाया, जिसके अन्तर्गत कृषि, कुटीर उद्योग, ग्रामीण स्वास्थ्य और ग्रामीण शिक्षा पर विशेष बल दिया। राजनीति से हटने के बाद उन्होंने संस्थान के अध्यक्ष का पद संभाला और संस्थान की बेहतरी में अपना सारा समय अर्पित कर दिया। उन्होंने संस्थान की ओर से रीडर्स डाइजेस्ट की तरह मंथन नाम की एक पत्रिका निकाली जिसका कई वर्षों तक के० आर० मलकानी ने सम्पादन किया।


नानाजी ने उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र के सबसे पिछड़े जिलों गोंडा और बीड में बहुत से सामाजिक कार्य किये। उनके द्वारा चलायी गयी परियोजना का उद्देश्य था-"हर हाथ को काम और हर खेत को पानी।"

१९८९ में वे पहली बार चित्रकूट आये और अन्तिम रूप यहीं बस गये। उन्होंने भगवान श्रीराम की कर्मभूमि चित्रकूट की दुर्दशा देखी। वे मंदाकिनी के तट पर बैठ गये और अपने जीवन काल में चित्रकूट को बदलने का फैसला किया। चूँकि अपने वनवास-काल में राम ने दलित जनों के उत्थान का कार्य यहीं रहकर किया था, अत: इससे प्रेरणा लेकर नानाजी ने चित्रकूट को ही अपने सामाजिक कार्यों का केन्द्र बनाया। उन्होंने सबसे गरीब व्यक्ति की सेवा शुरू की। वे अक्सर कहा करते थे कि उन्हें राजा राम से वनवासी राम अधिक प्रिय लगते हैं अतएव वे अपना बचा हुआ जीवन चित्रकूट में ही बितायेंगे। ये वही स्थान है जहाँ राम ने अपने वनवास के चौदह में से बारह वर्ष गरीबों की सेवा में बिताये थे। उन्होंने अपने अन्तिम क्षण तक इस प्रण का पालन किया। उनका निधन भी चित्रकूट में ही रहते हुए २७ फ़रवरी २०१० को हुआ।

दीनदयाल शोध संस्थान

पंडित दीनदयाल उपाध्याय की संकल्पना एकात्म मानववाद को मूर्त रूप देने के लिये नानाजी ने १९७२ में दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की। उपाध्याय जी यह दर्शन समाज के प्रति मानव की समग्र दृष्टि पर आधारित है जो भारत को आत्मनिर्भर बना सकता है।

नानाजी देशमुख ने एकात्म मानववाद के आधार पर ग्रामीण भारत के विकास की रूपरेखा बनायी। शुरुआती प्रयोगों के बाद उत्तरप्रदेश के गोंडा और महाराष्ट्र के बीड जिलों में नानाजी ने गाँवों के स्वास्थ्य, सुरक्षा, शिक्षा, कृषि, आय, अर्जन, संसाधनों के संरक्षण व सामाजिक विवेक के विकास के लिये एकात्म कार्यक्रम की शुरुआत की। पूर्ण परिवर्तन कार्यक्रम का आधार लोक सहयोग और सहकार है।

चित्रकूट परियोजना या आत्मनिर्भरता के लिये अभियान की शुरुआत २६ जनवरी २००५ को चित्रकूट में हुई जो उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित है। इस परियोजना का उद्देश्य २००५ के अन्त तक इन गाँवों में आत्मनिर्भरता हासिल करना था किन्तु यह परियोजना २०१० में पूरी हो सकी। परियोजना से यह उम्मीद तो जगी है कि चित्रकूट के आसपास कम से कम पाँच सौ गाँवों को तो आत्मनिर्भर बना ही लिया जायेगा। निस्सन्देह यह परियोजना भारत और दुनिया के लिये एक आदर्श बन सकती है।

प्रशंसा और सम्मान


वर्ष १९९९ में नानाजी देशमुख को पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। तत्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने नानाजी देशमुख और उनके संगठन दीनदयाल शोध संस्थान की प्रशंसा की। इस संस्थान की मदद से सैकड़ों गाँवों को मुकदमा मुक्त विवाद सुलझाने का आदर्श बनाया गया। अब्दुल कलाम ने कहा-"चित्रकूट में मैंने नानाजी देशमुख और उनके साथियों से मुलाकात की। दीन दयाल शोध संस्थान ग्रामीण विकास के प्रारूप को लागू करने वाला अनुपम संस्थान है। यह प्रारूप भारत के लिये सर्वथा उपयुक्त है। विकास कार्यों से अलग दीनदयाल उपाध्याय संस्थान विवाद-मुक्त समाज की स्थापना में भी मदद करता है। मैं समझता हूँ कि चित्रकूट के आसपास अस्सी गाँव मुकदमें बाजी से मुक्त है। इसके अलावा इन गाँवों के लोगों ने सर्वसम्मति से यह फैसला किया है कि किसी भी विवाद का हल करने के लिये वे अदालत नहीं जायेंगे। यह भी तय हुआ है कि सभी विवाद आपसी सहमति से सुलझा लिये जायेंगे। जैसा नानाजी देशमुख ने हमें बताया कि अगर लोग आपस में ही लड़ते झगड़ते रहेंगे तो विकास के लिये समय कहाँ बचेगा?"

कलाम के मुताबिक, विकास के इस अनुपम प्रारूप को सामाजिक संगठनों, न्यायिक संगठनों और सरकार के माध्यम से देश के विभिन्न भागों में फैलाया जा सकता है। शोषितों और दलितों के उत्थान के लिये समर्पित नानाजी की प्रशंसा करते हुए कलाम ने कहा कि नानाजी चित्रकूट में जो कर रहे हैं उसे देखकर अन्य लोगों की भी आँखें खुलनी चाहिये।”

नानाजी देशमुख और तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम



निधन

नानाजी देशमुख ने ९५ साल की उम्र में चित्रकूट स्थित भारत के पहले ग्रामीण विश्वविद्यालय (जिसकी स्थापना उन्होंने खुद की थी) में रहते हुए अन्तिम साँस ली। वे पिछले कुछ समय से बीमार थे, लेकिन इलाज के लिये दिल्ली जाने से मना कर दिया। नानाजी देश के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपना शरीर छात्रों के मेडिकल शोध हेतु दान करने का वसीयतनामा (इच्छा पत्र) मरने से काफी समय पूर्व १९९७ में ही लिखकर दे दिया था, जिसका सम्मान करते हुए उनका शव अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली को सौंप दिया गया।

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