आगे केजरीवाल, पीछे ‘सीआईए’ फोर्ड


अरविंद केजरीवाल ने ‘आम आदमी पार्टी’ (आप) बनाकर जो आदर्श रखा है। उस पर वे कितना खरे उतरते हैं? इसे समझना भी जरूरी है। अन्यथा जनता एक बार फिर धोखा खा सकती है।
फोर्ड उंडेशन की वेबसाइट के मुताबिक 2011 में केजरीवाल व मनीष की ‘कबीर’ नामक संस्था को करीब दो लाख अमेरिकी डॉलर का अनुदान मिला था। फॉरेन कॉन्ट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट-2010 के मुताबिक विदेशी धन पाने के लिए भारत सरकार की अनुमति लेना और राशी खर्च करने के लिए निर्धारित मानकों का पालन करना जरूरी होता है, लेकिन टीम केजरीवाल के सदस्यों ने नियमों का पालन नहीं किया
अरविंद केजरीवाल की शुरुआत ऐसे रास्तों से हो रही है, जिससे एक जमाने में मर्यादित राजनैतिक दल अपने शुरुआती समय में बचत थे। ‘इंडिया अंगेस्ट करप्शन’ अभियान से आंदोलन बनता, इसे पहले ही राजनैतिक महत्वाकांक्षा ने उससे बिखेर दिया। अन्ना और अरविंद में मतभेद वैचारिक नहीं, बल्कि इस मतभेद का आधार अविश्वास और राजनैतिक महत्वकांक्षा रही।
जब तक अरविंद केजरावाल को लगा कि अन्ना को अपने अनुसार चला सकते हैं, तबतक उनके पीछे रहे। लेकिन जैसे ही अन्ना हजारे ने पैसे और पारदर्शिता का सवाल उठाया, तब से मतभेद शुरू हुए। अब अरविंद केजरीवाल संसदीय राजनीति के रास्ते पर निकल चुके हैं। उन वादों के साथ, जो कभी आजादी के बाद सत्ता में आने वाले नेताओं ने किए और बाद में जेपी आंदोलन से निकले हुए राजनेताओं ने किए। अब उन्हीं नेताओं के खिलाफ उन्हीं की ही तरह के वादों के साथ केजरीवाल आए हैं। फैसला देश की जनता को करना है। वह इतिहास दोहराती है या फिर नया लिखती है
अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल की आखिरी साझा बैठक 19 सितंबर, 2012 को दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में हुई थी। बैठक के बाद बाहर आते ही अन्ना ने मीडिया से चौंकाने वाली बात कही थी कि राजनीति में कोई उनके नाम या चित्र का उपयोग नहीं करेगा। दिल्ली चुनाव में हम इसकी हकीकत देख चुके हैं।
वहीं बैठक में मौजूद लोगों के मुताबिक अन्ना ने केजरीवाल से एक सूत्र सवाल किया था। वह था कि आपके संगठन के लिए धन कहां से आएगा? इस सवाल पर केजरीवाल ने कहा कि जैसे औरों को आता है। इस जवाब में कई रहस्य छुपा था। दूसरे लोग इसे समझ रहे थे। यही वजह थी कि अन्ना ने तत्काल स्वयं को इससे अलग कर लिया। तो क्या दूसरे दलों की तरफ आम आदमी पार्टी भी चुनाव के लिए रुपए का इंतजाम कर रही थी? इसका जवाब आना है। हालांकि, अरविंद केजरीवाल कुछ और दावा कर रहे हैं।
यह भी समझना जरूरी है कि अन्ना ने अरविंद केजरीवाल से यह सवाल क्यों पूछा था? केजरीवाल के गैर सरकारी संगठन पर धन के स्रोतों को लेकर सवाल उठते रहे हैं। इस बाबत एक जनहित याचिका भी दिल्ली हाईकोर्ट में दायर हो चुकी है। खैर, यहां केजरीवाल और उनके संगठनों की पड़ताल से पहले कुछ तथ्यों को समझना उचित रहेगा है।
फोर्ड फाउंडेशन से रिश्ता
अमेरिकी खुफिया एंजेसी सीआईए और फोर्ड फाउंडेशन के दस्तावेजों पर आधारित एक किताब 1999 में आई थी। किताब का नाम है ‘हू पेड द पाइपर? सीआईए एंड द कल्चरल कोल्ड वार’। फ्रांसेस स्टोनर सांडर्स ने अपनी इस किताब में दुनियाभर में सीआईए के काम करने के तरीके को समझाया है। दस्तावेजों के आधार पर लेखक सान्डर्स ने सीआईए और कई नामचीन संगठनों के संबंधों को उजागर किया है। किताब के मुताबिक फोर्ड फाउंडेशन और अमेरिका के मित्र देशों के कई संगठनों के जरिए सीआईए दूसरे देशों में अपने लोगों को धन मुहैया करवाता है।
इतना ही नहीं, बल्कि अमेरिकी कांग्रेस ने 1976 में एक कमेटी बनाई थी। इस कमेटी की तहकीकात में जो जानकारी सामने आई, वह और चौंकाने वाली थी। जांच में पाया गया कि उस समय अमेरिका ने विविध संगठनों को 700 बार दान दिए, इनमें से आधे से अधिक सीआईए के जरिए खर्च किए गए।
यह पहली किताब नहीं है, जिसने इन तथ्यों को सामने रखा है। इसके पहले भी इस तरह की खुफिया एजेंसिओं के देश विरोधी गतिविधियों का पर्दाफाश होता रहा है। पहले के सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी केजीबी अब नही हैं। लेकिन केजीबी के कारनामे अब सबके सामने हैं। दस्तावेजों के आधार पर केजीबी पर किताब आ चुकी है। किताब कई खंडों में है। इसका नाम ‘द मित्रोखिन आर्काइव-द केजीबी एंड द वर्ल्ड’ है। इस किताब के दूसरे खंड के 17वें और 18वें अध्याय में भारत में केजीबी की गतिविधियों के बारे नें बताया गया है। पैसे के बल पर केजीबी ने भारत में अपने अनुकूल महौल समय-समय पर बनाता रहा। इसमें फोर्ड का भी जिक्र आया है। केजीबी से पैसा लेने वाले नाम बडे है। केजीबी की विदेशी गतिविधियों से संबंधित अभिलेख जिसके जिम्मे था, वही वासिली मित्रोखिन इस किताब के लेखक हैं।
केजीबी अब नही है, लेकिन सीआईए अब भी है। इसकी सक्रियता अपने चरम पर है। सीआईए की गतिविधि का एक सिरा केजरीवाल और उनके संगठनों पर विचाराधीन एक जनहित याचिका से जुड़ा है। दिल्ली हाईकोर्ट में इस याचिका के स्वीकार होने के बाद गृह मंत्रालय ने एफसीआरए के उल्लंघन के संदेह पर ‘कबीर’ नाम की गैर सरकारी संगठन के कार्यालय में छापे मारे। यह संस्था टीम अरविंद के प्रमुख सदस्य मनीष सिसोदिया के देख-रेख में चलती है। और यह अरविंद के दिशा निर्देश पर काम करती है। बहरहाल, कबीर के खिलाफ यह कार्रवाई 22 अगस्त, 2012 को हुई थी।
सुप्रीम कोर्ट के वकील मनोहर लाल शर्मा की इस याचिका में आठ लोगों को प्रतिवादी बनाया गया था, इनमें अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया के अलावा गृहमंत्रालय और फोर्ड फाउंडेशन भी शामिल है। केन्द्र सरकार को तीन महीने में जवाब देना था जो अवधि अगस्त महीने में पूरी हो चुकी। सरकार की तरफ से कोई जवाब नही आया। यहां सवाल ये उठता है कि केन्द्र सरकार अरविंद केजरीवाल के मामले में इतनी उदासीन क्यों है? इस सवाल के जवाब में यचिकाकर्ता मनोहरलाल शर्मा कहते है “ केन्द्र सरकार अरविंद केजरीवाल को इसलिए बचा रही है क्योंकि अरविंद केजरीवाल की मुहिम से कांग्रेस अपना राजनैतिक फायदा देख रही है”
मनोहरलाल शर्मा यही नही रुकते वो कहते हैं “ कांग्रेस सरकार के लिए अरविंद केजरीवाल अगर मुसीबत होते तो बाबा रामदेव और नितिन गडकरी की तरह ही जांच होती और अदालत में सरकार अपना पक्ष रख चुकी होती।” कुछ लोग यह भी मान रहे हैं कि कांग्रेस अरविंद केजरीवाल को आगे कर नरेंद्र मोदी की हवा का रुख बदलने की कोशिश कर रही है।
शर्मा कहते है “ केजरीवाल की भ्रष्टाचार भगाने की मुहिम फोर्ड फाउंडेशन के पैसे से चल रही है, फोर्ड फाउंडेशन अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए का फ्रंटल ऑर्गेनाइजेशन है जो दुनिया के कुछ देशों में सिविल सोसाइटी नाम से मुहिम चला रहा है।” शर्मा के मुताबिक फोर्ड फाउंडेशन कई देशों में सरकार विरोधी आंदोलनों को समर्थन देता रहा है। साथ ही आर्थिक सहयोग भी मुहैया कराता है। इसी रास्ते उन देशों में अपना एजेंडा चलाता है। केजरीवाल और उनकी टीम के अन्य सदस्य संयुक्त रूप से फोर्ड फाउंडेशन से आर्थिक मदद लेते रहे हैं।
शर्मा ने आगे कहा कि केजरीवाल ने खुद स्वीकारा है कि उन्होंने फोर्ड फाउंडेशन, डच एम्बेसी और यूएनडीपी से पैसे लिए हैं। फाउंडेशन की वेबसाइट के मुताबिक 2011 में केजरीवाल व मनीष की ‘कबीर’ नामक संस्था को करीब दो लाख अमेरिकी डॉलर का अनुदान मिला था। फॉरेन कॉन्ट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट-2010 के मुताबिक विदेशी धन पाने के लिए भारत सरकार की अनुमति लेना और राशी खर्च करने के लिए निर्धारित मानकों का पालन करना जरूरी होता है, लेकिन टीम केजरीवाल के सदस्यों ने नियमों का पालन नहीं किया”
ये सवाल भी लोग पूछ रहे हैं कि अरविंद केजरीवाल आखिर 20 सालों तक दिल्ली में ही कैसे नौकरी करते रहे? जबकि राजस्व अधिकारी को एक निश्चित स्थान व पद पर तीन वर्ष के लिए ही तैनात किया जा सकता है। अरविंद की पत्नी पर भी उनके महकमें की कृपा रही। ऐसे में सवाल तो उठेंगे ही, क्योंकि अशोक खेमका, नीरज कुमार और अशोक भाटिया जैसे अधिकारियों की हालत जनता देख रही है। अशोक खेमका को 19 साल की नौकरी में 43 तबादलों का सामना करना पड़ा है। नीरज कुमार को 15 साल के कैरियर में 15 बार इधर-उधर किया गया है।
स्रोत : http://goo.gl/bQMfvm

Post a Comment

Previous Post Next Post