भारतीय संसद की राजनीति रंगमंच पर जल्दी जल्दी पर्दा गिर रहा है… उठ रहा है। मंच पर किरदारों की ऐसी भगदड़ है कि जनता समझ ही नहीं पा रही कि नायक कौन है और विदूषक कौन। एक पल मोदी पर स्पॉट लाइट होती है, तो दूसरे पल आडवाणी मुट्ठी बांधे नजर आते हैं। जब तक आँख की पुतलियाँ ठीक करें, पीछे से नीतीश के शेर कराहने लगते हैं। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि हर एक किरदार की आवाज़ उसकी भावना को गौर से परखा जाए, दो दो बार तौला जाए, ताकि असल वजन ही सामने आए।
फिलहाल खबरों के घेरे में हैं नीतीश कुमार। जो पिछले दो दिनों से अपने भाजपा छोड़ने के फैसले की अलग अलग कैफियत दे रहे हैं। मगर इन बयानों के बाद भी नीतीश का एक सच उनके अतीत की बुनियाद पर खड़ा है। और इस सच से नीतीश के तीन हालिया झूठ ढहने लगते हैं।
पहला, भाजपा नहीं करती अपने बुजुर्गों का सम्मान
नीतीश कुमार बिहार के एक ऐसे नेता हुआ करते थे, जिनसकी पहचान लालू की टीम ओबोसी के एक मेंबर के रूप में थी। तीन बार चुनाव हारने के बाद वह विधानसभा की शक्ल देख पाए थे। लालू और सूबे के दूसरे समाजवादी नेताओं के आशीर्वाद से वह 1989 की वीपी सरकार के दौरान केंद्र में राज्य मंत्री भी बन गए। इसके बाद जनता दल में सिर्फ और सिर्फ लालू राज चला। मुलायम सिंह यादव पहले ही अलग हो गए और बाद में और भी धड़े अलग होते गए। तब नीतीश को कुछ सूझ नहीं रहा था। इमरजेंसी के पहले रेल स्ट्राइक के जरिए देश की याद में असल एंग्री यंग मैन के तौर पर जगह बना चुके जॉर्ज फर्नांडिस ने तब उन्हें एक पॉलिटिकल विजन दिया। बिहार को लालू की सोशल इंजीनियरिंग के पार ले जाने का विजन। इसी सोच ने दोनों का गठजोड़ किया और समता पार्टी की नींव डाली।
नब्बे के दशक में पहली बार लगा कि पिछड़े वर्ग का एक नेता हाथ में मशाल लेकर न सिर्फ लालू के ‘पिछड़ा को देखकर जलते हैं सब’, जैसे कमियों को छुपाने वाले नारे को जमींदोज कर देगा, बल्कि समाजवाद के बिगड़े हुलिए को भी संवारेगा। मगर नीतीश खेत रहे। बुरी तरह हारे। एक बार फिर जॉर्ज की दूरदर्शिता ने उन्हें राह दिखाई और पार्टी ने शुरुआती झिझक के बाद भाजपा का हाथ थाम लिया और एनडीए का हिस्सा बन गई। नीतीश को कमोबेश एक दशक के बाद फिर सत्ता सुख मिला। मंत्री पद हाथ में आया, तो रेलवे की रेवड़ियां बिहार में बंटने लगीं। मगर रेलवे चलाने को लेकर नीतीश का कौशल कभी काबिल-ए-जिक्र नहीं हो पाया। इस बीच साल 2000 में बिहार में विधानसभा चुनाव हुए। नीतीश की समता पार्टी को 34 सीटें मिलीं, जबकि भाजपा को 67…। फिर भी ये जॉर्ज का कौशल था कि एनडीए ने नीतीश को ही आगे गठबंधन के नेता और भावी सीएम के रूप में प्रोजेक्ट करने का फैसला किया।
फिर आया एक बड़ा सियासी मोड़। बिहार में बिना लालू के चल रहा जनता दल का दूसरा घटक यानी जदयू भी एनडीए के साथ आ गया। इसके बाद नींव पड़ी समता पार्टी और जनता दल के इस धड़े के मेल की। भाजपा के पाले में खड़े इन समाजवादियों की अब तिकड़ी बन गई थी। जॉर्ज, शरद और नीतीश। मगर फिर नीतीश को समझ आ गया कि जॉर्ज अब ज्यादा काम के नहीं। हालत ये हो गई कि 2004 के चुनाव में जॉर्ज को अपनी परंपरागत नालंदा सीट छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। उन्हें मुजफ्फरपुर धकेल दिया गया। नीतीश उनकी इस सीट से चुनाव जीत लोकसभा पहुंचे।
इसके बाद नीतीश ने अपने ढंग से सत्ता, शक्ति और संतुलन की बंदरबांट की। सेंटर की डीलिंग शरद यादव के हवाले कर दी गई और स्टेट में अपने सिपहसालार तैनात कर दिए गए। जॉर्ज और उनकी साथी और कभी समता पार्टी की आला नेता रही जया जेटली को किनारे लगा दिया गया।
कुछ ही बरसों में जॉर्ज पहले नेपथ्य और फिर बीमारी के बिस्तर पर चले गए। नीतीश ने बिहार में जातीय पेच दुरुस्त करने जारी रखे। 2005 की फरवरी में बिहार में चुनाव हुए, तो एनडीए गठबंधन सबसे बड़े दल के रूप में उभरा, मगर बहुमत का आंकड़ा अभी भी दूर था। नवंबर 2005 में फिर चुनाव हुए, तो नीतीश के नेतृत्व में गठबंधन विजेता बनकर उभरा। जश्न हुए समाजवादियों के इस धड़े में, मगर इसमें जॉर्ज नहीं थे।
ये सारी कहानी इसलिए क्योंकि नीतीश ने सोमवार को पटना में कहा कि भाजपा अपने बुजुर्गों की इज्जत नहीं कर रही है, उनके बताए-दिखाए रास्ते से भटक रही है।
दूसरा, दंगाइयों के साथ नहीं जा सकते हैं हम
नीतीश कुमार को भाजपा से परहेज नहीं है, नरेंद्र मोदी से है। वजह, नरेंद्र मोदी के राज में गुजरात में हुए दंगे। साल था 2002 का। उस वक्त नीतीश कुमार रेल मंत्री थे। ये सब जानते हैं कि दंगों की शुरुआत गोधरा में रेल बोगी जलाए जाने के बाद हुई। अब नैतिकता की बात करने वाले नीतीश ने तब कुछ नहीं कहा। सत्ता के शहद में अपने दोनों पैर रगड़ते रहे। उनसे ज्यादा ठोस स्टैंड तो बिहार के रामविलास पासवान ने लिया, जो इस मुद्दे पर इस्तीफा देकर एनडीए से अलग भी हो गए। मोदी सपोर्टर एक वीडियो इन दिनों खूब शेयर कर रहे हैं। ये गुजरात में शूट हुआ था। मौका था किसी रेलवे प्रोजेक्ट की शुरुआत का। मंच पर रेल मंत्री नीतीश के साथ मुख्यमंत्री मोदी थे। नीतीश ने कहा कि मुझे उम्मीद है कि देश को एक दिन नरेंद्र भाई की सेवाएं मिलेंगी। आज जब बदले राजनैतिक हालात में नीतीश के नरेंद्र भाई सेवाएं देने आ गए हैं, तो उन्हें छींक आ रही है। वे नाम लेने से बच रहे हैं, मगर उनके दांव को न समझने वाले को अनाड़ी भी कह रहे हैं। वीडियो पर उनकी सफाई है कि उन्होंने प्रोटोकॉल के चलते तारीफ की थी। कुछ दिनों में अगर नीतीश कांग्रेस की गोद में बैठ जाएं और यूपीए के विकास की तारीफ करने लगें, तो इसे भी प्रोटोकॉल के ही चश्मे से पढ़ा जाए।
और रही बात दंगाइयों की, तो नीतीश भूल जाते हैं कि जिन आडवाणी को आज वे एनडीए का सेक्युलर चेहरा बता रहे हैं, उन्हीं के मेटाडोर को रथ बनाकर निकलने के बाद देश में सिलसिलेवार ढंग से दंगे हुए थे। आडवाणी की रथयात्रा सोमनाथ से निकली थी और जहां जहां से गुजर रही थी, वहां बाद में सांप्रदायिक झड़पों की खबरें आ रही थीं। फिर लालू ने आडवाणी को बिहार में गिरफ्तार कर लिया। तब नीतीश लालू के खास सखा थे, रणनीतिक हिस्सेदार थे। मगर वह सब भूल गए।
लेकिन अब उन्हें अपने नए सोशल इंजीनियरिंग के फ्रेम में मुस्लिम वोटर अनिवार्य रूप से फिट करने हैं। इस स्कीम को मोदी की आमद पलीता लगा सकती है। सो वह त्याग का तर्क गढ़ रहे हैं। सांप्रदायिकता के खिलाफ सख्त तेवर दिखाने के लिए साथी का त्याग। और सनद रहे, इसलिए यह भी जान लें कि नीतीश आखिरी बार मोदी के साथ साझा मंच पर 2009 में नजर आए थे। मौका था पंजाब के लुधियाना में हुई एनडीए की रैली का। उस रैले के पहले भी बड़ा शोर था कि नीतीश आ रहे हैं, मगर इस शर्त पर की मोदी न आएं। शोर सुन्न में खो गया और दोनों आए। मोदी ने नीतीश को बिहार की कृषि क्रांति का जनक कहा। इस पर नीतीश न सिर्फ मुस्कुराए, बल्कि उन्होंने हाथ भी जोड़े अभिवादन में। रैली के बाद दोनों ने हाथ थाम तस्वीरें भी खिंचाई। इन तस्वीरों के छपने के बाद जब लालू एंड कंपनी ने नीतीश के धर्मनिरपेक्ष रवैये की लानत मलानत शुरू की, तब उन्हें ख्याल आया कि एनडीए तो ठीक है, मगर मोदी नहीं। उसके बाद से ये ‘तुम्हीं से मुहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई’ वाला रवैया शुरू हुआ। रुसवाई को दंगाई का नाम देना कहां का तकाजा है सुशासन बाबू।
तीसरा, मोदी की महत्वाकांक्षा पर टिप्पणी, पर नीतीश फॉर पीएम का क्या
नीतीश कुमार की तीसरी दिक्कत ये है कि वह अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को हमेशा सात सिम्तों में लपेटे रहते हैं। अभी तक उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में अपने दावे को लेकर कोई खुला बयान नहीं दिया। पूरे मीडिया में, देश में नरेंद्र मोदी के पक्ष-विपक्ष में विमर्श चल रहा है। पोल सर्वे भी मोदी और राहुल गांधी के इर्द गिर्द घूम रहे हैं। ऐसे में नीतीश फॉर पीएम कैसे मुमकिन हो। इसके लिए उनके राजनैतिक सलाहकारों ने बाकायदा एक रोड मैप तैयार किया है। शहरी वोटर विकास की बात करेगा, तो आंकड़े उछालते रहो, बिहार की हालात बदलने की बात करते रहो। संघीय हितों की बात करो, केंद्र को आंखें तरेरो, ताकि दूसरे राज्यों में सत्ता पर काबिज क्षेत्रीय दल आपके साथ सहज रहें, आपमें अपना सखा खोजें। सांप्रदायिकता के मुद्दे पर भाजपा का साथ छोड़ो। कुछ अगड़े वोटर जाएं, तो जाएं, मुस्लिम वोटरों से वह कमी पूरी हो जाएगी। अगर 20-25 सीटें भी ले आए, तो फेडरल फ्रंड की सीढ़ी सामने होगी। नजर और मंगलकामना होगी कि 2014 में किसी को भी स्पष्ट बहुमत न मिले। अगर देश के मूड पर जाएं तो एनडीए यूपीए को पीछे छोड़ देगा, मगर बहुमत से दूर रहेगा। तब 1996 की तरह लॉटरी लगेगी थर्ड फ्रंड की, जिसे इस बार फेडरल कहा जा रहा है। ममता अभी बंगाल में ही इतनी घिरी हैं कि केंद्र में दावेदारी की सोच भी नहीं सकतीं। उनके नाम पर कांग्रेस भी वीटो कर देगी। जयललिता ने कभी केंद्र पर काबिज होने की मंशा का संकेत भी नहीं दिया। लेफ्ट अभी तक यही तय नहीं कर पाया कि फिलहाल वह है किस फ्रंट में। कुछ छोटे प्लेयर्स हैं, जिनके पास दहाई में संख्या भी शायद न हो पाए। ऐसे में नीतीश को लगता है कि मोदी फॉर पीएम बस नारा ही रह जाएगा और वह देश के अगले देवेगौड़ा बन जाएंगे। उन्हें भरोसा है कि भाजपा छोड़ने की वजह से कांग्रेस भी बाहर से सपोर्ट के दौरान उनकी दावेदारी पर वीटो नहीं करेगी।
राजनीति नाम ही महात्वाकांक्षा की चौसर पर बस आगे बढ़ने का है। मगर कम से कम ये बयान तो दिया जाए कि हां, हम भी दावेदार हैं। ताकि खेल खुला रहे। नीतीश इससे परहेज कर रहे हैं और साथ ही एनडीए की सत्ता कामनाओं का भी कम और ज्यादा भरपूर मजाक बना, कांग्रेस की नजर में अपनी संभावनाएं पुख्ता कर रहे हैं।
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