धर्म का मूल है वेद - फरहाना ताज

Darshana taj
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पदार्थ जिससे जाएँ या जिसमें पाए जाएँ वह वेद है। प्रत्यक्ष अनुमान उपमान और आगम इन चार प्रमाणों में आगम वेद ही हैं। वेद ईश्वर की वाणी है और सृष्टि के आदिकाल में चार ऋषियों के माध्यम से परमात्मा ने सृष्टि के संविधान के रूप में इसे दिया। इस बात को विदेशी विद्वान मैक्समूलर तक ने स्वीकार किया है। 
     आर्यों में कौन ऐसा होगा जो वेद का आदर न करे और इस बात का अभिमान न करता हो कि हमारे धर्म का मूल वेद है। पुराण और तंत्रों ने वैष्णव, शैव, शाक्त आदि भिन्न-भिन्न संप्रदाय चला कर देश में यद्यपि बहुत अधिक भेद और अनैक्य फैला दिया, पर वेद के मानने में सब एक हो जाते हैं। और सब लोग अपने-अपने संप्रदाय का मूल वेद ही को मानते और कहते हैं। राष्ट्रीयता का तो वेद आधार है। जब तक हम वैदिक पथ का अनुसरण करते रहे हिंदू जाति बराबर प्रबल रही। उधर बौद्ध और जैनियों का उभड़ना, इधर पुराण और तंत्रों के प्रचार ने देश में ऐसी भेद बुद्धि पैदा कर दी कि हम बराबर क्षीणसत्व और क्षीणबल होते गए।  
लेखिका की पुस्तक- घर वापसी
वेद क्या है!
    धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पदार्थ जिससे जाएँ या जिसमें पाए जाएँ वह वेद है। प्रत्यक्ष अनुमान उपमान और आगम इन चार प्रमाणों में आगम वेद ही हैं। वेद ईश्वर की वाणी है और सृष्टि के आदिकाल में चार ऋषियों के माध्यम से परमात्मा ने सृष्टि के संविधान के रूप में इसे दिया। इस बात को विदेशी विद्वान मैक्समूलर तक ने स्वीकार किया है, जबकि उन्होंने भाष्य करते हुए वेदों में गडरियों गीत तक होने का दावा भी किया है, फिर भी उन्होंने वेदों को ईश्वर प्रणीत ही माना है। 
      प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों जहाँ गिर जाते हैं और उनसे काम नहीं चलता, वहाँ उस वस्तु को हम वेद ही से जान सकते हैं। इसी से वेद की वेदता है और उस वस्तु के जानने की इच्छा रखने वाला वेद का अधिकारी है। 
     मंत्र और ब्राह्मण के शब्दों का समूह वेद है। जिसका विनियोग किया जाय अर्थात यज्ञ आदि कर्मों में जो लगाया जाय या जिससे काम लिया जाय वह मंत्र है और जो काम उन मंत्रों से लिया गया उसके विधि की प्रशंसा जिसमें हो वह ब्राह्मण है। उन मंत्रों के इस भाँति विभाग किए हैं ऋग सोम और यजु जो मंत्र पाद अर्थात श्लोक की तरह है वह ऋग् है, जो गान के रूप में है वह साम है और जो गद्य रूप में है वह यजु है। 
"वेद शब्देभ्यं एवादौ पृथक् संख्याश्च निर्ममे।" 
अर्थात जैसा अग्नि, वायु, सूर्य प्राकृतिक हैं, तद्वत वेद भी प्राकृतिक हैं किसी के बनाए नहीं हैं। मान लो मनुष्यकृत भी है तो किस युग में ये बने इसका बतलाना अति कठिन है। इससे यही कहना युक्ति संगत है कि कब वेदों की उत्पत्ति की गई, यह नहीं जान सकते। 
वेद आर्य या हिन्दू के लिए ही नही, सबके लिए है 
    यह आर्यों का धर्मग्रंथ है और धर्म ग्रंथ कितने हैं उन्हें अवश्यमेव किसी ने बनाया है। तब वेदों को भी किसी ने बनाया ही होगा। हाँ, यह ठीक है किंतु वेद हिंदुओं का ही धर्म ग्रंथ नहीं है। यह तो तब का है जब आर्य, अनायं हिंदू तथा म्लेच्छ आदि संज्ञा रही ही नहीं और यह सार्वभौमिक अर्थात संसार भर के लिए है। केवल धर्म ही का विषय इसमें प्रतिपादित हो सो भी नहीं। अपितु कौन सी ऐसी बात है जिसकी संज्ञा का ज्ञान या पहले-पहल जिसका नाम हमें वेद से नहीं मालूम हुआ। वादी यहाँ पर अब यह कहेगा कि "वेद में यज्ञादि के विधान हैं तब यह केवल धर्म ग्रंथ नहीं तो और क्या है?" उत्तर में कहा जाता है कि "वादी को पहले तो यही भ्रम है जो वह यज्ञ का अर्थ अग्नि में होम या पूजा पाठ समझ रहा है। कितु यज्ञ के वास्तव में तात्पर्य किसी बड़े काम के हैं। बहुत से मनुष्य एक मन हो किसी बड़े काम को कर गुजरे, वह यज्ञ है। जैसा इस समय कांग्रेस इत्यादि किए जाते हैं। यज्ञ के जिससे यज्ञ शब्द बना है देव पूजा, संगतिकरण, दान आदि बहुत से अर्थ लिखे हैं।" इसी से वेद मनुष्य मात्र के लिए कहा जा सकता है न केवल आर्य या हिंदू ही मात्र के लिए। 
    आर्य संज्ञा तो तब से हुई जब संसार में बहुत से मनुष्य सब ओर फैल गए, तब जिनका उत्तम आचरण रहा वे आर्य हुए और जो निकृष्ट काम में लगे वे म्लेच्छ, असुर दस्यु आदि नाम से कहलाए। बहु-भाषा विद जब शब्दों के जड़ का पता लगाने लगते हैं और उसमें हिंदी की चिंदी निकालते हैं, जब लेटिन, ग्रीक आदि में जड़ का पता नहीं लगता, तब लाचार हो संस्कृत में उसे ढूँढ़ते हैं। जितने प्राकृतिक शब्द हैं जिनसे प्राकृतिक पदार्थों का ज्ञान होता है। सब वेद की भाषा में पाए जाते हैं। 
    शब्द ज्ञान का विषय इतना गहन और दगंम है कि यास्क आदि निरुक्तिकारो ने बहुत कुछ छानवीन किया, उपरांत पाणिनि, पतंजलि और कात्यायन आदि कितने वैयाकरण व्याडि, शाकटायन, शाकल्य आदि न जानिए कितनों ने शब्द वारिधि में गोते मार-मार शब्द मौक्तिकों को निकाला। जिनसे इस समय की यावत सभ्य जाति भाषा के ज्ञान में उठा रही है। 
वेद अनादि है 
      ईसाई जो बाइबिल को धर्म पुस्तक कहते हैं और दावा करते हैं कि समग्र संसार के लिए ईसाई धर्म है और बाइबिल ही सच्ची पुस्तक है। उसमें भी वेद की चोरी का पता लगता है। यहुन्ना की इंजील के प्रारंभ में आयत है, जिसमें कहा गया है कि "प्रारंभ में शब्द समूह ही थे और शब्द ही ईश्वर धा",  जिसे पहले ही हम लिख आए हैं। अब यहाँ पर यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि पुराणों से वेद को क्या धक्का पहुँचा। वेद का समय पहले-पहल निरा पंचभौतिक विज्ञान का था। उस समय के हमारे आदि ऋषि लोगो से कोई विज्ञान या विद्या नहीं बची, जिनका सूत्रपात वे नहीं कर गए। उपरांत आध्यात्मिक या अपंचभौतिक तत्वों की गवेषणा आरंभ हुई, उसमें भी वैदिक ऋषि सम्यक् पारगामी हुए। 
पुराणों में गलत अनुवाद 
     मुसलमानों के विजयी होने पर जब से हिंदू जाति अपनी स्वतंत्रता खो बैठी, तब से इनकी असाधारण मानसिक शक्ति तथा शौर्य, वीर्य आदि उदार गुणों के स्रोत पर डाट सी लगा दी गई। बहुधा लोग भकुआ मालाधारी भक्त बन गए, जिससे वेद को अधिक धक्का पहुंचा और उसका तत्वार्थ ढँप गया वह पुराणों का अलंकारिक वर्णन हैं। जैसा वृत्रासुर का इतिहास इंद्र और अहल्या की कथा। 
     इंद्र एक नाम परमैश्वर्य युक्त परमेश्वर का है, अहल्या का अर्थ यास्क ने निरुक्त में रात्रिका लिखा है, जार का अर्थ क्षय से हैं। समस्त तेजयुक्त सूर्य ही इंद्रपद वाच्य यहाँ है। सूर्य के उदय होने पर रात्रि का क्षय होता है, यही वास्तविक अर्थ इंद्र के अहल्या जार का हुआ। इसी को रोचक और भयानक के क्रम पर पुराणों में इंद्र को अहल्या का जार बनने के लिए एक रूपक खड़ा कर दिया गया। ऐसी ही प्रजापति का स्वकन्यानुगमन वाली कल्पना भी कल्पित की गई है। ऐतरेय ब्राह्मण 3.3.9 प्रपाठक हैं- 
प्रजापति स्वदुहितरमभ्यध्यायत् 
   अर्थात: प्रजा के पालन का अधिकार सूर्य का है, इसलिए कि सूर्य गरमी से अन्न उपजाता है, फल सब पकते हैं। सूर्य उदय होते ही ऊषा पौफट होने लगता है। ऊषा का जन्म तभी होता है जब अरुणोदय होने लगता है। 
     तो सिद्ध हुआ ऊषा मानो सूर्य की दुहिता कन्या रूप हुई स्त्री और पुरुष के संभोग सदृश अरुण रूप किरण वीज के समान सूर्य उसमें निक्षेप करते हैं। इस कथा को अत्यंत अनर्गल और भ्रष्ट कर पुराणकारों ने वर्णन किया है- काम कितना भयानक है कि प्रजापति को भी अपने वश कर लिया इससे काम अपंचभौतिक तत्वों की को दबाना ही कल्याण का मार्ग है। यह इससे उपदेश निकाला। 
     इत्यादि, जितने रूपक इतिहास के क्रम पर पुराणों में गढ़ दिए है, सभी का ऐसा ही एक-एक तात्पर्य निकलता है। वृत्रासुर की कथा, समुद्र मंथन आदि इतिहास सब रूपक में विस्तार के साथ रोचक कर ऐसा दिखाए गए हैं कि वास्तविक अंश उनका बिलकुल छिप गया। 
फरहाना ताज की घर वापसी की सच्ची कहनी! (वीडियो)


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