शक्ति-पूजा का विस्मरण


Durga Pooja
चीख-चीख कर रतजगा करना शेराँ वाली देवी की पूजा नहीं, पूजा है किसी संकल्प के साथ शक्ति-आराधन करना। सम्मान से जीने के लिए मृत्यु का वरण करने के लिए भी तत्पर होना। किसी तरह चमड़ी बचाकर नहीं! बल्कि दुष्टता की आँखों में आँखें डालकर जीने की रीति बनाना। यही वह शक्ति-पूजा है, जिसे भारत के लोग लंबे समय से विस्मृत कर चुके हैं।

कश्मीर के विस्थापित डॉक्टर कवि कुन्दनलाल चौधरी ने अपने कविता संग्रह ‘ऑफ गॉड, मेन एंड मिलिटेंट्स’ की भूमिका में प्रश्न रखा थाः “क्या हमारे देवताओं ने हमें निराश किया या हम ने अपने देवताओं को?” इसे उन्होंने कश्मीरी पंडितों में चल रहे मंथन के रूप में रखा था। सच पूछें, तो यह प्रश्न संपूर्ण भारत के लिए है। इस का एक ही उत्तर है कि हम ने देवताओं को निराश किया। उन्होंने तो हरेक देवी-देवता को, यहाँ तक कि विद्या की देवी सरस्वती को भी शस्त्र-सज्जित रखा था। और हमने शक्ति की देवी को भी मिट्टी की मूरत में बदल कर रख दिया। चीख-चीख कर रतजगा करना शेराँ वाली देवी की पूजा नहीं। पूजा है किसी संकल्प के साथ शक्ति-आराधन करना। सम्मान से जीने के लिए मृत्यु का वरण करने के लिए भी तत्पर होना। किसी तरह चमड़ी बचाकर नहीं, बल्कि दुष्टता की आँखों में आँखें डालकर जीने की रीति बनाना। यही वह शक्ति-पूजा है, जिसे भारत के लोग लंबे समय से विस्मृत कर चुके हैं।

श्रीअरविंद ने अपनी रचना “भवानी मंदिर” (1905) में क्लासिक स्पष्टता से यह कहा था। उनकी बात हमारे लिए नित्य-स्मरणीय हैः “हमने शक्ति को छोड़ दिया है और इसलिए शक्ति ने भी हमें छोड़ दिया है। कितने प्रयास किए जा चुके हैं। कितने धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक आंदोलन शुरू किए जा चुके हैं। लेकिन सबका एक ही परिणाम रहा या होने को है। थोड़ी देर के लिए वे चमक उठते हैं, फिर प्रेरणा मंद पड़ जाती है, आग बुझ जाती है और अगर वे बचे भी रहें तो खाली सीपियों या छिलकों के रूप में रहते हैं, जिन में से ब्रह्म निकल गया है।”

अंग्रेजों ने हमें निःशस्त्र करके हमें नपुंसक बनाया है
शक्ति की कमी के कारण ही हमें विदेशियों की पराधीनता में रहना पड़ा था। अंग्रेजों ने सन् 1857 के अनुभव के बाद सचेत रूप से भारत को नि:शस्त्र किया। गहराई से अध्ययन करके वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे, कि इसके बिना उनका शासन असुरक्षित रहेगा। तब भारतीयों को निःशस्त्र करने वाला ‘आर्म्स एक्ट’ (1878) बनाया। गाँधीजी ने अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में गलत बात लिखी कि अंग्रेजों ने हमें हथियार बल से गुलाम नहीं बना रखा है। वास्तविकता अंग्रेज जानते थे, कांग्रेस भी जानती थी। इसीलिए वह सालाना अपने अधिवेशनों में उस एक्ट को हटाने की माँग रखती थी। कांग्रेस ने सन् 1930 के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन में भी प्रस्ताव पास करके कहा था कि “अंग्रेजों ने हमें निःशस्त्र करके हमें नपुंसक बनाया है।”  

मगर इसी कांग्रेस ने सत्ता पाने के बाद देश को उसी नपुंसकता में रहने दिया! यदि स्वतंत्र होते ही अंग्रेजों का थोपा हुआ आर्म्स एक्ट खत्म कर दिया गया होता, तो भारत का इतिहास कुछ और होता। हर सभ्यता में आत्मरक्षा के लिए अस्त्र-शस्त्र रखना प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार रहा है। इसे यहाँ अंग्रेजों ने अपना राज बचाने को प्रतिबंधित किया, और कांग्रेस के शब्दों में हमें ‘नपुंसक’ बनाया! हम सामूहिक रूप में निर्बल, आत्मसम्मान विहीन हो गए। पीढ़ियों से ऐसे रहते अब यह हमारी नियति बन गयी है।

आज हर हिन्दू को घर और स्कूल, सब जगह यही सीख मिलती है। कि पढ़ो-लिखो, लड़ाई-झगड़े न करो। यदि कोई झगड़ा हो रहा हो, तो आँखें फेर लो। किसी दुर्बल बच्चे को कोई उद्दंड सताता हो, तो बीच में न पड़ो। तुम्हें भी कोई अपमानित करे, तो चुप रहो। क्योंकि तुम अच्छे बच्चे हो, जिसे पढ़-लिख कर डॉक्टर, इंजीनियर या व्यवसायी बनना है। इसलिए बदमाश लड़कों से मत उलझना। समय नष्ट होगा। इस प्रकार, किताबी जानकारी और सामाजिक कायरता का पाठ बचपन से ही सिखाया जाता है। बच्चे दुर्गा-पूजा करके भी नहीं करते! उन्हें कभी नहीं बताया जाता कि दैवी अवतारों तक को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा लेनी पड़ती थी। क्योंकि दुष्टों से रक्षा के लिए शक्ति-संधान अनिवार्य मानवीय स्थिति है। अपरिहार्य कर्तव्य है।
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हिन्दू को समझ नहीं आता कि कहाँ गड़बड़ी हुई?
वर्तमान भारत में हिन्दू बच्चों को वास्तविक शक्ति-पूजा से प्लेग की तरह बचा कर रखा जाता है! फिर क्या होता है, यह पंजाब, बंगाल और कश्मीर के हश्र से देख सकते हैं। सत्तर साल पहले इन प्रदेशों में विद्वता, वकालत, अफसरी, बैंकिंग, पत्रकारिता, डॉक्टरी, इंजीनियरी आदि तमाम सम्मानित पदों पर प्रायः हिन्दू ही आसीन थे। फिर एक दिन आया जब कुछ बदमाश बच्चों ने इन्हें सामूहिक रूप से मार, लताड़ और कान पकड़ कर बाहर भगा दिया। अन्य अत्याचारों की कथा इतनी लज्जाजनक है कि हिन्दुओं से भरा हुआ मीडिया उसे प्रकाशित करने में भी अच्छे बच्चों सा व्यवहार करता है। या गाँधीजी का बंदर बन जाता है।  

तब अपने ही देश में अपमानित, बलात्कृत, विस्थापित, एकाकी हिन्दू को समझ नहीं आता कि कहाँ गड़बड़ी हुई? उस ने तो किसी का बुरा नहीं चाहा। उसने तो गाँधी की सीख मानकर दुष्टों, पापियों के प्रति भी प्रेम दिखाया। कुछ विशेष प्रकार के दगाबाजों, हत्यारों को भी ‘भाई’ समझा, जैसे गाँधीजी करते थे। तब क्या हुआ, कि उसे न दुनिया के मंच पर न्याय मिलता है, न अपने देश में? उलटे, दुष्ट दंबग बच्चे ही अदबो-इज्जत पाते हैं। प्रश्न मन में उठता है, किन्तु अच्छे बच्चे की तरह वह इस प्रश्न को भी खुल कर सामने नहीं रखता। उसे आभास है कि इससे बिगड़ैल बच्चे नाराज हो सकते हैं। कि ऐसा सवाल ही क्यों रखा? तब वह मन ही मन प्रार्थना करता हुआ किसी अवतार की प्रतीक्षा करने लगता है।

हिन्दू मन की यह पूरी प्रक्रिया बिगड़ैल बच्चे जानते हैं
यशपाल की एक कहानी हैः फूलो का कुर्ता। फूलो पाँच वर्ष की एक अबोध बालिका है। उसके शरीर पर एक मात्र वस्त्र उसकी फ्रॉक है। किसी प्रसंग में लज्जा बचाने के लिए वह वही फ्रॉक उठाकर अपनी आँख ढँक लेती है। कहना चाहिए कि दुनिया के सामने भारत अपनी लज्जा उसी बालिका समान ढँकता है, जब वह खूँखार आतंकवादियों को पकड़ के भी सजा नहीं दे पाता। बल्कि उन्हें आदर पूर्वक घर पहुँचा आता है! जब वह पड़ोसी बिगड़ैल देशों के हाथों निरंतर अपमानित होता है, और उन्हीं के नेताओं के सामने भारतीय कर्णधार हँसते फोटो खिंचाते हैं। इस तरह ‘ऑल इज वेल’ की भंगिमा अपना कर लज्जा छिपाते हैं। स्वयं देश के अंदर पूरी हिन्दू जनता वही क्रम दुहराती है, जब कश्मीरी मुसलमान ठसक से हिंन्दुओं को मार भगाते हैं, और उलटे नई दिल्ली पर शिकायत पर शिकायत ठोकते हैं। फिर भारत से ही से अरबों रूपए सालाना फीस वसूल कर दुनिया को यह बताते हैं कि वे भारत से अलग और ऊँची चीज हैं। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर ‘आजाद कश्मीर’ है, यह बयान श्रीनगर की गद्दी पर बैठे कश्मीरी मुसलमान देते है!

मुस्लिम रहनुमाओ को कभी होली, दीवाली मनाते देखा है?
दूसरे प्रदेशों में भी कई मुस्लिम नेता खुले आम संविधान को अँगूठा दिखाते हैं, उग्रवादियों, दंगाइयों की सामाजिक, कानूनी मदद करते हैं। जिस किसी को मार डालने के आह्वान करते हैं। जब चाहे विदेशी मुद्दों पर उपद्रव करते हैं, पड़ोसी हिन्दुओं को सताते-मारते हैं। फिर भी हर दल के हिन्दू नेता उनकी चौकठ पर नाक रगड़ते नजर आते हैं। वे हर हिन्दू नेता को इस्लामी टोपी पहनने को विवश करते हैं, मगर क्या मजाल कभी खुद भी रामनामी ओढ़ लें! उनके रोजे इफ्तार में हर हिन्दू नेता की हाजिरी जरूरी है, मगर वही मुस्लिम रहनुमा कभी होली, दीवाली मनाते नहीं देखे जा सकते। यह एकतरफा सदभावना और एकतरफा सेक्यूलरिज्म भी बालिका फूलो की तरह हिन्दू भारत की लज्जा छिपाती है।

डॉ. भीमराव अंबेडकर की ऐतिहासिक पुस्तक ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ (1940) में अच्छे और बिगड़ैल बच्चे, दोनों की संपूर्ण मनःस्थिति और परस्पर नीति अच्छी तरह प्रकाशित है। मगर अच्छे बच्चे ऐसी पुस्तकों से भी बचते हैं। वे केवल गाँधी की मनोहर पोथी ‘हिन्द स्वराज’ पढ़ते हैं, जिसमें लिखा है कि आत्मबल तोपबल से भी बड़ी चीज है। इसलिए वे हर कट्टे और तमंचे के सामने कोई मंत्र पढ़ते हुए आत्मबल दिखाने लगते हैं।

यह पूरी स्थिति देश के अंदर और बाहर वाले बिगड़ैल बखूबी जानते हैं। जबकि अच्छा बच्चा समझता है कि उसने चुप रहकर, या मीठी बातें दुहराकर, एवं उद्योग, व्यापार, कम्प्यूटर और सिनेमा में पदक हासिल कर दुनिया के सामने अपनी लज्जा बचा ली है। उसे लगता है किसी ने नहीं देखा कि वह अपने ही परिवार, अपने ही स्वधर्मी देशवासी को गुंडों, उग्रवादियों के हाथों अपमानित, उत्पीड़ित होने से नहीं बचा पाता। सामूहिक और व्यक्तिगत दोनों रूपों में। अपनी मातृभूमि का अतिक्रमण नहीं रोक पाता। उसकी सारी कार्यकुशलता और अच्छा बच्चापन इस दुःसह वेदना का उपाय नहीं जानता। यह लज्जा छिपती नहीं, बल्कि और उजागर होती है, जब सेक्यूलर बच्चे मौन रखकर हर बात आयी-गयी करने की दयनीय कोशिश करते हैं।
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डॉ. भीमराव अंबेडकर की ऐतिहासिक पुस्तक ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ (1940) में अच्छे और बिगड़ैल बच्चे, दोनों की संपूर्ण मनःस्थिति और परस्पर नीति अच्छी तरह प्रकाशित है। मगर अच्छे बच्चे ऐसी पुस्तकों से भी बचते हैं। वे केवल गाँधी की मनोहर पोथी ‘हिन्द स्वराज’ पढ़ते हैं, जिसमें लिखा है कि आत्मबल तोपबल से भी बड़ी चीज है। इसलिए वे हर कट्टे और तमंचे के सामने कोई मंत्र पढ़ते हुए आत्मबल दिखाने लगते हैं। फिर कोई सुफल न पाकर कलियुग को रोते हैं। स्वयं को कभी दोष नहीं देते, कि अच्छे बच्चे की उन की समझ ही गलत है। कि उन्होंने अच्छे बच्चे को दब्बू बच्चे का पर्याय बना दिया, जिस से बिगड़ैल और शह पाते हैं। कि यह प्रकिया सवा सौ साल से अहर्निश चल रही है। शक्ति-पूजा भुलाई जा चुकी है। यही अनेक समस्याओं की जड़ है।

अपमानित जीना मरने से बदतर है
आज नहीं कल, यह शिक्षा लेनी पड़ेगी कि अच्छे बच्चे को बलवान और चरित्रवान भी होना चाहिए। कि आत्मरक्षा के लिए परमुखापेक्षी होना गलत है। मामूली धौंस-पट्टी या बदमाशों तक से निपटने हेतु सदैव पुलिस प्रशासन के भरोसे रहना न व्यवहारिक, न सम्मानजनक, न शास्त्रीय परंपरा है। अपमानित जीना मरने से बदतर है। दुष्टता सहना या आँखें चुराना दुष्टता को खुला प्रोत्साहन है। रामायण और महाभारत ही नहीं, यूरोपीय चिंतन में भी यही सीख है। हाल तक यूरोप में द्वंद्व-युद्ध की परंपरा थी। इसमें किसी से अपमानित होने पर हर व्यक्ति से आशा की जाती थी कि वह उसे द्वंद्व की चुनौती देगा। चाहे उसमें उसकी मृत्यु ही क्यों न हो जाए।

इसलिए, कहने को प्रत्येक शरद ऋतु में करोड़ों हिन्दू दुर्गा-पूजा मनाते है। इसे शक्ति-पूजन भी कहते हैं। किन्तु यह वह शक्ति-पूजा नहीं, जो स्वयं भगवान राम को राक्षसों पर विजय पाने के लिए आवश्यक प्रतीत हुई थी। जिसे कवि निराला ने अपनी अदभुत रचना ‘राम की शक्तिपूजा’ में पूर्णतः जीवन्त कर दिया है। आइए, उसे एक बार ध्यान से हृदयंगम करें!


शंकर शरण
डॉक्टरेट तक की शिक्षा। हिंदी लेखक, राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर है। मूलत: जमालपुर, बिहार के रहनेवाले। राष्‍ट्रीय समाचार पत्रों में समसामयिक मुद्दों पर अग्रलेख प्रकाशित होते रहते हैं। ‘मार्क्सवाद और भारतीय इतिहास लेखन’ जैसी गंभीर पुस्‍तक लिखकर बौद्धिक जगत में हलचल मचाने वाले शंकर जी की लगभग दर्जन भर पुस्‍तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

KEYWORD: Bhawani, Mandir, Sri Arvind, Arms Act 1878, Hind Swaraj, Lahaur Adhiveshan,  Durga Pooja, Yashpal, Pakistan ya Bharat ka Batwara, Ram, Shankar Sharan, CNN80,

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