भारतीय गगन की देदीप्यमान तारिका पद्मिनी की गोरव गाथा से कौन भारतीय अपरिचित होगा? अलाउद्दीन खिलजी ने पद्मिनी के अनुपम सौन्दर्य की कथा सुनकर सन् 1301 में चित्तौड पर आक्रमण किया। वीर राजपूतों ने डटकर मुकाबला किया। कई मास तक जब खिलजी को विजय की कोई आशा नहीं दिखाई दी तो उसने छल कपट से काम लिया।
खिलजी ने महाराज भीमसिंह को सन्धि की बातचीत के लिए बुलाया और जब भीमसिंह खिलजी के कैम्प में पहुंचे तो उन्हें बन्दी बना लिया गया। रिहाई के लिए यह शर्त रखी गयी कि शीशे में पद्मिनी का मुख दिखाने का प्रबंध किया जाये। पद्मिनी को पता लगा तो वह सात सौ डोलियों में 3500 राजपूत जवानों को लेकर अलाउद्दीन के डेरे में पहुंची और वहाँ भीषण मारकाट कर अपने पति को अलाउद्दीन की कैद से छुडा लाई। खिलजी को दुम दबाकर भागना पडा।
इस पराजय से खिन्न होकर खिलजी ने एक वर्ष के पश्चात भारी सेना लेकर फिर आक्रमण किया। चित्तौड में मुकाबले के लिए सेना कम थी। राजपूत वीर केसरिया बाना पहनकर अन्तिम श्वास् तक लडें और लडते लडते शहीद हो गये। उधर पद्मिनी ने चिताएँ तैयार कराईं। चौदह हजार राजपूत विरांगना आग में कूदकर भस्म हो गयी।
जब अलाउद्दीन ने पद्मिनी को पाने के लिए दुर्ग में प्रवेश किया तो देखा कि चिताएं धू धू करके जल रही है। इधर उधर दृष्टि दौडाने पर उसने देखा कि एक बूढी ओरत बैठी है। खिलजी ने आगे बढकर बूढी से पूछा कि "पद्मिनी कहाँ है?" बूढी औरत ने चिता की और संकेत करके बताया कि वह तो समाप्त हो चुकी, परन्तु तुम्हारे लिए एक संदेश छोड गयी है। खिलजी ने कहा कि "जल्दी बता, उसने मेरे लिए क्या सन्देश दिया था?"
बूढी ओरत बोली-पद्मिनी ने कहा था―
ओ पापी! तू इस सूरत को पा नहीं सकता।
यह भोजन शेर का है कुत्ता खा नहीं सकता।।
बूढी ओरत बोली-पद्मिनी ने कहा था―
ओ पापी! तू इस सूरत को पा नहीं सकता।
यह भोजन शेर का है कुत्ता खा नहीं सकता।।
यह कहकर वह औरत भी चिता में कूद पड़ी …!
भारतवर्ष की इन गौरवमयी परम्पराओं व संस्कृति को हमें जीवित रखना है।
भंसाली जैसे लोग खिलजी के वहशीपन को अथाह प्रेम दिखाकर न केवल रानी पद्मिनी के बलिदान का उपहास किया जा रहा हैं। अपितु सत्य और प्रेरणादायक इतिहास को भी विकृत किया जा रहा हैं। शोक! महाशोक!
धन्य है महारानी पद्मनी जैसी भारतीय विरांगनाएं जिनके अमर बलिदान की गाथा आज भी सदियों से हिन्दू समाज को प्रेरणा देती आयी है और देती रहेगी।
[साभार: "भारत की अवनति के सात कारण" पुस्तक से, लेखक:स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती]
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