वो राजा जिन्होंने झांसी की रानी को मारने के लिए ब्रिटिश सरकार की मदद की! उनके परिवार के सदस्य आज भी संसद में बैठते हैं!

रानी लक्ष्मीबाई

जब भी हम भारतीय इतिहास के बारे में बात करते हैं, हम अक्सर अपने राजाओं और रानियों के अपने लोगों से विश्वासघात, धोखाधड़ी और पीछे हटने की कहानियां पाते हैं। कुछ जो लालची थे और सत्ता का आनंद लेना चाहते थे, उन्होंने अंग्रेजों से कभी भी लड़ाई नहीं लड़ी और हार मान के ईस्ट इंडिया कंपनी का हिस्सा बन गया, परिणामस्वरूप वे उन कुछ बहादुर राजाओं और रानियों के खिलाफ हो गये जो ब्रिटिशों के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार थे।

एक ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण रानी थी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई जिन्होंने आंतरिक तख्तापलट की वजह से अपना जीवन खो दिया था। लक्ष्मी बाई को एक सबसे साहसी और बहादुर योद्धा माना जाता था, वे अपने पति की मृत्यु के बाद अकेले अंग्रेजों के खिलाफ लड़ी थी। हालांकि वह एक महिला थी, उनका साहस और वीरता किसी भी पुरुष से कम नहीं था, वो पुरुषों की तरह कपड़े पहने, हाथ में तलवार रखे हुए युद्ध मैदान पर सैनिकों का नेतृत्व करती थी ।

1850 के दशक के दौरान कानपुर, फैजाबाद, पटना, लखनऊ, झांसी, मेरठ, दिल्ली और ग्वालियर के क्षेत्रों में ब्रिटिश के विरुद्ध बहुत युद्ध लड़े गये। इन लड़ाइयों में सबसे महत्वपूर्ण थे वो राजा जो वास्तव में भारत का समर्थन करते थे और ब्रिटिश शासन को समाप्त करना चाहते थे। बहुत से राजा और रानियाँ जो वास्तव में देश के लिए लड़े या तो लड़ाई हार गए या ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों के शिकार हो गये । रानी लक्ष्मी बाई उनमे से एक थी।

ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों का उद्देश्य केवल भारत में शक्तिशाली राजाओं के शासन को समाप्त करना था। इसलिए उन्होंने ‘डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स”  की शुरुआत की। डलहौज़ी ने इसी तरह सातारा, नागपुर और झांसी के मराठा राज्यों पर कब्जा कर लिया। लक्ष्मी बाई ने अपने पति की मृत्यु के बाद आनंद राव नामक एक पुत्र को अपना लिया था जो कि अंग्रेजों द्वारा उचित रूप से खारिज कर दिया गया था। इसने लक्ष्मी बाई के अन्दर गुस्सा प्रज्वलित कर दिया और उन्होंने ब्रिटिश राज के अधीन होने से इनकार कर दिया था।

लॉर्ड डलहौज़ी के तहत अंग्रेजों ने अवध की भी शुरुआत की और हजारों सैनिक बेरोजगार हो गये। भूमि पर उनकी नीतियों ने  पूरी तरह से दोनों किसानों और जमींदारों को बर्बाद कर दिया। भारतीय हस्तशिल्प पूरी तरह से मिट गये और कारीगरों बुरी तरह से तबाह हो गये। उन्होंने इंग्लैंड के सामानों के लिए बाजार खोल दिया और सभी भारतीय कारीगर के पास कोई काम नही बचा ।

लक्ष्मी बाई, तनावपूर्ण स्थिति के बावजूद भी शांत रही और जब तक आवश्यक नहीं था तब तक अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह नहीं करना चाहती थी। लेकिन वर्ष 1858 में, सर ह्यूग रोज ने झाँसी पर हमला किया और राज्य के आत्मसमर्पण की मांग की। लक्ष्मीबाई ने आत्मसमर्पण न करने का फैसला किया और अपने राज्य की रक्षा करने का निर्णय लिया। लड़ाई 2 हफ्तों तक चली और झांसी पर भारी गोलीबारी हुई और उसके किले नष्ट हो गए। झाँसी सेना में, महिलाएं भी गोला-बारूद कर रही थीं और सैनिकों को भोजन की आपूर्ति कर रही थीं।

लक्ष्मी बाई बहुत सक्रिय थी और वह पूरी तरह से साहस के साथ सेना का अकेले नेतृत्व कर रही थी। वह हर रोज सेना बलों का निरीक्षण करती और उनकी जरूरतों का भी ध्यान रखती। इसी बीच उस समय विद्रोही नेता तांत्या टोपे की अध्यक्षता में 20,000 सैनिकों की एक सेना को झांसी को राहत देने और लक्ष्मीबाई को आजादी दिलवाने के लिए भेजा गया था।


हालांकि ब्रिटिश के पास सिर्फ 1600 सैनिक थे, जिनके पास उन्नत हथियार थे और वे तांत्या टोपे और लक्ष्मीबाई के सैनिकों की तुलना में बहुत अच्छी तरह प्रशिक्षित थे। लक्ष्मी बाई की सेना शक्तिशाली ब्रिटिशों से लड़ने में सक्षम नहीं थे।इस स्थिति को समझते हुए, लक्ष्मीबाई रात में अपने बेटे आनंद राव के साथ शहर से भाग गयी और अपने बलों के साथ कल्प (ग्वालियर के पास) पहुंची जहाँ अन्य विद्रोही बलों सहित वै तात्या टोपे के सेना में शामिल हो गयी।

यहां से तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई की संयुक्त सेना ने ग्वालियर शहर में प्रवेश किया, जहां उन्होंने ग्वालियर के महाराजा जयजीराव सिंधिया की सेना को हराया जो अपने देश के खिलाफ चले गए थे और लड़ाई के बिना ब्रिटिश के हाथों में हार स्वीकार कर चुके थे ।

यह समय था जब ग्वालियर के राजा ने लक्ष्मी बाई को धोखा दिया था। लक्ष्मीबाई और तांता टोपे ने राजा को हराकर एक किले पर कब्जा कर लिया था जहां उन्होंने अपनी सेना को आरक्षित किया था। ग्वालियर के राजा ने लक्ष्मी बाई को मदद करने का ढोंग किया और उसे एक कमजोर घोड़ा दिया और कहा कि झांसी से भागने के बाद उसका भरोसेमंद घोड़ा मर गए थे। इसी कमजोर घोड़े का इस्तेमाल करते हुए जो अच्छी तरह से नदी पार करने के सक्षम भी नही था, लक्ष्मी बाई दुश्मन की सेनाओं का सामना करने के लिए ग्वालियर वापस चली गयी।

लड़ाई के दौरान, लक्ष्मीबाई पर ब्रिटिश सेना ने हमला किया और गंभीर रूप से हमले में उन्हें घायल कर दिया। वह ठीक नही हो पायी और 17 जून 1858 को उनका निधन हो गया। जनरल ह्यूग रोज जिन्होंने बहादुर झांसी की रानी का सामना किया उन्होंने उनके बारे में कहा की वो विद्रोहियों में सबसे खतरनाक थी और उनकी सुंदरता, चतुराई और दृढ़ता का भी उल्लेख किया।

ग्वालियर के इस राजा को झांसी की रानी की मौत के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जाता है क्योंकि उन्होंने कमजोर घोड़ा देकर उन्हें शहर से भागने से रोका। लक्ष्मीबाई को धोखा देने के लिए जिम्मेदार परिवार आज भी सत्ता और महिमा का आनंद ले रहे हैं। माधव राव सिंधिया केंद्र सरकार में मंत्री थे और उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया आज भी संसद में राहुल गांधी और सोनिया गाँधी का साथ देते है।
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