जब किले में रसद सामग्री समाप्त हो गई
चित्तौड़गढ़ (मेवाड़) के रावल रतनसिंह सभी मनसबदारों, और सेनापति सरदारों से मन्त्रणा कर के इस नतीजे पर पहूँचे कि, धोखा तो हमारे साथ हो चुका है! हमने वही भूल की जो हमारे पूर्वज करते रहे परंतु धर्म यही कहता है कि अतिथि देवो भव ओर शत्रु ने हमारी पीठ मे छूरा घोंपा है, हम ने धर्म की रक्षा की धर्म हमारी रक्षा करेगा...। सबसे बड़ी बात कि हमारी सारी योजनाए निष्फल होती जा रही है, क्योंकि कोई भी सेना बिना भोजन के युद्ध लड़ना तो दूर ज़िन्दा भी नही रह सकती!
और हमने बहुत प्रयास कर लिए की युद्ध ना हो एक राजपूत स्त्री को विधर्मी देखे यह असहनीय कृत्य भी हम सहन कर चुके है। परंतु विधि का कुछ और ही विधान है जो हमारा मूल धर्म भी ह़ैे शायद भवानी रक्त पान करना चाहती है।
और चित्तोड़ दुर्ग का कोमार्य भंग होने का समय आ गया है!
रतन सिंह के मुख को निहार रही थी समस्त सेना ओर कुछ अद्भूत सुनने की अभिलाषा हो रही थी! रावल ने कहा- हम परम सौभाग्यशाली है; जो दुर्ग के विवाह का अवसर महादेव ने हमें दिया है, इसे रक्त के लाल रंग ओर जौहर की गुलाल से सुसज्जित करने की तैयारी हो और महाकाल के स्वागत मे नरमुंड की माला अर्पित करने का अवसर ना चुके कोई सेनानी...।हमें अब अपनी रजपूती को लाज्जित नहीं करना!
प्रात: किले के द्वार खोल दिये जाये, और अपने आराध्य का स्वागत केशरिया बाना पहन कर करे जौहर कुंड को सजाया जाये महाकाल के प्रसाधन में रूपवातियों के देह की दिव्य भस्म गुलाल तेैयार की जाये.. और इतना सुनते ही मर्दाना सरदारो के आभा मंड़ल पर दिव्य तेज बिखर गया, और जनाना सरदार अपने दिव्य जौहर की कल्पना में आत्म विभोर हो उठे, बात रानीवास तक पहुँची पूरे दुर्ग मे एक दिव्य वातावारण बन गया हर एक वीर ओर वीरांगना हर्ष और उल्लास से भरपूर हर हर महादेव के नारे लगाने लगे, मानो इसी दिन का इंतजार कर रहे हो!
हर कोई महादेव का वरण करने को वंदन करने को आतुर था!
और बादल बोल उठा मैंने तो पहले ही कहा था ,ये तुर्क विश्वास के लायक नहीं परंतु मेरी किसी ने नहीं मानी। राजपूत वीरों की भुजायें फड़कने लगी ओर नेत्रों मे शत्रु के चित्र उतर आये!मानो विवाह की तैयारियों में डूब गया किला, किले को सजाने में लग गए समस्त किलेवासी कहीं आने वाले के दीदार में कोई कमी ना रह जाये, मेरे महाकाल आने वाले है! इतना व्यस्त तो दुर्ग राजतिलक के समय भी नही रहा होगा और इतनी ख़ुशी तो राजकुमार के जन्म पर भी नहीं थी! वाह! कितना सुन्दर दिख रहा है दुर्ग,इसका विवाह जो है लो मुहूर्त भी निकल आया ब्रह्म मुहूर्त..।
राजपूत अपनी तलवारों, बरछो, भालों को चमकाने में और केशरिया बाना बांधने में.. तो क्षत्राणियां अपने अपने संदुको से विवाह के लाल, हरे जोड़े निकाल कर एक दूसरे को दिखाती हुई पूछ रही थी मुझ पर ये कैसा रहेगा? ननदें अपनी भाभीयों को सजाने में तो भाभीयाँ अपनी ननदों को संवारने में व्यस्त हो गई, रखडी़, गोरबंद, झूमका, बिन्दी, नथनी, टीका, पायजेब, चुडी़ ,कंगन, बिछुडी़, बाजूबंद, हार, और मंगलसूत्र सजने लगे...
हर स्त्री को इतना सजने की ललक को फेरों के समय भी नहीं थी उस दिन भी किसी के लिये सजना था ओर आज भी लेकिन उस दिन पीहर से बिछड़ने का गम था आज तो बस मिलन ही मिलन है! पूरे किले मे एक अभूतपूर्व महोत्सव की तैयारियां हो रही थी मानो ये अवसर बड़ी मुश्किल से मिला हो ओर चेहरो की रौनक ऐसी कि कल बारात में जाने की उत्सुकता हो!
कुंड पर चन्दन की लकड़ियाँ नारियल, देशी घी, और पूजन की सामग्री इकट्ठी की गई गंगा जल के कलश, और तुलसी पत्र की व्यवस्था सुनिश्चित की गई, राज पुरोहित ने रानीनिवास में ख़बर भेजी की जौहर सूर्य की पहली किरण के दर्शन करने उपरांत शुरू हो जायेगा और अग्रिम और अंतिम पंक्ति महारानी सुनिश्चित करे!
जैसे युद्ध में हरावल में रहने की होड़ रहती है जोहर में भी प्रथम पंक्ति में रहने की और महारानी के साथ रहने की होड़ मच गई! ढ़ोल, नंगाड़े,शाहनाइयाँ और मृदंग बजने लगे, हाथी , घोडे़ और सवार सजने लगे, परंतु सबसे ज्यादा उत्साह तो औरतों में था!
सुबह होने वाली थी ब्रह्म मुहूर्त ना चुक जाये सभी सती स्त्रियों ने अंतिम बार अपने सुहाग के दर्शन किए। महारानी पदमावती ने रावल के चरणों का वन्दन किया और फिर मुड़ कर नही देखा। रतन सिंह कुछ कहना चाहते थे परंतु भवानी के मुख का तेज देख उनका मुँह ना खुल पाया, आज पद्मिनी उनको अपनी पत्नी नही महाकाली सी प्रतीत हो रही थी, हो भी क्यों ना? महाकाल की भस्म बनने जो जा रही हैे उनमें विलीन होने जा रही है!
जौहर स्थल पर स्वस्थी वाचन शुरू हुआ पुरोहितों की टोली ने वैदिक मंत्रो से पूजन शुरू करवाया और मुख मे़ तुलसी पत्र, गंगा जल, हाथ में नारियल पकड़कर सूर्य की ओर मुख करके प्रथम पंक्ति महारानी "पदमावती" के साथ तैयार थी! मोक्ष के मार्ग पर बढ़ने को तैयार थी !
सनातन धर्म की हिन्दू धर्म की अस्मिता और रघुकुल की आन शान की रक्षा करने को, सनातन धर्म के लिये स्वयं की अाहुती देने को अग्नि मंत्रोचार के साथ प्रज्वलित कर दी गई और उसमें नारियल, घी डाल दिया गया! अग्नि की लपटे भगवा रंग की मानो सूर्य का अरूणोदय स्वरूप अस्ताचल में जाने को आतुर हो और अंधकार मेवाड़ को अपनी आगोश में लेने का अन्देशा देता हो, वैदिक मंत्र सुन प्रथम पंक्ति की क्षत्राणियाँ कूद पडी अग्नि में क्षण भर मे स्वाहा… हो गई अग्नि सी पावन अग्नि में मिल गई!
अग्नि और घृत का मिलन देह को क्षण भर में ही भस्म बना रही था देखते ही देखते एक कुंड मे 16000 क्षत्राणियाँ भस्म बन गई और पूरे दुर्ग पर एक दिव्य सुगन्ध फैल गई जो पूर्व में कभी किसी ने महसूस नहीं की थी!
उनके मुख पर इतना तेज था की अग्नि भी मंद पड़ जाये, पुरोहित के स्वाहा के साथ ही सभी देवियों ने अपने तन की अाहुतियाँ दे दीं...।
पंडित गौतम जोशी जी द्वारा प्रेषित..