अरबियों का प्रचीन धर्म कौन सा था ? -01



येरुश्लम (ईज़राईल) जिसको अरबी में "बैत् अल मुकद्दस" यानी कि पवित्र स्थान बोला जाता है । ईसाई, यहूदी और मुसलमान इसे पवित्र स्थान मानते हैं । जिसमें एक ८-लाख दिनार का एक पुस्तकालय है जो कि तुर्की के गवर्नर ने सुल्तान अब्दुल हमीद के नाम पर बनवाया था ।

इस पुस्तकालय में हज़ारों की संख्या में प्राचीन पाण्डुलिप्पियाँ संग्रहित हैं जो कि ऊँट की झिल्लियों, खजूर के पत्तों, जानवर के चमड़ों पर लिखी हुईं हैं। इनमें अरबी, इब्रानी, सिरियानी, मिश्री भाषाओं में लिखे भिन्न-भिन्न काल के सैंकड़ों नमूने हैं।

इनमें ऊँट कि झिल्ली पर लिखी एक पुस्तक है जिसका नाम है "सैरुलकूल" जो कि अरब के प्रचीन कवियों का इतिहास है। जिसका लेखक है "अस्मई"।


इस्लाम के इतिहास में जगद्विख्यात बादशाह हुए हैं जो कि अलिफ-लैला की कहानियों के कारण प्रसिद्ध हुए हैं। इनका नाम था "खलीफा हारूँ रशीद" आज से करीब 1336 वर्ष पहले। और यही "अस्मई" नामक लेखक खलीफा के दरबार में शोभायमान था जिसने प्राचीन अरबीयों का इतिहास बड़ी मेहनत से अपनी पुस्तक "सैरुलकूल" में लिखा था।

तो अस्मई ने बादशाह को दरबार में जो लिखा हुआ इतिहास था वह कुछ ऐसे सुनाया :--

(१) मक्का नगर में एक मंदिर था। जिसको सभी अरबवासी पवित्र स्थान मानते थे। वहाँ दर्शन करने को जाने वाले यात्रियों के साथ बहुत लूटपाट होती रहती थी और कई बार हत्याएँ होती रहती थीं। जिससे कि यात्रियों की संख्या में कमी ही देखने को मिलती थी तो ऐसे में अरब की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ना ही था। जिसे रोकने के लिए अरब वासियों ने चार ऐसे महीने निश्चित किया जिसे कि "अशहरुलहराम" (पवित्र मास) कहा जाता है। इन महीनों में मेला लगता था जिसे कि "अकाज़" कहा जाता था।

(२) अकाज़ में कवि सम्मेलन रखा जाता था। दूर-दूर से अरबी कवि अपनी कविताएँ (कसीदे) पढ़ने के लिए आया करते थे। जिन १० कवियों की कविताएँ सबसे श्रेष्ठ और उत्तम होती थीं। उनको सोने की पट्टियों पर खुदवा कर या फिर ऊँट की झिल्लियों पर या खजूर के पत्तों पर लिखवाकर मक्का मंदिर में सुरक्षित रखा जाता था। और कवि शिरोमणियों को बहुत भारी ईनाम दिए जाते थे।

(३) ऐसे ही हर वर्ष कवि सम्मेलन होते रहते थे और अरबी कसीदे मक्का के अंदर सुरक्षित रखे जाते थे।

(४) जब मुहम्मद साहब ने ईस्लाम का झंडा बुलंद करके यहूदियों की खैबर की बस्ती उजाड़ कर मक्का पर आक्रमण किया तो तब वहाँ पर पड़ी 360 मूर्तीयाँ और अरबी कसीदे तहस-नहस करवाने शुरू कर दिए। लेकिन मुहम्मद साहब के लशकर में एक "हसन बिन साबित" नाम का अरबी कवि भी था। जो कि साहित्य प्रेमी होने के कारण मुहम्मद साहब के द्वारा हो रहे कसीदों के नाश को सहन न कर सका। और बहुत से बहुमूल्य कसीदे अपने साथ लेकर सुरक्षित मक्का से निकल गया। और उन कसीदों को अपने पास सुरक्षित रखा।

(५) ये कसीदे "हसन बिन साबित" के देहान्त के बाद उसकी तीसरी पीढ़ी में "मस्लम बिन अस्लम बिन हसान" के पास परम्परा से आए। और उसी समय में बगदाद में एक "खलीफा हारूँ रशीद" नाम का विख्यात साहित्य प्रेमी था। जिसकी चर्चा दूर-दूर तक थी। उससे प्रभावित होकर मस्लम ये कसीदे लेकर मदीना से बगदाद रवाना हुआ।

(६) मसल्म ने वे कसीदे मुझे (अस्मई को) दिखाए। जिनकी संख्या 11 हैं। तीन कसीदे तो एक ही कवि जिसका नाम "लबी बिन अख़्तब बिन तुर्फा" के हैं जो सोने के पत्रों पर अंकित हैं। बाकी 8 कसीदे ऊँट की झिल्लियों पर अन्य कवियों के हैं। ये लबी नामक कवि मुहम्मद साहब से 2300 साल पुराना है। { यानि कि आज से 1336 + 2300 = 3636 वर्ष पुराना हुआ }


(७) मस्लम को 'हजरत अमीरुलमोमीन' ने इसके लिए बहुत बड़ा ईनाम दिया है।

लबि बिन अख़्तब बिन तुर्फा” ने जो अरबी शेयर लिखे हैं उनमें से पाँच शेर इस पुस्तक "सैरुलकूल" में लिखे हैं जिनको अस्मई ने बादशाह के दरबार में पेश किया था :-

(1) अया मुबारक -अल- अर्जे युशन्निहा मिन-अल-हिन्द। व अरदिकल्लाह यन्नज़िजल ज़िक्रतुन ।।
अर्थात :- अय हिन्द की पुन्य भूमि तूँ स्तुति करने के योग्य है क्योंकि अल्लाह ने अपने अलहाम अर्थात् दैवी ज्ञान को तुझ पर उतारा है।

(2) वहल बहलयुतुन अैनक सुबही अरब अत ज़िक्रू । हाज़िही युन्नज़िल अर रसूलु मिन-आल-हिन्दतुन ।।
अर्थात् :- वो चार अलहाम वेद जिनका दैवी ज्ञान ऊषा के नूर के समान है हिन्दुस्तान में खुदा ने अपने रसूलों पर नाज़िल किए हैं ।

(3) यकूलून-अल्लाहा या अहल-अल-अर्ज़े आलमीन कुल्लहुम । फत्तबाऊ ज़िक्रतुल वीदा हक्क़न मालम युनज्ज़िलेतुन ।
अर्थात् :- अल्लाह ने तमाम दुनिया के मनुष्यों को आदेश दिया है कि वेद का अनुसरण करो जो कि निस्सन्देह मेरी ओर से नाज़िल हुए हैं ।

(4) य हुवा आलमुस्साम वल युजुर् मिनल्लाहि तन्ज़ीलन् । फ़-ऐनमा या अख़ीयु तबिअन् ययश्शिबरी नजातुन् ।।
अर्थात् :- व ज्ञान का भँडार साम और यजुर हैं जिनको अल्लाह ने नाज़िल किया है । बस भाईयों उसी का अनुसरण करो जो हमें मोक्ष का ज्ञान अर्थात् बशारत देते हैं ।

(5) व इस्नैना हुमा रिक् अथर नाहिसीना उख़्वतुन् । व अस्ताना अला ऊँदव व हुवा मशअरतुन् ।।
अर्थात् :- उसमें से बाकी के दो ऋक् और अथर्व हैं जो हमें भ्रातृत्व का ज्ञान देते हैं । यो कर्म के प्रकाश स्तम्भ हैं, जो हमें आदेश देते हैं कि हम इन पर चलें । 

अब इन पाँच शेयरों से स्पष्ट है कि लबी नामक कवि वेदों के प्रती कितना आस्थावान था। और उन प्रमाणों को पढ़कर कोई मुसलमान भी नहीं मुकर सकता है क्योंकि वेदों न नाम स्पष्ट आया है। और न हि ये कह सकता है कि ये वो वाले वेद नहीं जिसको आर्य लोग मानते हैं। भारत में ही ब्राह्मणों की पतित शाखा थी जिसको शैख बोला जाता था। वही ईरान होते हुए अरब में बसी है। क्योंकि अरब में घोड़े उत्तम नसल के पाए जाते हैं (आज भी)। तो जिस देश में उत्तम घोड़े हों उस स्थान को शैख ब्राह्मणों ने अर्व नाम दिया था। अर्वन् संस्कृत नाम है घोड़े का। और अर्व कहते हैं अश्वशाला को।

मुहम्मद साहब के कुछ समय पहले तक अरब में शैवमत, बौद्धमत और वाममार्ग का प्रचार रहा है जिस कारण मुहम्मद साहब को बौद्धों के मूर्तीयों से उग्र घृणा हो गई थी। जिसको उन्होंने बुतपरस्त कहा है। इसका प्रमाण हम अगले लेख में डालेंगे कि मुहम्मद साहब के समय में अरब में कौन सा धर्म प्रचलित था।


-- कुमार आर्य



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