भारत में बाबा साहब आंबेडकर के नाम पर कई राजनैतिक और सामाजिक “दुकानों” ने अपने-अपने अर्थों के अनुसार “स्टॉल” लगाए हैं, तथा बाबासाहब के आदर्शों, उनके कथनों एवं उनके तथ्यों को तोड़मरोड़ कर उनकी दुकानदारी के अनुसार जनता के सामने पेश किया है।
इस “बौद्धिक गिरोहबंदी” में बहुत से दलित बन्धु फँस चुके हैं, इसी प्रकार कई सवर्ण भी बाबासाहब की कई बातों से अनजान होने के कारण इन राजनैतिक दुकानों का शिकार बन जाते हैं। क्योंकि बाबासाहब आंबेडकर के बारे में ऐसी कई बातें हैं, जो न केवल दलित बंधुओं से छिपाई जाती हैं, बल्कि सवर्णों से भी यत्नपूर्वक छिपाई गई हैं, ताकि दोनों ही वर्गों को सच्चाई का पता नहीं चल सके। संस्थाओं, पार्टियों और “दलित” के नाम पर उनकी दुकानदारी चलती रहे और बाबासाहब की तस्वीर को ढाल बनाकर उसके पीछे वे अपना गेम भी खेलते रहें और करोड़ों का चन्दा भी बटोरते रहें।
आंबेडकर ने अपने जीवनकाल में ही कई घटनाओं, कई विषयों, कई समस्याओं तथा कई बहसों में ऐसे-ऐसे कथन कहे हैं और ऐसे-ऐसे समाधान सुझाए हैं जो “सेकुलर-चर्च-वाम” के नापाक त्रिकोण को कतई नहीं भाते। हमारा “कथित देशव्यापी मीडिया” न कभी इन बातों पर कोई चर्चा करता है, ना ही आंबेडकर से सम्बंधित सही तथ्य दलितों के सामने रखे जाते हैं... सब केवल भेड़चाल चल रहे हैं, क्योंकि उनका स्वार्थ और उनके हित इसी से बंधे हुए हैं. आईये देखते हैं बाबासाहब आंबेडकर से सम्बंधित कुछ अनजाने तथ्य...
१) डॉक्टर आंबेडकर ने उपनिषदों से सम्बंधित महाकाव्यों को लोकतंत्र का आध्यात्मिक आधार बताया है....
जात-पाँत-तोडक मण्डल के अपने प्रसिद्ध भाषण में आंबेडकर कहते हैं, हिंदुओं को स्वतंत्रता, बराबरी जैसी बातों के लिए कहीं बाहर देखने की जरूरत ही नहीं है। वे यह काम उपनिषदों को देखकर भी कर सकते हैं। आगे चलकर उन्होंने अपनी पुस्तक “रिडल्स ऑफ हिंदुइज्म” में इस विचार को न सिर्फ दोहराया, बल्कि इसे और भी विस्तार से बताया है। उन्होंने तीन महाकाव्यों का सन्दर्भ लिया है, “सर्वं खल्विदं ब्रह्म”, “अहं ब्रह्मास्मि” और “तत्वमसि”।
२) डॉक्टर अम्बेडकर का मानना था कि “हिन्दू कोड बिल”, ही समान नागरिक संहिता लागू करने का पहला कदम है....
जो अम्बेडकर लगातार मनुस्मृति का कटु विरोध करते रहे, उन्हीं ने यह कहा है कि हिन्दू कोड बिल जैसा कोई हिन्दू क़ानून बनाने के लिए (जो कि सामाजिक लोकतंत्र स्थापना तथा स्त्री-पुरुष भेदभाव को समाप्त करने वाला हो) मनुस्मृति में से अच्छे-अच्छे भाग छाँटकर स्वीकार करने चाहिए। 11 जनवरी 1950 को दिए गए अपने एक व्याख्यान में आंबेडकर कहते हैं कि – “हिन्दू कोड बिल, प्रगतिशील प्रतीत होता है, यह क़ानून हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथों के आधार पर ही बना है... और यह हमारा प्रयास है कि भारत के सभी नागरिक भारत के संविधान के तहत समान नागरिक संहिता बनाने की दिशा में आगे बढ़ेंगे।” आंबेडकर समान नागरिक संहिता को सामाजिक दृष्टि से देखते थे, लेकिन नेहरू ने हिन्दू कोड बिल तथा समान नागरिक संहिता दोनों को राजनैतिक चश्मे से देखते रहे और अंततः नेहरू का सेकुलरिज़्म ही भारी पड़ा, यानी समान नागरिक संहिता तक हम कभी पहुँचे ही नहीं। यदि आंबेडकर थोड़ा अधिक समय जीवित रहे होते तो शायद समान नागरिक संहिता की दिशा में कुछ आगे बढ़ते।
३) डॉक्टर आंबेडकर, सिंधु नदी का पानी पाकिस्तान को देने के खिलाफ थे...
अंग्रेज अर्थशास्त्री हेनरी विन्सेंट हडसन, जो कि ब्रिटिश शासनकाल में कई प्रमुख पदों पर भी रहे, उन्होंने अपनी पुस्तक “द ग्रेट डिवाईड : ब्रिटेन-इण्डिया-पाकिस्तान” (1969) में विस्तार से लिखा है कि किस तरह आंबेडकर, पाकिस्तान को सिंधु नदी का पानी देने के खिलाफ थे। नेहरू और माउंटबेटन ने इस मामले में बीचबचाव किया और पाकिस्तान को राहत दिलवाई। 3 मई 1948 को भारत-पाकिस्तान के प्रतिनिधियों की बैठक में भीमराव आंबेडकर ने भारत का नेतृत्त्व करते हुए इस बात पर अड़ गए कि जब तक पाकिस्तान इस बात को नहीं मान लेता, कि सिंधु नदी पर भारत का ही कानूनी अधिकार रहेगा तथा पूर्वी पंजाब के किसानों का इस पर पहला हक होगा, तब तक सिंधु नदी के पानी का बँटवारा नहीं किया जाएगा। पाकिस्तान की तरफ से गुलाम मोहम्मद ने लॉर्ड माउंटबेटन से कहा कि आंबेडकर का यह जिद्दी रवैया ठीक नहीं है, और बातचीत खत्म करने की धमकी दी। गवर्नर जनरल ने तत्काल नेहरू को फोन लगाया और कहा कि यदि आंबेडकर ऐसे ही अड़े रहे और समझौता वार्ता चलती ही रही तो शरणार्थियों को दिक्कत हो सकती है। इस पर नेहरू ने, आंबेडकर को दरकिनार करते हुए समझौते को आगे बढ़ाने की मंजूरी दे दी...”।
४) आंबेडकर चाहते थे कि संस्कृत भारत की राष्ट्रभाषा बने....
11 सितम्बर 1949 के संडे हिन्दुस्तान स्टैण्डर्ड के अनुसार क़ानून मंत्री के रूप में बाबासाहब आंबेडकर ने संस्कृत भाषा की पुरज़ोर वकालत की थी। इस मामले में उनका साथ दिया था “ताजुद्दीन अहमद”ने। आंबेडकर ने अपनी इस माँग को ऑल इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के अधिवेशन में भी उठाया था, लेकिन नेहरू ने अंग्रेजी को वरीयता दी और संस्कृत भारत की राष्ट्रभाषा बनते-बनते रह गई।
५) मिशनरियों द्वारा दलित हितों के नाम पर सहयोग को आंबेडकर ने हमेशा संदेह की निगाह से देखा और उन्हें अपने से दूर ही रखा...
प्रोफ़ेसर लक्ष्मी नर्सू की पुस्तक “एसेंशियाल्स ऑफ बुद्धिज़्म” की प्रस्तावना में डॉक्टर आंबेडकर लिखते हैं... – “...ईसाई मिशनरियों द्वारा दलितों की सहायता और सहयोग करना संदेहास्पद है। धर्म परिवर्तन के उनके इतिहास को देखते हुए मैं मिशनरियों की बजाय बौद्ध धर्म की तरफ सदैव आकर्षित हूँ...”। इसके अलावा “कलेक्टिव वर्क ऑफ डॉक्टर आंबेडकर (खंड १७)” में एक पत्र का उल्लेख करना जरूरी है। यह पत्र 9 मार्च 1937 को बाबू जगजीवनराम ने डॉक्टर आंबेडकर को लिखा है... – “मेरे प्रिय डॉक्टर साहब, मैं आपको इलाहाबाद के बलदेव प्रसाद जायसवाल नामक व्यक्ति से सावधान करना चाहता हूँ। इस व्यक्ति का ऑफिस कैथोलिक चर्च में है और उसकी सभी गतिविधियाँ चर्च के एजेंडे से निर्धारित हैं। यह व्यक्ति किसी रैली में हजारों की संख्या में मुस्लिमों या ईसाईयों को ला सकता है, परन्तु दलित-वंचित समुदाय के सौ हिंदुओं को भी वहाँ लाने में यह सक्षम नहीं है। मैं इस व्यक्ति और मिशनरी के साथ इसके संदिग्ध व्यवहारों से खिन्न हूँ और इसकी गतिविधियों से मुझे सख्त आपत्ति है...”। इस बात से साफ़ हो जाता है कि आंबेडकर और बाबू जगजीवनराम दोनों ही इस बात से सहमत थे कि भारत के दलित समुदाय के भीतर, ईसाई मिशनरी की घुसपैठ ठीक बात नहीं है।
संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि बाबासाहब आंबेडकर के नाम पर अपनी “दुकान” चलाने वाले दलित चिन्तक, वास्तव में आज हिन्दू-द्रोही ताकतों और मिशनरी के हाथों में खेल रहे हैं। ये कथित चिन्तक बाबासाहब की उपरोक्त बातों (संस्कृत, सिंधु जल समझौता, उपनिषदों पर भरोसा इत्यादि) को जानबूझकर दलितों के बीच नहीं पहुँचने देना चाहते। इससे भी अधिक दुःख की बात तो यह है कि ये कथित दलित चिन्तक आरक्षण जैसे महत्त्वपूर्ण विषय में भी दलितों को भरमाए हुए हैं।
ये लोग दलित ईसाई(??) नामक भ्रामक अवधारणा का समर्थन करते हैं, जबकि ईसाईयों अथवा मुस्लिमों के पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने से “हिन्दू दलितों” (यानी वास्तविक दलितों) का हक छीना जाता है, उसमें बँटवारा हो जाता है. कहने को ये लोग बाबासाहब आंबेडकर के अनुयायी हैं, लेकिन वास्तव में बाबासाहब इस भारत के लिए, हिन्दू धर्म के लिए अथवा मिशनरी की चालबाजी के बारे में जो कहते थे, जो करते थे... उसका पालन करना तो दूर, उन बातों को छिपाने में अपना स्वार्थ देखते हैं।
साभार : www.desicnn.com
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