सुप्रीम कोर्ट द्वारा तीन तलाक के मामले में दिया गया फैसला देश में मुस्लिम महिला अधिकारों की राह में हमेशा एक मील का पत्थर माना जाएगा। हालांकि इस ऐतिहासिक फैसले के बाद कई इस्लामी धार्मिक विद्वानों और मुस्लिम नेताओं से मिले संकेत यही इशारा करते हैं कि मुस्लिम महिलाओं के जीवन में वास्तविक बदलाव अभी दूर की कौड़ी है। इस फैसले के बाद भी कोई मुस्लिम पति कई तरीकों से तलाक दे सकता है। पहला तरीका तो यही है कि उसे तीन महीने तक हर महीने तलाक बोलना और पिछली बार बोले गए तलाक को दोहराना होगा। दूसरा यह कि एक बार तलाक बोलने के बाद उसे तीन महीने तक इंतजार करना होगा, ताकि तलाक वैध हो जाए। इन दोनों ही मामलों में मेलमिलाप की गुंजाइश होती है।
पेंच यह है कि ऐसे मामलों में अधिकांश महिलाएं मेलमिलाप के बजाय घरेलू हिंसा या दहेज उत्पीड़न के मामले दायर कर सकती हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि भारतीय समाज पर हावी हिंदू मान्यताओं के चलते महिलाएं तलाक को अच्छा नहीं मानतीं। हाल के वर्षों में चिट्ठी, फोन कॉल, एसएमएस, फेसबुक, ईमेल, वॉट्सएप आदि के जरिये तलाक देने के मामले सामने आने पर मुस्लिम पुरुषों की खासी आलोचना हुई है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी मुस्लिम पति इनमें से किसी भी तरीके से तलाक दे सकते हैं।
ऐसा इसलिए, क्योंकि इस्लाम में तलाक देने का एकाधिकार सिर्फ पुरुषों के पास है जबकि महिलाओं को उनसे कम अक्ल माना जाता है। ऐसे में मुस्लिम पतियों का तलाक देने का विशेषाधिकार जरा भी प्रभावित नहीं होगा। यह एक गंभीर मसला है जिसे सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने अपने 395 पन्नों के फैसले में सुलझाया नहीं। तलाक के लिए मुस्लिम पति अदालत का रुख नहीं कर सकता। अगर वह ऐसा करता भी है तो अदालत से उसकी अर्जी खारिज हो जाएगी, क्योंकि ऐसा कोई कानून ही नहीं है जिसके तहत वह तलाक दे सके। इसके लिए उसे या तो किसी मौलवी के पास जाना होगा या खुद ही लिखकर इसकी तस्दीक करनी होगी।
पति के उलट पत्नी मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 के तहत तलाक के लिए अदालत जा सकती है। वह किसी इस्लामिक धर्मगुरु के माध्यम से भी तलाक ले सकती है। तुरंत तीन तलाक को अवैध करार देना कई मायनों में ऐतिहासिक है, लेकिन बेहतर यह होता कि सुप्रीम कोर्ट यह व्यवस्था देता कि शौहर को तलाक के लिए अदालत में ही मामला दाखिल करना होगा और दोनों पक्षों के वकीलों की जिरह सुनने के बाद अदालत में तलाक दिया जाए। इससे अदालतें मुस्लिमों में तलाक को लेकर जुड़ी सभी समस्याओं का हल निकाल सकतीं और इस्लामिक धर्मगुरुओं के पास आलोचना करने की कोई वजह नहीं होती। अब कई इस्लामी विद्वान यह दलील दे रहे हैं कि अदालती फैसला शरीयत कानूनों में दखल है। वे ऐसा इस तथ्य के बावजूद कह रहे हैं कि 22 मुस्लिम देश एक बार में तीन तलाक पर प्रतिबंध लगा चुके हैं।
जमीयत-उलेमा-ए-हिंद के नेता मौलाना महमूद मदनी ने कहा, ‘अदालती आदेश के बावजूद तुरंत तीन तलाक को शरीयत कानूनों से संरक्षण मिलता रहेगा।’ इसी संगठन के एक और नेता मौलाना अरशद मदनी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का धार्मिक मुसलमानों पर कोई असर नहीं पडे़गा। दारुल उलूम देवबंद के चांसलर मुफ्ती अब्दुल कासिम नोमानी ने कहा, ‘तीन तलाक पूरी तरह से शरीयत का मसला है जिसमें कोई संशोधन नहीं किया जा सकता।’ असम से लोकसभा सांसद मौलाना बदरुद्दीन अजमल ने कहा कि इससे ऐसे हालात बनेंगे कि कोई शौहर शरीयत कानूनों के तहत तो तीन तलाक देकर अपना वैवाहिक रिश्ता खत्म कर देगा, लेकिन भारतीय कानूनों के मुताबिक वह रिश्ता वैध ही माना जाएगा। किसी एक पक्ष द्वारा अदालत का रुख किए जाने पर ही कानून के दखल की गुंजाइश बनेगी। ऐसे में यह संभव है कि जो मुसलमान शरीयत कानूनों को मानते हैं वे भारतीय अदालतों की अनदेखी कर सकते हैं और इस्लामिक संगठनों द्वारा संचालित अदालतों में अपने तलाक संबंधी मामलों को ले जा सकते हैं।
ब्रिटेन में यह देखा गया है कि धार्मिक मान्यताओं से चलने वाले मुसलमान ब्रिटिश अदालतों के बजाय तलाक के मामलों को इस्लामिक धर्मगुरुओं की शरीयत अदालतों से ही सुलझाते हैं। इसके चलते ब्रिटेन के अलावा यूरोपीय देशों के शहर शरीयत अदालतों के गढ़ बन गए हैं। अगर मदनी, नोमानी और अजमल के बयानों पर गौर करें तो यह महसूस होगा कि भारतीय समाज में भी ब्रिटेन सरीखी शरीयत संस्कृति ही पैठ बनाएगी जो मुसलमानों के लिए भारत की सामाजिक मुख्यधारा से जुड़ाव को मुश्किल बनाएगी।
भारत में इस्लामिक संगठनों के नेटवर्क ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इस मामले में अगला कदम उठाने के लिए भोपाल में 10 सितंबर को एक बैठक बुलाई है। ऐसी संभावना कम ही है कि मुस्लिम धर्मगुरु इस फैसले से ताल मिलाएंगे। उनकी बैठक का एक नतीजा यह भी हो सकता है कि देश भर में एक अभियान चलाया जाएगा कि मुसलमान भारतीय संविधान के मुताबिक नहीं, वरन शरीयत कानूनों के हिसाब से चलें। इससे आम मुसलमानों में रूढ़िवादी रवैया ही बढे़गा, क्योंकि जो अशिक्षित हैं उन पर मुस्लिम धर्मगुरुओं का व्यापक प्रभाव है। इसका परिणाम यह होगा कि रूढ़िवादी इस्लाम की जड़ें और मजबूत होंगी।
केवल कानून से ही सामाजिक बदलाव सुनिश्चित नहीं किए जा सकते। मिसाल के तौर भारत में बाल विवाह के सख्त कानून के बावजूद जुलाई में जारी एक्शन ऐड के आंकड़ों के मुताबिक ऐसी शादियों का आंकड़ा 1.3 करोड़ से अधिक है। तुरंत तीन तलाक का मसला भी अमीर मुसलमानों की तुलना में गरीब मुसलमानों के लिए ज्यादा तकलीफदेह है। भारत में सुरक्षा गार्ड, दर्जी या कसाई जैसे काम में लगे गरीब आदमी की औसत आमदनी 10,000 रुपये मासिक होती है। ऐसे गरीब लोग इंसाफ के लिए उन अदालतों से उम्मीद नहीं कर सकते जहां न्याय पाने में कई साल लग जाते हैं।
अच्छी खबर यही है कि हाल के वर्षों में अधिकांश मुसलमानों ने अपनी बेटियों को पढ़ाई के लिए भेजना शुरू कर दिया है। इन लड़कियों के पास इंटरनेट सेवाओं तक पहुंच होती है। नए दौर की मुस्लिम महिलाएं अपने आसपास हो रहे सामाजिक बदलावों को लेकर कहीं ज्यादा जागरूक भी हैं। हालांकि महिला सशक्तीकरण के लिए कानूनी और राजनीतिक लड़ाई बेहद जरूरी है, लेकिन मुस्लिम महिलाओं को यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि उनकी आजादी और तरक्की की राह तभी खुलेगी जब वे अपनी लड़कियों को बेहतर शिक्षा मुहैया कराएंगी और उन्हें अच्छी नौकरियां करने देंगी।
[ लेखक वाशिंगटन स्थित मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट में सीनियर फेलो हैं ]
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