राष्ट्रवाद के नाम (कविता)


जो साथ चलें उनका स्वागत

जो दूर रहें उनकी इच्छा

दो दिन की है सब कांव-कांव

गीदड़ कुल की यह हुँआ-हुँआ

 

जो मार्ग चुनाआरुढ़ रहो

बकझक पर तनिक  कान धरो।

दो टूक फैसला करना है

इस पार करोउस पार करो।

 

तुम जिस पथ के अनुसरणी हो

वह ठेठ विजय तक जाता है

बिल्ली सौ बार उसे काटे

फिर भी शुभ ही कहलाता है

 

मेघों की छाती चीर-फाड़

बिजली भू तक  जाती है

पतझर के घेरे तोड़-ताड़

हरियाली हर दिशि छाती है

 

ढालों को सम्मुख अड़ा देख

भालों ने कब चुभना छोड़ा

अक्षितिज तमों को खड़ा देख

सूरज ने कब उगना छोड़ा।

 

अम्बर भी दोहराये जिसको

वह भीषण रण उच्चार करो।

दो टूक फैसला करना है

इस पार करोउस पार करो।

 

क्या भारत मां के अंग-भंग

की वह दास्तान भुला दोगे

क्या वीर मुखर्जी का बोलो

पावन बलिदान भुला दोगे

 

आपातकाल के जुल्म-सितम

सारे चुपचाप भुला दोगे

जो खुद ही तुमने बुझा दिया

वह दीपक आप भुला दोगे

 

चन्दन पर लिपटा रहे भले

विषधर विषधर ही होता है

रख दो पूजा की थाली में

बम फिर भी बम ही होता है

मत अपना मूल स्वभाव तजो

तुम बाहर होहुंकार भरो

दो टूक फैसला करना है

इस पार करोउस पार करो।

 

इन दुर्गन्धों का परिशोधन

केवल तुमको ही करना है

जन को पीड़ा का परिमार्जन

केवल तुमको ही करना है

 

जिस ओर देखिए कंस-वंश

जिस ओर देखिए रावण हैं

उस नाटक में पट परिवर्तन

केवल तुमको ही करना है

 

हम वंशज भूषणदिनकर के

फिर तुम्हें जगाने आए हैं

हल्दीघाटी के अमर छन्द

फिर तुम्हें सुनाने आए हैं

 

इतिहास खड़ा सहमा ठिठका

उठ अंध गुफा के पार करो।

दो टूक फैसला करना है

इस पार करोउस पार करो।।

 

जब न्याय धर्म खतरे में हों

गाण्डीव उठाना पड़ता है

सम्मुख हो गुरु अथवा दादा

सबसे टकराना पड़ता है

 

जो चीर हरण पर मौन रहें

उन सबको मरना पड़ता है

अर्जुन को कर्ण सहोदर का

भी कंठ कतरना पड़ता है

 

मुश्किल से अवसर आया है

भारत का भाग्य बदलने का

यों झिझक-झिझक पग धरने से

वह लक्ष्य नहीं है मिलने का

 

खुलकर खेलेजमकर जूझे

वह अनीकिनी तैयार करो।

दो टूक फैसला करना है

इस पार करो, उस पार करो।।

                                                                     बलबीर सिंह 'करुण'

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