यही हिन्दू धर्म का मूलभूत सिद्धांत हैं –
यही उसका अत्सन्त मार्मिक भाव हैं । हिन्दू शब्दों और सिद्धांतों के जाल में जीना नहीं चाहता । यदि इन साधारण इन्द्रिय-संवेद्य विषयों के परे और भी कोई सत्ताएँ हैं, तो वह उनका प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहता हैं। यदि उसमें कोई आत्मा हैं, जो जड़ वस्तु नहीं हैं, यदि कोई दयामय सर्वव्यापी विश्वात्मा हैं, तो वह उसका साक्षात्कार करेगा । वह उसे अवश्य देखेगा और मात्र उसी से समस्त शंकाएँ दूर होंगी । अतः हिन्दू ऋषि आत्मा के विषय में, ईश्वर के विषय में यही सर्वोत्तम प्रमाण देता हैं : “मैंने आत्मा का दर्शन किया हैं; मैंने ईश्वर का दर्शन किया हैं ।“ और यही पूर्णत्व की एकमात्र शर्त हैं । हिन्दू धर्म भिन्न भिन्न मत-मतान्तरों या सिद्धांतों पर विश्वास करने के लिए संघर्ष और प्रयत्न में निहित नहीं हैं, वरन् वह साक्षात्कार हैं, वह केवल विश्वास कर लेना नहीं है, वह होना और बनना हैं ।
इस प्रकार हिन्दूओं की सारी साधना प्रणाली का लक्ष्य हैं –
सतत अध्यवसाय द्वारा पू्र्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना और उसके दर्शन कर लेना , उस स्वर्गस्थ पिता के समान पूर्ण जाना हिन्दूओं का धर्म हैं । और जब मनुष्य पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता हैं, तब क्या होता हैं ? तव वह असीम परमानन्द का जीवन व्यतीत करता हैं। जिस प्रकार एकमात्र वस्तु में मनुष्य को सुख पाना ताहिए, उसे अर्थात् ईश्वर को पाकर वह परम तथा असीम आनन्द का उपभोग करता हैं और ईश्वर के साथ भी परमानन्द का आस्वादन करता हैं ।
यहाँ तक सभी हिन्दू एकमत हैं:
भारत के विविध सम्प्रदायों का यह सामान्य धर्म हैं। परन्तु पूर्ण निररेक्ष होता हैं, और निरपेक्ष दो या तीन नहीं हो सकता । उसमें कोई गुण नहीं हो सकता, वह व्यक्ति नहीं हो सकता । अतः जब आत्मा पूर्ण और निरपेक्ष हो जाती हैं, और वह ईश्वर के केवल अपने स्वरूप की पूर्णता, सत्यता और सत्ता के रूप में – परम्-सत्, परम्-चित्, परम्-आनन्द के रूप में प्रत्यक्ष करती हैं । इसी साक्षात्कार के विषय में हम बारम्बार पढ़ा करते हैं कि उसमें मनुष्य अपने व्यक्तित्व को खोकर जड़ता प्राप्त करता हैं या पत्थर के समान बन जाता हैं ।
'जिन्हें चोट कभी नहीं लगी हैं, वे ही चोट के दाग की ओर हँसी की दृष्टि से देखते हैं ।'
मैं आपको बताता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं होती । यदि इस एक क्षुद्र शरीर की चेतना से इतना आनन्द होता हैं, तो दो शरीरों की चेतना का आनन्द अधिक होना ताहिए, और उसी प्रकार क्रमशः अनेक शरीरों की चेतना के साथ आनन्द की मात्रा भी अधिकाधिक बढ़नी चाहिए, और विश्वचेतना का बोध होने पर आनन्द की परम अवस्था प्राप्त हो जाएगी ।
अतः उस असीम विश्वव्यक्तित्व की प्राप्ति के लिए इस कारास्वरूप दुःखमय क्षुद्र व्यक्तित्व का अन्त होना ही चाहिए ।
जब मैं प्राण स्वरूप से एक हो जाऊँगा , तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता हैं; जब मैं आनन्दस्वरूप हो जाऊँगा, तभी दुःख का अन्त हो सकता हैं; जब मैं ज्ञानस्वरूप हो जाऊँगा, तभी सब अज्ञान का अन्त हो सकता हैं, और यह अनिवार्य वैज्ञानिक निष्कर्ष भी हैं । विज्ञान ने मेरे निकट यह सिद्ध कर दिया हैं कि हमारा यह भौतिक व्यक्तित्व भ्रम मात्र हैं, वास्तव मेंमेरा यह शरीर एक अविच्छन्न जड़सागर में एक क्षुद्र सदा परिवर्तित होता रहने वाला पिण्ड हैं, और मेरे दूसरे पक्ष -- आत्मा -- के सम्बन्ध में अद्वैत ही अनिवार्य निष्कर्ष हैं ।
विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं हैं :
ज्यों ही कोई विज्ञान पूर्ण एकता तक पहुँच जाएगी, त्यों ही उसकी प्रगति रूक जाएगी; क्योंकि तब वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा । उदाहरणार्थ, रसायनशास्त्र यदि एक बार उस मूलतत्तव का पता लगा ले, जिससे और सब द्रव्य बन सकते हैं, तो फिर वह आगे नहीं बढ़ सकेगा । भौतिक शास्त्र जब उस मूल शक्ति का पता लगा लेगा, अन्य शक्तियाँ जिसकी अभिव्यक्ति हैं, तब वह रुक जाएगा । वैसे ही, धर्मशास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त कर लेगा, जब वह उसको खोज लेगा, जो इस मृत्यु के उस लोक में एकमात्र जीवन हैं, जो इस परिवर्तनशील जगत् का शाश्वत आधार हैं, जो एकमात्र परमात्मा हैं, अन्य सब आत्माँ जिसकी प्रतीयमान अभिव्यक्तियाँ हैं । इस प्रकार अनेकता और द्वैत में से होते हिए इस परम अद्वैत की प्राप्ति होती हैं । धर्म इससे आगे नहीं जा सकता । यही समस्त विज्ञानों का चरम लक्ष्य हैं ।
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