सिर्फ एक ही विकल्प मोदी - दमदार मोदी
लक्ष्मणरावजी
इनामदार जिनके बारे में कहा जाता है की वे नरेंद्र मोदी के गुरु थे। जुलाई 1985 में इनामदार के निधन के बाद ही नरेंद्र मोदी ने सक्रिय
राजनीति में अपने कदम रखे। इससे पहले साल 1985 तक
नरेंद्र मोदी किसी भी तरह सक्रिय राजनीति में नहीं थे। और फिर 1992 के आते-आते नरेंद्र मोदी का राजनीतिक जीवन अपना रूप लेने लग गया था। 42
साल की उम्र में नरेंद्र मोदी को अमरीकी सरकार ने भारत के सबसे “युवा नेता” के तौर पर अमेरिका बुलाया। इसके बाद
भाजपा ने भी नरेंद्र मोदी की संगठनात्मक ताकत को पहचाना और नरेंद्र को दिल्ली बुला
लिया।
गुजरात भाजपा
की विषम परिस्थितियों में मोदी को गुजरात छोड़कर दिल्ली आना पड़ा। 1999 तक मोदी अटल बिहारी बाजपेयी के चहेते बन चुके थे और
भाजपा ने मोदी को प्रवक्ता के तौर पर नया काम सौप दिया। इसके बाद 1995 से 2001 के दौरान मोदी गुजरात से दूर रहे लेकिन 1999
के चुनावों में मोदी को भाजपा महासचिव होने के नाते गुजरात के मामले
में हस्तक्षेप का अधिकार था। इस दौरान केंद्र में रहकर मोदी ने अपनी राजनीतिक पकड़
मजबूत बना ली। 6 साल मोदी गुजरात से बाहर दिल्ली में रहे।
इसके बाद से मोदी का विजय रथ कही नहीं रुका और समय की बानगी देखिए की गुजरात से
नरेंद्र मोदी जब आए थे तो बस वे एक सचिव थे और 2001 में जब
मोदी गुजरात लौटे तो तत्कालीन भाजपा के महासचिव और आरएसएस से जुड़े मोदी अब गुजरात
के मुख्यमंत्री बन चुके थे।
आखिर क्या
कारण था को मोदी को भाजपा ने कुछ ही सालों में इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी दे दी वो भी उन
हालातों में मोदी को गुजरात भाजपा का कोई भी बड़ा नेता पसंद नहीं करता था। कहते है
लोकतन्त्र में राजनीति जरूरी होती है और राजनीतिक ताकतवर होना कोई गुनाह नहीं माना
जाता। नरेंद्र मोदी इसी सूत्र पर काम करने लगे। नरेंद्र मोदी के लिए गुजरात से
बाहर जाकर दिल्ली में सबसे महत्वपूर्ण काम राजनीतिक ताकत प्राप्त करना था। नरेंद्र
मोदी का जलवा ही था की जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेत्रत्व वाली दिल्ली में एनडीए
सरकार सत्ता में आई तब तक नरेंद्र मोदी की राजनीतिक हलकों में मांग होने लगी। पूरे
विश्व भर के नेता, राजनयिक और पत्रकार नरेंद्र मोदी
को बुलावा भेजने लगे। नरेंद्र मोदी इस बात की अच्छी जानकारी थी की किसी भी संघटन
की जान उसके कार्यकर्ताओ में होती है। और उन्होने कार्यकर्ताओ के बीच रहकर ही काम
करना मुनासिब समझा। आगे वाले समय में हालात ये थे की मोदी का नाम लेने भर से भाजपा
कार्यकर्ताओ में जोश भर जाता था और मोदी इन ही कार्यकर्ताओ के सहारे अपने राजनीतिक
जीवन की ऊंचाई को छूने लगे थे। इसी के साथ भाजपा के तमाम बड़े नेताओं को इस बात का
एहसास होने लगा था की मोदी में राजनीति की विलक्षण प्रतिभा है जिसे नकारना भाजपा
के लिए ही हानिकारक होगा।
किसी आदमी को
एक मछली दीजिये और आप एक दिन के लिए उसका पेट भरेंगे। किसी आदमी को मछली पकड़ना
सीखा दीजिये और आप जीवन भर के लिए उसका पेट भर देंगे। ये चीनी कहावत मोदी के मामले
में भाजपा पर एक दम सटीक बैठती है।
मोदी गुजरात
में थे तो वो शुरुआती तौर पर आरएसएस के प्रचारक भर थे। लेकिन भाजपा ने मोदी को
दिल्ली बुलाकर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश,
राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और असम विधानसभा
चुनावों की ज़िम्मेदारी के साथ संघटन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ सौप दी। जिसने
मोदी को बहुत कुछ सीखने का मौका दे दिया। मोदी की इसी सीख ने मोदी को आज भाजपा में
प्रधानमंत्री पद के कथित उम्मीदवारों में शामिल करा दिया। अब मोदी का कद इतना बढ़
गया है की भाजपा भी कई मौकों पर नरेंद्र मोदी के आगे बौनी नज़र आने लगती है। हालांकि
ये कहना भी गलत होगा की मोदी अपने बूते ही सब कुछ बने है। मोदी आज जहां है वहाँ
पहुँचने में खुद भाजपा ने उनकी भरपूर मदद की है। किसी भी कार्यकर्ता को नेता बनाने
में पार्टी का ही सबसे बड़ा योगदान रहता है। और अब भाजपा में नरेंद्र मोदी से बड़ा
कोई नेता दिखाई नहीं देता जो भाजपा को आगामी लोकसभा चुनावों में मजबूत बना सके।
खैर सच्चाई तो
यह है की अब आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा के पास मोदी के अलावा अब कोई चेहरा
बचा ही नहीं है। जबरदस्त चुनावी प्रचार के बावजूद एलके आडवाणी के नेत्रत्व में 2009 और 2004 में पोस्टर बॉय अटल
बिहारी बाजपेयी के होते हुए भी करारी हार ने भाजपा को अंदर ही अंदर कही न कही अब
ये सोचने पर तो मजबूर कर ही दिया है की सत्ता वापसी के लिए किस तरीके को अपनाना
आसान होगा। अब इससे थोड़ा पहले चले तो भाजपा ने केंद्र में अपनी पहली सरकार
हिंदुत्तव के दम पर बनाई। और फिलहाल मोदी की छवि भी एक हिंदुत्तववादी नेता के तौर
पर ही है। और रही बात धर्मनिरपेक्षता की तो ये मुद्दा चुनावों से पहले सारे
राजनीतिक दलों की जुबान पर रहता है। खासकर क्षेत्रीय दलों का धर्मनिरपेक्षता का
आलाप समय समय पर फूटता रहता है। इस मामले को लेकर भाजपा को बस थोड़ा धेर्य रखने की
जरूरत है।ये भी एक इतिहास रहा है और सच्चाई भी की गठबंधन की राजनीति में वही दल
धर्मनिरपेक्ष है जो लोकसभा चुनावों में ज्यादा से ज्यादा सीट लेकर आए।
अब सबसे बड़ा
सवाल यही है की भाजपा कैसे आगामी लोकसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करे। और इसका
जबाव बस नरेंद्र मोदी के पास है। मोदी ने गुजरात में भाजपा को ताकतवर ही नहीं
बनाया साथ ही स्थिरता भी दी। गुजरात को छोड़ दे तो पिछले डेढ़ दशक में भाजपा ने जिन
जिन राज्यों में सरकार बनाई उनमे से अधिकतर राज्यों में फैली अस्थिरता ने भाजपा को
अगले चुनावों में सत्ता से बेदखल ही कर दिया। गुजरात भी एक समय केशुभाई पटेल, शंकरसिंह वाघेला, सुरेश मेहता और
काशीराम राणा के समय अस्थिर था लेकिन मोदी ने आते ही गुजरात भाजपा को राजनीतिक
स्थिरता देकर भाजपा और गुजरात को एक दूसरे का पर्याय बना दिया। कुल मिलाकर कहा जा
सकता है की राजनीति में स्थिरता वही दे सकता है जिसके पास राजनीतिक ताकत और अनुभव
का अनोखा संगम होता है। नरेंद्र मोदी भाजपा में अकेली ऐसी शख़्सियत बन चुके है
जिसके पास राजनीतिक ताकत तो है ही साथ ही अनुभव के साथ भाजपा के कार्यकर्ताओ का भी
साथ है।
नरेंद्र मोदी
की कार्यशैली पर उनके राजनीतिक दुश्मन कई सवाल उठा सकते है लेकिन यहाँ ये भी समझना
होगा की उन राजनीतिक दुश्मनों ने कौन सा ऐसा पहाड़ खोदा है की जिसने भाजपा को फायदा
पहुंचाया हों। ये सब कोरी बयानबाजी और एस दूसरे की कुर्सी खींचने तक ही सीमित रहे।
लेकिन मोदी ने भाजपा को गुजरात में बीते एक दशक में कई स्तरों पर लाभ पहुंचाया है।
जिनका लाभ भाजपा मोदी को फिर से गुजरात से निकाल कर लेना चाहे तो ले सकती है।