तालिबान ने अफगानिस्तान पर अपनी हुकूमत के दौर में भले ही संगीत पर प्रतिबंध लगा दिया हो लेकिन उनकी अपनी पसंद के गीतों का लेखन और गाना बदस्तूर जारी है.
अफ़गानिस्तान में एक तरफ़ नेटो की फौजें वापसी की तैयारी कर रही हैं, दूसरी तरफ तालिबान के लेखक एक अनाम लड़ाकू के सुनहरे मिथकों को गीतों में पिरोने में लगे हैं.
हर अफगान के भीतर कहीं एक लोकगायक होता है, फिर चाहे वो तालिबान का लड़ाका ही क्यों ना हो. लंबे समय से देश की सत्ता पर काबिज़ होने की लड़ाई लड़ रहे तालिबान को यह अच्छे से मालूम हैं कि हर अफ़गान के दिल में कविता के लिए खास जगह है, फिर चाहे वो किसी भी भाषा को बोलने वाला हो या देश के किसी भी हिस्से में रहने वाला हो.
लंबा इतिहास
अफगानिस्तान में युद्ध गीतों का लंबा इतिहास है. सदियों से गीतों ने महान शूरवीर लड़ाकों की महानता बखानी है. यह गाने आम तौर पर बताते हैं कि किस तरह एक अकेले लड़ाकू ने वीरता से अपने से कहीं अधिक ताकतवर शत्रु का सामना किया और विजय पाई, या किस तरह से वो लड़ते लड़ते सबको नाकों चने चबवा कर शहीद हुआ.
यह गाने चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु या गोलियथ का सामना कर रहे डेविड के किस्सों से मिलते जुलते हैं. अफगान इतिहास में इस तरह के गीतकारों का एक अच्छा उदहारण हैं 17वीं शताब्दी के कुशल खान खटक. एक योद्धा के साथ-साथ कवि भी रहे खटक ने अपनी कविताओं में पश्तूनों को "विदेशी बाहरी मुगलों" के खिलाफ एक हो जाने की बात कही थी.
नया दौर
आधुनिक युद्ध काल में 1980 के दशक में अफगान मुजाहीदीन गुरिल्लों ने धार्मिक तरानों का सबसे पहले इस्तेमाल आरंभ किया. वो इन गानों से अपने लड़ाकों को उत्साहित करते थे. साल 1996 से 2001 तक अफगानिस्तान में सत्ता के दौर में तालिबान ने बदी को रोकने और नेकी को फैलाने के लिए अलग से एक सरकारी विभाग की स्थापना की थी. यह विभाग उन लोगों को सजा देता था जो संगीत सुनते या बजाते पाए जाते थे, लेकिन उस दौर में भी बिना बाजों के साथ गाना गाने की अनुमति थी.
तालिबान के गीत ज़्यादातर गहरी सुरीली आवाज वाले होते हैं और ज़्यादातर में साथ कोई साज नहीं बजता.
तालिबान ने एक बार फिर इन गीतों की ताकत को पहचानते हुए इस तरह के गानों का प्रचार शुरू कर दिया है. तालिबान मानता है कि इस तरह के गानों की मदद से उसे नए लड़ाकू भर्ती करने में मदद मिलेगी और उसके पुराने 'योद्धा' इन गानों को सुन कर उत्साह से भर उठेगें.
इन्ही कोशिशों के चलते तालिबान ने तारानी नाम की एक वेबसाईट भी शुरु की है. हाल ही में तालिबान के गीतों की एक किताब अंग्रेज़ी में भी छापी गई है.
तालिबान अफ़गानिस्तान की दोनों मुख्य भाषाओं पश्तो और दरी में कविता का पक्षधर है.
इस तरह के गाने तालिबान लड़ाकों को अगली हिंसक कार्रवाई करने के लिए उकसाते हैं"
:- मेजर जनरल अब्दुल मानना फराही
बड़ा बाज़ार
अभी भी तालिबान का एक विभाग है जो कि इस तरह के गानों को प्रायोजित कर उसे फैलाने का काम करता है. वैसे तो इस बारे में कोई अधिकृत जानकारी नहीं है लेकिन एक अनुमान के मुताबिक यह लाखों अमरीकी डॉलरों का कारोबार है.
ज़्यादातर इस तरह के कैसेट और ऑडियो वीडियो सीडीज़ पाकिस्तान में बनाए जाते हैं लेकिन इन गानों की नक़ल का काम अफ़गानिस्तान के शहरों में भी होता है.
पाकिस्तान के पेशावर विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर किबला अयाज कहते हैं, "तालिबान के गाने काफ़ी कारगर होते हैं. उनके गीतों के बोल बहुत ही साधारण होते हैं जो आम लोगों के दिलों को छूते हैं."
प्रोफ़ेसर किबला अयाज़ कहते हैं " पर तालिबान के गानों में इसके लड़ाकों द्वारा किए गए उन हमलों का ज़िक्र नहीं होता जिनमे मासूम बच्चे और बेकसूर औरतें मारी जाती हैं."
तालिबान हमेशा इस तरह के हमलों में अपने लड़ाकों का हाथ होने से इंकार करता आया है.
गानों पर प्रतिबंध
अफगानिस्तान के सरकारी अधिकारियों का कहना है कि तालिबान के गानों में बताई गई बातें अधिकतर गलत और झूठ होती हैं लेकिन वो भी मानते हैं कि इस तरह के गाने कारगर होते हैं.
अफ़गानिस्तान के गृह मंत्रालय के सलाहकार मेजर जनरल अब्दुल मानना फराही कहते हैं, "इस तरह के गाने तालिबान लड़ाकों को अगली हिंसक कार्रवाई करने के लिए उकसाते हैं. "
अफ़गानिस्तान में सरकार ने तालिबान के गानों पर प्रतिबंध लगा रखा है और सरकारी दस्ते दुकानों पर लगातार छापेमारी करते रहते है.
इसी तरह से तालिबान भी अपने प्रभाव वाले इलाकों में लोगों को किसी भी अन्य तरह का संगीत या गीत सुनने से रोकता है.